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23 मई, 2021

बसेड़ा की डायरी : मित्रता, घने नीम की छाँव है।


23 मई 2021

मित्रता, घने नीम की छाँव है। भरसक पसीने में तरबतर मीलों नापते हुए राह में संबल देता अंगोछा है दोस्ती। रेगिस्तान में लोटा-डोर की मानिंद बर्ताव करती है। शोक में कंधे की तरह सहारा और ब्याव-मांडे में पहल पावणी की तरह बहार बन जाती। असल में मित्रता की जाजम पर की हुई सैकड़ों बैठकों के आसरे उमर काटते हैं हम। मैत्री को जितना समझा उतना कहने का मन है कि दुलारने-पुचकारने और मुसीबत में विश्वासने के ढेरों किस्सों का ताना-बाना है यह। नौका विहार से उपजी उमंग में मित्रता के बीज पनप सकते हैं। अमरुद के पेड़ पर खेले कलाम-डारी खेल से यह परवान चढ़ती है। सावन के झूलों से इसमें सातवे आसमान को चुनौती देने का साहस आ जाता। अंधड़ के बाद पराये खेत में आम बीनने से होकर इसका रास्ता सूने बगीचे से संतरे और इमली चुराने के आनंद तक जाता है। मित्रता में कलम-पट्टी से लेकर दरी-पट्टी साझा की जाती थी। खून के रिश्तों में इंसान मित्रता ढूंढ़ता हुआ बूढ़ा रहा है।

मित्रता सभी के लिए मोहब्बत की पहली पगडंडी है। गिरस्ती में घटित प्यारभरी शामों की बेहिसाब खातेदारी में मित्रता उफान पर होती है। खिड़की में रखे स्पीकर से भूले-बिसरे गीत बज रहे हों और पूरा घर सलमा आगा-लता-रफ़ी-मुकेश-किशोर और शमशाद सहित महेंद्र कपूर की नक़ल में गुनगुना रहा हो। यही दोस्ती के साँस लेने का सबसे सुखद पल कहा गया है। दम तोड़ती दोस्तियाँ चाय की थड़ी पर जी उठती हैं। रंगतेरस न होती तो चेले-चपाटियों का मेला न जमता। छतों सहित खेत की मेड़ों पर दिनों तक का प्रेम इसे सींचता है और गाँव के इकलौते तालाब में घंटों साथ तैरने और सखी-सहेलियों को करतबबाज़ी करते हुए निहारने से मित्रता आकार लेती हैं। संझा बनाते वक़्त और सेवरा लाती बेर हमझोली सखियों का एका देखना दोस्ती को निहारना है। दोस्ती का सबसे उजला रूप वहीं बसता है। फूल, पत्तियाँ और ताज़ा गोबर के संयोजन के बाद संझा को बीच में रख चारोंमेर बना गोलगुंडा मित्रता के लिए ज़रूरी आसन है। सेवरा में गाए गीतों का सामूहिक गान और आखिर में भुंगड़े-मखाणे का प्रसाद वितरण दोस्ती के उस पार की कथा कहते हैं। इसकी बनावट बड़ी अनूठी है। अबोले रहकर भी निभती रहती है और खूब बोलने पर भी रहीम के धागे वाले दोहे की तरह छिटक जाती है। मित्रता थोड़े में कहूँ तो प्राणायाम है और ज्यादा में कहूँ तो जल-नैति। यह दोपहर की उमस तो कम से कम नहीं ही है। सूरज उगने के ठीक बाद का प्रकाश और शाम पाँच बजे की चाय से गोधुली तक के फुरसती वक़्त में अनिर्णय की स्थिति का नाम है शायद।

कल शाम हमारी मित्र शिल्पी माथुर का फोन आया। उसकी जड़े ग्वालियर में हैं। जब पहली दफा मिली कोटा में रहती थी। अब जयपुर में हैं। निश्छल शब्द को साकार करती बालिका। सभी कॉमन दोस्त जानते हैं कि शिल्पी अलहदा है। ज़िंदगी को अपनी शर्तों पर जीना किसे कहते हैं?, शिल्पी उसका उदाहरण है। आपसी बातचीत में घंटेभर से ज्यादा बात हुई। पहले हम दोनों खूब चहककर एक दूजे का हाल सुनाते हुए स्पिक मैके आन्दोलन के दिन उचीन्दते रहे। प्रसन्न भैया, अशोक भैया और गोदारा अंकल का जिक्र करते हुए ही बातचीत आगे बढ़ी। शिल्पी से पारिवारिक जुड़ाव है तो डालर ने भी देर तक कोरोना-काल में तबियत जैसे ज़रूरी मुद्दे पर अनुभव सुने और बताए। अभी का हाल तो यही है कि सभी के पास ढेर-ढेर अनुभव और यातनाओं के संस्मरण हैं। सभी की पोटलियों में दुःख के पहाड़ और पीड़ा की नदियाँ ही रखी मिलेंगी। प्राथमिक कक्षाओं के बच्चों को सालों पढ़ाती रही शिल्पी अब बीते कुछ बरसों से फूल टाइम रंगमंच कर रही हैं।

 

बोलीं, फ़्लैट कल्चर भोग रही हूँ। पाँचवे माले पर जिस पर मैं रहती हूँ उस पर बाक़ी पाँचों मकान सालों से खाली हैं। शहरी अकेलापन। ऊपर वाले में एक भाभी हैं उनसे बोलचाल से अपनेपन की ख़ुराख मिल जाती है। जयपुर, बीकानेर और आसपास के साहित्यिक-सांस्कृतिक जमावड़ों में आने-जाने से लगभग सभी चेहरे परिचितों में बदल गए हैं। जीवन-यात्रा के कड़वे-मीठे अनुभव अपनी तरफ से ज़िंदगी में कुछ न कुछ जोड़ते हुए चलते ही हैं। हाल अप्रैल की पंद्रह तारीख तक तो सोसायटी के बच्चों के साथ घर के ही एक कमरे में गुंजाइश निकालकर कार्यशाला टाइप गतिविधि करके उनके बचपन में आई भयावह निराशा और एकांत को अपने स्तर पर दूर कर रही थी। मैं खुश थी। बच्चों के माँ-बाप प्रसन्न थे। बच्चों का उल्लास बेहिसाब था कि अचानक कोरोना ने बिगाड़ा कर दिया। शिल्पी दस मिनट से ज्यादा गंभीरता नहीं ओढ़ सकती है क्योंकि वह अपने मूल में ही चंचल है। स्पिक मैके आन्दोलन ने हमें बहुत खुबसूरत मित्र दिए हैं।

हर तीसरे दिन अध्यापकी की शुरुआत वाले जिगरी दोस्त जीतू, राजू और प्रवीण से विडियो वाली कॉन्फ्रेंस कॉल हो जाती है तो अटकी हुई योजनाएं फिर से चल पड़ती और हम अपने होने के अहसास सहित महक उठते। बहुत लंगोटिया दोस्त इकट्ठे बतियाते हैं तो एक दूजे की लंगोट खोलने में देर नहीं करते हैं। दुराव-छिपाव की सारी दीवारें अपने आप ध्वस्त हो जाती हैं। पांतरे रोज़ प्रवीण से संवाद रामबाण साबित होता है। कोई मित्र नमक वाले गरारे की तरह पेश आता है और कोई नीम-गिलोय वाले काढ़े की तरह। सप्ताह में एकाध बार गुड़ की लापसी टाइप सुखद अनुभूति भी हो जाती है। कुछ से संवाद रोजाना दांत माँजने की तरह है। कोई नालायक ऐसा है कि पाँच पकवान के जीमण की तरह तरसाने के लिए सूची में शामिल है। यही पूँजी है। वक़्त-बेवक़्त का सिरहाना है। बारिश में छाता है। गुगी है। तूफ़ान में तिरपाल है दोस्त। बुखार में थर्मामीटर और जुकाम में नीबू की शिकंजी।




सन 2000 से अध्यापकी। 2002 से स्पिक मैके आन्दोलन में सक्रीय स्वयंसेवा।2006 से 2017 तक ऑल इंडिया रेडियो,चित्तौड़गढ़ में रेडियो अनाउंसर। 2009 में साहित्य और संस्कृति की ई-पत्रिका अपनी माटी की स्थापना। 2014 में 'चित्तौड़गढ़ फ़िल्म सोसायटी' की शुरुआत। 2014 में चित्तौड़गढ़ आर्ट फेस्टिवल की शुरुआत। चित्तौड़गढ़ में 'आरोहण' नामक समूह के मार्फ़त साहित्यिक-सामजिक गतिविधियों का आयोजन। 'आपसदारी' नामक साझा संवाद मंच चित्तौड़गढ़ के संस्थापक सदस्य।'सन्डे लाइब्रेरी' नामक स्टार्ट अप की शुरुआत।'ओमीदयार' नामक अमेरिकी कम्पनी के इंटरनेशनल कोंफ्रेंस 'ON HAAT 2018' में बेंगलुरु में बतौर पेनालिस्ट हिस्सेदारी। सन 2018 से ही SIERT उदयपुर में State Resource Person के तौर पर सेवाएं ।

कई राष्ट्रीय सांस्कृतिक महोत्सवों में प्रतिभागिता। अध्यापन के तौर पर हिंदी और इतिहास में स्नातकोत्तर। 2020 में 'हिंदी दलित आत्मकथाओं में चित्रित सामाजिक मूल्य' विषय पर मोहन लाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर से शोध।

प्रकाशन: मधुमती, मंतव्य, कृति ओर, परिकथा, वंचित जनता, कौशिकी, संवदीया, रेतपथ और उम्मीद पत्रिका सहित विधान केसरी जैसे पत्र में कविताएँ प्रकाशित। कई आलेख छिटपुट जगह प्रकाशित।माणिकनामा के नाम से ब्लॉग लेखन। अब तक कोई किताब नहीं। सम्पर्क-चित्तौड़गढ़-312001, राजस्थान। मो-09460711896, ई-मेल manik@spicmacay.com

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