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26 मई, 2021

बसेड़ा की डायरी : अवसाद सृजन को पलने नहीं देता।


बसेड़ा की डायरी, 26 मई 2021

अवसाद सृजन को पलने नहीं देता। हत्यारी बीमारी के कारण अचानक परिवारजन के दिवंगत हो जाने का अवसाद अलग है पर मैं उसके भी इतर अवसाद पर चर्चा करना चाहता हूँ। तालीम के लिहाज़ से बीता डेढ़ बरस भयंकर किस्म के ठहराव वाला निकला। स्कूल, क़िताब और सिलेबस के बीच अध्यापक-विद्यार्थी-अभिभावक-स्कूल मालिक संबंधों में जो छीना-झपटी हुई है। उदास करने वाली है। सृजनात्मक प्रतिभा वाले कई साथी सृजन से ऊब चुके हैं। नैतिकता और बेहतर समाज जैसी शब्दावली पर बात करना उन्हें अब बेमानी लगता है। प्रतिभाएँ उपेक्षाओं का शिकार हैं।

आपको अंदाज़ लग गया होगा मैं पहले अध्यापक साथियों पर फोकस कर रहा हूँ। इन दिनों का अवकाश फिर से लगातार तोड़ रहा है। यह टूटन ऊपरी और दिखती हुई नहीं है। पीड़ा बहुत देर तक गूंगी बनी नहीं रह सकती। क्रोध को थामे रखने की भी सीमाएँ हैं। नतीजा यही हुआ कि मन ने अब नई योजनाएं उपजने से इंकार कर दिया। पगार में कटौती से गुरुजी की ईमारत खतरे में है। कटौती सौ से शून्य की तरफ बढ़ती हुई नौकरी तक ले डूबी। कक्षाओं में पढ़ाए अर्थशास्त्र, हिंदी, अंगरेजी, फिजिक्स, मैथ्स और साइंस सब दगाबाज़ निकले। अब भी विद्यार्थी सारे मामले पर गुरुओं के हमदर्द हैं मगर बेबस। गुरुओं ने आत्महत्या का विकल्प ही नहीं चुना बस क्योंकि अब भी उनकी आँखों में सहज-समय में चलता हुआ स्कूल तैरता है।

मेरे मिलने वालों में पचास प्रतिशत से ज्यादा ने निराशा की चादर ओढ़ मंथन का रास्ता चुना हैं। बहुतों ने अज्ञातवास की गोद को सिरहाना बनाया है। चिंतन के लिए एकान्तजीवी हो जाना पहली ज़रूरत है शायद। मुश्किलें दुःख बढ़ाती हैं। लम्बी तलाश के बाद मिले उत्तर सुख देते हैं। उत्तर की तलाश में ढेरों अध्यापकों ने अध्यापकी तजना तय कर लिया है। यह भला किसके लिए प्रसन्नता का समाचार होगा। एक निष्कर्ष कहता है कि शिक्षा सेठों की मनमानी का विषय हो गयी है। सिस्टम ने माड़साब को इंसानी जिस्म समझने से साफ़ मना कर दिया है। सम्मान और आत्मसम्मान बहुत बाद की आकांक्षाएँ हैं यहाँ वेतन पर हथौड़ा है। वेतन मतलब चुल्हा। वेतन मतलब फ़्लैट के बैंक लोन की किश्त। वेतन मतलब अध्यापक की पत्नी-बच्चों और उसके माँ-पिताजी की सकुशल चलती हुई साँसें।

सभी के जीवन में आस का सूरज अलग-अलग ढंग से डूबता दिखा। जीतने के सभी जतन बताने वाले अध्यापकों को इस कदर हारते हुए देखना सुखद कैसे हो सकता है। सरकार की एक शाला में पढ़ाता हूँ पर सीखाने के हुनर को लेकर दस से बारह बाहरी स्रोतों पर निर्भरता है। महेंद्र नंदकिशोर जैसे विचारशील युवा का लिखा इन दिनों पढ़ना भीतर से हिला देता है। उसके सारे सवाल अस्तित्व के सवाल है। सिस्टम को नंगा करते सवाल हैं। पेरेंट्स- प्रबंधक, सेठ-सरकारों से युग्मों से उत्तर की आस में अब वह सवाल नहीं पूछता। उसके पुलकित चेहरे पर ऐसी उदासी हमारे समाज की दुर्गति का सूचक है। महेंद्र ठीक ही कहता है कि खाली ईमारत स्कूल कैसे हो सकती है जब तक उसमें कर्मठ और चिन्तनशील अध्यापक न हो। धर्मशाला में स्कूल में हमेशा फ़र्क होता है। अफ़सोस कोरोना-काल में अध्यापकों से अधिक ज़लालत किसी ने नहीं झेली। कुछ ही होंगें जो अपने मन की आँधी प्रकट में साझा कर सके। विद्या भवन सीनियर सैकंडरी स्कूल उदयपुर के प्रिंसिपल मित्र पुष्पराज भाई से इस मसले पर बात महीनेभर से ड्यू है। सवालों की ढेरी लग चुकी हैं। डॉ. कलाम के आलोक में शिक्षा पर एक पुस्तक लिख चुके डॉ. प्रशांत कुमार को लगातार पढ़ता हूँ तो वर्तमान को समझने के सूत्र मिलते हैं। पश्चिमी राजस्थान के बीएड ट्रेनिंग सेंटरों में प्रशांत की भूमिका उदासी कुछ हद कम कर जाती है। भविष्य के शिक्षकों तक इस संकट का ठीक-ठीक आशय पहुंच जाए तो अच्छा।

कुल जमा महेंद्र के हवाले से यही कहना है कि हम भी दिखावटी परिभाषाओं के खोल से बाहर आ रहे हैं। भ्रम टूट रहे हैं। नाटक का पर्दा हट रहा है। असल एकदम सामने नज़र आने लगा है। गलतफ़हमियों की अब कोई जगह नहीं रही। महेंद्र जैसे हज़ारों युवा अब भी पढ़ाएंगे पर तब तक उनके भीतर का मिशनरी अध्यापक दम तोड़ चुका होगा। शिक्षा की नकली परिभाषाएं अपनी कलाई खुल जाने पर शोक मना रही होंगी। अफ़सोस समाज अब तक इस गलीज मानसिकता से बाहर ही नहीं आ सका कि दाल-रोटी के अभाव में अध्यापक भले मर जाए मगर हमारी विद्यार्थी-जमात सीबीएससी में पिचानवें से ऊपर वाली रैंक हासिल कर लें बस। कितनी अधूरी और अधकचरी सोच है। फिर से सोचिएगा अधमरे अध्यापकों से अधमरा समाज ही पल्लवित होगा।

दृश्य जैसे शहर में हैं ठीक वैसे ही गाँव में हैं। याद रहे इस दफ़ा संकट चौतरफ़ा है। अध्यापक अपने अस्तित्व के संकट से लड़ रहा था और विद्यार्थी उधार की-सी ज़िंदगी में शिक्षा के डिजिटल भेष को लेकर उतरा हुआ चेहरा लिए बैठे हैं। छात्राएँ इसलिए दुखी हैं कि घर वाले कह चुके हैं ‘गाँव में बारह जमात तक स्कूल था तो पढ़ ली, कॉलेज-वॉलेज अब हमारे बस का नहीं।’ माँ-बापू का जीव जानता है कि इस नासपीटी बीमारी के अठारह महीने में गृहस्थी की गाड़ी कितनी खेंचा-तानी के बाद चल सकी है। पीड़ा की नई-नई तस्वीरें हैं जिन्हें निहारना दिन-ब-दिन कठिन होता जा रहा है। बहुत भद्दे दृश्य हैं। धंधे-पानी की सेहत ठीक होने के इंतज़ार में युवाओं के विवाह में रोड़े पनप गए। ‘ज़िंदगी’ जैसा उल्लासमयी शब्द ‘मृत्यु’ की-सी ध्वनि देने लगा है। सबसे ज्यादा उन गुरुओं की तबियत नासाज हैं जो शिक्षा और मिशन को अभिन्न मानते रहे। ‘गुरु दक्षिणा’ को ‘ट्यूशन फीस’ मान लेने वाले धन्ना सेठों ने पहले तो ‘स्कूल’ को ‘दूकान’ या ‘फैक्ट्री’ मान लेने का अपराध किया फिर संवेदनाओं को बचाने की जिम्मेदारी उतार फैंकी। महामारी ने बहुतों के नक़ाब उतार दिए।

अंत में समाचार यही है कि कल अपनी विद्यार्थी सोना से बात करके सुकून मिला कि वह ऑनलाइन पढ़ रही है। बात करके वह बहुत खुश थी। कह रही थी कि घर में कुछ हाथ बटाती है। बावण में देरी है तो खेती में अभी फुरसत है। संतरे के बगीचे में कुछ साग-भाजी बो रखी है बस। कह रही थी माध्यमिक शिक्षा बोर्ड अजमेर की गाँधीजी पर केन्द्रित परीक्षा का घोषित ईनाम लैपटॉप मिल जाता तो पढ़ने में सुविधा रहती। मोटे तौर पर मैं दो महीने से अपने विद्यार्थियों के कैचमेंट एरिया से बाहर हूँ। विद्यार्थियों के सही-सही हालचाल से बेख़बर। यह अच्छा संकेत नहीं है। आने वाले दिनों में इस अपराधबोध से बाहर आने का मन है। इधर बेटी अनुष्का तीन दिन से दूरदर्शन का उस ज़माने का लोकप्रिय धारावाहिक ‘व्योमकेश बक्षी’ देखने लगी है। आनंद का विषय यह है कि रूचि जग गयी। सही बात तो यह है कि इस धारावाहिक की राय डॉ. राजकुमार व्यास ने एक वेबिनार में दी थी। आप सभी को बुद्ध पूर्णिमा का उजाला मुबारक। आशा है बेहतर दुनिया बनाने के मूल रास्ते के रूप में ‘शिक्षा’ को ठीक से बरता जाएगा।

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