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22 मई, 2021

बसेड़ा की डायरी : किसी साठ पार रचनाकार की डायरी पढ़ लीजिएगा


बसेड़ा की डायरी, 22 मई 2021

इतिहास और साहित्य दोनों ही जुदा किस्म की स्ट्रीम हैं। इतिहास आपको जब विवरण देता है तो उसकी शब्दावली में नीरसता अनुभव होता है पर साहित्य में आत्मकथा, जीवनी, संस्मरण जैसी आख्यानपरक विधाओं के ज़रिए जब हम अपने बीते वक़्त को समझते हैं तो डूबकर पढ़ पाते हैं। रूचि बढ़चढ़ कर हिस्सेदारी करती है। दिल में ‘आह’ और ‘वाह’ के संकेत उपजते हैं। रोमांच जगता है। क़िताब के कुछ पन्ने पढ़ते ही दोस्त को फोन कर किस्सा सुनाने को जी करता है। ख़ास बातों को अंडरलाइन करने का मन होता है। अच्छी और असरकारक पुस्तकें पढ़ने के बाद रूचि सम्पन्न पाठक ज़मीन से दो अंगुल ऊपर हो जाता है। पढ़ने का असर पढ़ते हुए मन में उठती हुई हिलोरों से ही महसूस किया जा सकता है। दुर्भाग्य यह है कि छपे हुए अक्षरों को आँखों से निहारने की आदत क्षीण होती जा रही है। अच्छी क़िताब से गुजरते हुए पदों और वाक्यों से अपनापा ऊँचाइयां छूता हुआ लेखक से रिश्ते प्रगाढ़ करता है। वर्तमान की जंगी मुसीबतों के सहज हल अनुभवजन्य लेखकों के संस्मरणों में मिल जाते हैं। पीढ़ियों के बीच का वैचारिक अंतराल अगर अच्छे से जानना है तो किसी साठ पार रचनाकार की डायरी पढ़ लीजिएगा।

सरस और समृद्ध आत्मकथाओं की लम्बी-चौड़ी लिस्ट भी हैं। अतीत के कोमल भाव और हर रंग समेटे जीवन को बड़े स्नेह से याद करते हुए जब कोई बुजुर्ग लेखक अपना बीता चित्रित करता है तो पाठक को पचास से पचत्तर साल पुरानी दुनिया जानने के पक्के सूत्र मिल जाते हैं। पढ़ते हुए कई बार लेखक के चरण छूने का इरादा होता है। यह कभी संभव होता है कभी लेखक दिवंगत की श्रेणी में आ जाते हैं। इन दिनों हिंदी के ख्यात लेखक और अपने ज़माने के मेहनती अध्यापक आचार्य विश्नाथ त्रिपाठी का लिखा स्मृति-आख्यान ‘नंगातलाई का गाँव’ पढ़ रहा हूँ। एक-एक वाक्य जीवंत है। वे तालाब लिखते हैं तो कमल-गट्टे से लेकर बचपन में तैरना सीखते बच्चों का हुजूम अपने आप चित्र में स्थान पा जाता है। अपने गली-मुहल्लों से लेकर परायी बस्ती का भी विवरण इतना बारीक होता है कि अचरज पैदा करता है। लगता है मानो बूढ़ाती उम्र के अनुपात में भी स्मृति ज़बर काम कर रही है।

पेड़-पौधों के नाम, जानवरों के नाम, पक्षियों के नाम और उनकी हलचल का पूरा लेखा। अद्भुत दस्तावेज़ है यह पुस्तक। जड़ों से जोड़ने के चक्कर में परिवारों में अभिभावक सारी उम्र नारेनुमा वाक्य दोहराकर बच्चों में संस्कार ठूँसने के कृत्य करते नहीं थकते मगर एलान यह करना है कि ऐसी सरस क़िताबें बच्चों के लिए बड़ा कमाल साबित हो सकती है। अपने जन्म से पहले का समाज समझने का इससे ज्यादा सुविधाजनक और रोचक रास्ता नहीं है। माँ का लाड़, दोस्तों की कारस्तानियाँ, अकाशधर्मा गुरुओं की ऊँचाई, देहात का उजास और प्रकृति से मनुष्य की गलबहियाँ। सबकुछ इस पुस्तक में क्रमवार और सलीकेदार ढंग से गूंथा हुआ मिल जाएगा।

एक सौ चालीस में से उनतालीस पन्ने पढ़ने पर मुरीद हो गया हूँ। सबकुछ साझा करना संभव नहीं मगर उस दौर की कम्युनल हार्मनी के आगे आजकल की हमारी साम्प्रदायिक सोच कितनी तुच्छ और पशुवत है यह मगज में बैठ गया। भीलवाड़ा वाले प्रो. मनीष रंजन जी से जितनी मुलाकातें हुई उनमें हर बार त्रिपाठी जी का ज़िक्र हुआ। आज फिर से अनुभूति हुई कि त्रिपाठी जी का जीवन और उनका लेखन दोनों वजनदार है। मुश्किल ही नहीं अब असंभव प्रतीत होता है कि हम न तो त्रिपाठी जी बन सकेंगे और न मनीष रंजन। काल ने पलटी मार दी है। न तो हम अध्ययन के आदी हैं न अभ्यास के। नौकरी में ईमान और इंसानियत एकदम लुप्त है। आजकल के कक्षा-छोड़ कॉलेज प्राध्यापकों के वर्तमान में विश्वनाथ जी जैसे समर्पित और अनौखे अध्यापकों के प्रति समाज हमेशा ऋणी रहेगा। सनद रहे अध्यापक होने के लिए बीएड होना कोई शर्त नहीं रही क्योंकि वर्तमान की रपटें हालात बताती हैं कि बीएड जैसी महत्वपूर्ण और आधार कही जाने वाली डिग्री अपने होने के मरण-काल में आ पहूँची है।

हम यह कभी भी नहीं समझ पाएंगे कि शिक्षा क़िताब, कक्षा और परीक्षा के अलावा भी बहुत कुछ है। गुरु के साथ कॉलेज के बाहर चाय की थड़ी पर बातियाने का सुख हम बिसार चुके हैं। अध्यापकों के साथ लम्बी रेल-यात्राएं और सेमीनार में भागीदारी तो दूर की कोढ़ी सिद्ध होगी। क्या हम स्वीकार पाएंगे कि गुरुजी के गप भी तालीम के अंश पाए जाते हैं। गाँठ से चाय पिलाने वाले अध्यापक सौ में से पाँच शेष हैं। घर बुलाकर भोजन करवाने वाले गुरु अब नहीं रहे। ढूँढ़ने में ऊर्जा मत खपाना। बड़ी नफासत से सेव के छिलके खुद ही उतार कर शिष्यों को फाँकें देते हुए भक्तिकाल की कविता पर बात करने वाले गुरुजन अतीत का विषय हो गया है। अंत में क्या कहूँ क़िताब का कोई तोड़ अभी तक आया नहीं है। जितने साधन पुस्तकों के पूरक होने का दावा कर रहे हैं वे सभी भ्रम के शिकार हैं।

बीते तीस घंटे में जितना संवाद हुआ घर के ही अन्य तीन सदस्यों से संभव हुआ। बाहरी फोन-कॉल्स की संख्या तीन हैं। कल सवेरे प्रतिरोध का सिनेमा वाले संजय जोशी सर से चालीसेक मिनट बात हुई। उनसे जब भी संवाद होता है एक अनौपचारिक कक्षा की मानिन्द आकार ग्रहण कर लेता है। कह रहे थे दिल्ली सहित देशभर में हालात एक सरीखे हैं। दिल्ली में उनका वास है और देशभर में फैले साथियों से लगातार बातचीत में फीडबैक मिलता रहता है। पूरा परिवार कोरोना की ज़द में आ गया था। गनीमत है कि ननिहाल पक्ष में दो डॉक्टर हैं तो सभी उन दो की देखरेख और सतत परामर्श में सब बच गए। पिताजी अब उनके पास ही रहते हैं। छोटा भाई आकाशवाणी में केंद्र निदेशक हैं। लखनऊ से कहीं पहाड़ों में तबादला हो गया है। फिर बोले नवारुण प्रकाशन भी लॉक डाउन की मार से कैसे बचता। इस बीच ख़बर मिली टाइपिस्ट भी चल बसा। कागज़ डेढ़ गुना महँगा हो चला। कुरिअर सेवा लगभग ठप्प है। चर्चा लेखकों पर आकर टिकी। कह रहे थे मेरे मित्रों में दो-तीन साथी खुद को छपाने को लेकर इतने अनुत्सुक हैं कि तीन-तीन साल से पांडुलिपि तैयार करने के आग्रह पर एक कदम भी आगे नहीं खिसक रहे हैं। असल में वे लोग काम में विश्वास करते हैं। छपना-छपाना दूजे दर्जे की बात है। ईनाम, ख्याति जैसे प्रलोभन को वे बहुत पीछे छोड़ आए।

संजय भाई से सहमती बनी कि हम लोग विचार में भिन्नता के बावजूद संवाद की संस्कृति ख़त्म हो जाने से इस मुहाने पर आ खड़े हुए हैं कि बहुत नजदीकी मित्रों और रिश्तेदारों से अब देश, लोकतंत्र, सत्ता, राजनीति जैसे विषयों पर वैचारिक बहस नहीं कर पाते। बहुत पास के लोग भ्रम में जीते हुए अंधविश्वासों और वाट्स-एप छाप कुढ़े के शिकार हैं। हम उन पर दया तो कर सकते हैं मगर रिश्ता टूट जाने के भय से बहस टाल देते हैं। संजय भाई की ख़ासियत है कि बात की शुरुआत और समाप्ति पर डालर और अनुष्का की कुशल पूछते हुए उन्हें यथायोग्य दुलार देना नहीं भूलते। मुझे भी अरसे से ड्यू एक पाण्डुलिपि पर कुछ गंभीरता से काम करने के लिए कहकर नमस्ते किया।

शाम के वक़्त एक शोधार्थी मित्र से बात हुई। भरतपुर के पास के रहने वाले और हाल मुकाम रेवदर सोरोही में कॉलेज सहायक प्रोफेसर भाई विष्णु कुमार शर्मा से बात हुई। मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर के हिंदी विभाग में पंजीयन है। मेरे पीएचडी गाइड डॉ. राजकुमार व्यास के पर्याप्त नजदीक हैं। विषय ‘प्रियंवद के कथा साहित्य में स्त्री पात्र’ जैसा कुछ है। बातों में मैं उनका सहायक तो क्या बनता मगर अपने शोध के दौरान यह जान लिया था कि शोध अकेले शोधार्थी और पीएचडी गाइड का काम नहीं है। यह सामूहिक मेहनत और सामलाती निष्कर्ष वाला कार्य होता है। उनकी पीएचडी गाइड सिरोही कॉलेज में प्रो. सची सिंह हैं। कथा साहित्य में मेरा दख़ल शून्य हैं। कुछ ट्रिक सुझाकर अध्यायों में कुछ फेरबदल करने को कहा। विष्णु जी की आवाज़ बहुत स्पष्ट और रेडियो के लायक लगी। इसी सप्ताह के सोमवार को जाना कि वे डायरी भी लिखते हैं। बहुत क्रमवार और हिंदी की भाषाई शुद्धता के साथ पेश आते हैं। स्त्री विमर्श पर खूब पढ़ा और पढ़ रहे हैं। मैंने कट-कॉपी-पेस्ट के काल में श्रमशील और गंभीर शोधार्थी कम ही देखे हैं। विष्णु जी से यह पहली और लगभग संतुलित बातचीत थी। लगा कि मित्रों की पूँजी में बारह ग्राम वाले कलदार की तरह कुछ इज़ाफा हुआ।

विष्णु जी आगे जोड़ रहे थे कि प्रियवंद जी की कहानियों में विवाहेत्तर रिश्तों में प्रेम का पसारा है। एकल महिला और विधवाओं के संसार में पर-पुरुषों से मेल-मिलाप के विवरण बहुतायात हैं। प्रेम का खूब विस्तार है जिसमें दैहिक सबंधों के बीच नैतिकता और अनैतिकता के तमाम सवाल हैं। भारतीय समाज व्यवस्था, विवाह जैसी प्राचीन संस्था और परिवार जैसी समृद्ध परम्परा के बीच लिव-इन-रिलेशनशिप और एक्स्ट्रा मेरिटल रिलेशन जैसे नवीन कोंसेप्ट पर लिखना और ऐसे ज्वलंत मुद्दों पर अभिव्यक्त होना लेखक की विषय सामग्री है। यह हमारे परिवेश की दस फीसदी आबादी का सच तो हो सकता है मगर नब्बे फीसदी का नहीं। कुल जमा लगा कि संस्थाएं टूट रही हैं। अराजकता दूर से इधर आने को ताक में बैठी है। विष्णु भाई को चारेक लेखक, तीनेक क़िताबें और दो व्यक्तियों के सम्पर्क भेंट किए।

आज सवेरे स्पिक मैके आन्दोलन में कभी सगंत में रहे दुष्यंत चुण्डावत से बात हुई। उम्र में ग्यारह-बारह बरस पीछे जन्मा होगा। बस्सी चित्तौड़गढ़ के पास गाँव में रावला है। राजपूती ठाठ रहे हैं। बहुत संस्कारित और सहज। निम्बाहेड़ा के जे.के. स्कूल में पढ़ा। फिर उदयपुर में होटल मैनेजमेंट सीखा और नौकरी में मैनेजमेंट का हुनर खूब आजमाया भी। पिताजी शारीरिक शिक्षक थे। दो साल पहले नहीं रहे। बड़ा भाई पहले से बड़े पैमाने पर खेती संभालता है। कोरोना की पहली लहर में होटल मैनेजमेंट छोड़ दुष्यंत दुबई से घर लौट आया। स्पिक मैके के नेशनल कन्वेंशन के निमित्त जम्मू की दस दिन की यात्रा में धाराप्रवाह बोलता सुना। आज भी उतना ही प्रवाह में था। बातों के विषय बदल गए बस। कह रहा था पर्यटन का डब्बा बैठ गया है। व्यापार का सत्यानाश हो गया। अच्छे-अच्छे सेठ डूब गए। पिचासी फीसद नौकरियां जाती रहीं। सबकुछ देखते-देखते हो गया। दुष्यंत ने बिजनस शुरू किया है। मधुमख्खी पालता है, गाय का घी बेचता है। कच्ची घाणी का सरसों का तेल। ऊपर से वर्मी कम्पोस्ट खाद। अठारह के घर का चुल्हा उसके बिजनस से जल रहा हैं। यही उसके संतोष का बड़ा कारण है। सबकुछ ब्रांडिंग और प्रोपर पैकेजिंग के सहारे कर रहा है। एकदम छिपा रुस्तम निकला। और भी कुछ ऑर्गेनिक खेती वगैरह बोल रहा था।

कुशल पूछने पर खुद दुष्यंत ने आगे हो बताया कि परिवार में एक-एक करके सभी कोरोना से बमुश्किल जीत पाए। मौत को करीब से देखने के बाद दुष्यंत, उसके दोस्त और उनका परिवार आजकल गरीबों और असहायों की खुले हाथ से मदद कर रहे हैं। दो-तीन गैर सरकारी संगठनों के भी नाम दुहराए पर याद नहीं रहे। खुशी यह है कि उस युवा में संवेदनाएं ज़िंदा हैं। कह रहा था आर्युवेद की वज़ह से उसकी इम्युनिटी अच्छी हो सकी। खेती में वह सुख पा रहा है। नदी किनारे दस बीघा ज़मीन ली है। कभी हेरिटेज होटल की योजना बनेगी तो सपना संझो रखा है। लगा कि बच्चे बड़े हो रहे हैं। नौकरियों की तलाश में बेरोजगारों के हताश चेहरों के बीच आज दुष्यंत एक आस की तरह दिखा। अंत में कह रहा था प्रकृति को हमें फिर से समझना होगा भैया। नहीं तो हम फिर गच्चा खा जाएंगे। तथाकथित विकास को नए सिरे से समझना होगा। मानव होने के तमाम निकष पर फिर खरा उतरने का वक़्त आ गया है।

बाकी सब राजी-खुशी हैं। आज सवेरे नुंजी के लिए केरियाँ छीलकर पत्नी का हाथ बटाया। लहसुन, प्याज और हरी मिर्ची लगातार काटकर भूमिका में बने हुए हैं ही। बेटी और उसकी दादी माँ की फरमाइश पर आम लाए गए। सुबह दो बड़े आम का रस बनाने की प्रक्रिया सम्पन्न हुई। अनुष्का लिसलिसी गुठली चूसने की ताक में वैसे ही बैठी रही जैसे मैं बचपन में अपने ननिहाल हमीरगढ़ में लाली मासी या भागुती जीजी के पास तब तक जमा रहता था जब तक गुठली हाथ न लग जाती। उस दौर से आज तक बच्चों के लिए आमरस अमरत्व की ठौर है।
बसेड़ा में शान्ति है। लगभग सभी रोगी कोरोना की गिरफ्त से बाहर आ गए हैं। अध्यापक साथी अपने परिवारों की चिंता किए बगैर ड्यूटी पर मुस्तैद हैं। जानता हूँ यह त्याग और समर्पण इतिहास की किसी पुस्तक में दर्ज नहीं होगा। न शिलालेख उकेरे जाएँगे न ताम्रपत्रों पर कहीं उत्कीर्ण होगा। एक अध्यापिका चेक पोस्ट पर लोगों की आवाजाही पर सचेत निगरानी कर रही हैं पर आपको जानना चाहिए कि उनके ऊपर से पिता का साया उठे एक महीना भी नहीं गुजरा। एक अध्यापक आठ सौ किलोमीटर दूर गाँव में अपनी बीमार पत्नी से फोन पर बात करते हुए ईलाज सूझाकर सांत्वना दे रहा है। सभी के पास कई सच्ची-कहानियाँ रखी है। सुनने वाले घबरा जाएंगे।

विषय बदलते हुए कहना यह है कि कल पता चला पेड़ों, पहाड़ों और नंदियों के लिए जीवन हवन कर देने वाले सुन्दर लाल जी बहुगुणा कोरोना से हार गए। उधर मुम्बई में सिने जानकार राजकुमार केसवानी भी इसी तरह के रोग के शिकार हो गए। दोनों को उनके कर्मठ जीवन के लिए प्रणाम करता हूँ। बहुत जल्दी कोरोना का नाश होगा। हम फिर से जी उठेंगे। एक दूजे को बाहों में लेकर खूब लाड़ करेंगे। ट्विटर, फेसबुक, टेलीग्राम और क्लब-हाउस पर निर्भरता कम हो जाएगी। बारिश के ठीक बाद सारे सूचीबद्ध झरने खूब झरेंगे। नदियाँ बेलगाम बहेंगी। सड़कों के लिए वीरानगी इतिहास बन जाएँगी। ऐतिहासिक खंडहरों में नागरिक चहक उठेंगे। देवालय जयकारों से फिर गूंजेंगे। मस्जिदों में सामूहिक नमाज़ अदा करना संभव होगा। पतंगें उड़ाकर, गिल्ली को डंडा मारकर, बैडमिन्टन की कॉक उछालकर और सितोलिए खेलकर मोहल्ले के बच्चे अपने होने का सबूत देंगे। आमीन।

डॉ. माणिक
https://www.facebook.com/ManikApniMaati

सन 2000 से अध्यापकी। 2002 से स्पिक मैके आन्दोलन में सक्रीय स्वयंसेवा।2006 से 2017 तक ऑल इंडिया रेडियो,चित्तौड़गढ़ में रेडियो अनाउंसर। 2009 में साहित्य और संस्कृति की ई-पत्रिका अपनी माटी की स्थापना। 2014 में 'चित्तौड़गढ़ फ़िल्म सोसायटी' की शुरुआत। 2014 में चित्तौड़गढ़ आर्ट फेस्टिवल की शुरुआत। चित्तौड़गढ़ में 'आरोहण' नामक समूह के मार्फ़त साहित्यिक-सामजिक गतिविधियों का आयोजन। 'आपसदारी' नामक साझा संवाद मंच चित्तौड़गढ़ के संस्थापक सदस्य।'सन्डे लाइब्रेरी' नामक स्टार्ट अप की शुरुआत।'ओमीदयार' नामक अमेरिकी कम्पनी के इंटरनेशनल कोंफ्रेंस 'ON HAAT 2018' में बेंगलुरु में बतौर पेनालिस्ट हिस्सेदारी। सन 2018 से ही SIERT उदयपुर में State Resource Person के तौर पर सेवाएं ।

कई राष्ट्रीय सांस्कृतिक महोत्सवों में प्रतिभागिता। अध्यापन के तौर पर हिंदी और इतिहास में स्नातकोत्तर। 2020 में 'हिंदी दलित आत्मकथाओं में चित्रित सामाजिक मूल्य' विषय पर मोहन लाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर से शोध।

प्रकाशन: मधुमती, मंतव्य, कृति ओर, परिकथा, वंचित जनता, कौशिकी, संवदीया, रेतपथ और उम्मीद पत्रिका सहित विधान केसरी जैसे पत्र में कविताएँ प्रकाशित। कई आलेख छिटपुट जगह प्रकाशित।माणिकनामा के नाम से ब्लॉग लेखन। अब तक कोई किताब नहीं। सम्पर्क-चित्तौड़गढ़-312001, राजस्थान। मो-09460711896, ई-मेल manik@spicmacay.com

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