बसेड़ा की
डायरी, 27 मई 2021
दिली आनंद के लिए क़िताबें पढ़ना और क़िताबें पढ़ने का वादा करके प्रभाव जमाना अलग-अलग भाव हैं। दस पुस्तकें पढ़कर ग्यारहवीं लिखना और मौलिकता की नींव पर साहित्य रचना भिन्न-भिन्न कामकाज हैं। गाँठ के पैसों से खरीदी क़िताबें अलग ही चमकती हैं और भेंट में मिली पुस्तकों की दुर्दशा घर के कौने बता देते हैं। बहुत गौर से बात करें तो क़िताबें दो तरह की होती हैं; एक अलमारी में सजाने के लिए लाई गयी और दूजी ज़िंदगी में सहजता भरने के लिए चुनी गई। पढ़ते-पढ़ते कुछ क़िताबें सगे भाईबंद की-सी हो जाती हैं। कितना कम सुनने को मिलता है कि फलां लेखक का घर क़िताब लिखने के बदले मिलने वाली रॉयल्टी से चलता है। कान गवाह हैं उन किस्सों के जहां रचनाकार जेब के पैसों से कविता संग्रह छपवाकर रिश्तेदारों-मित्रों में बाँटते मिले। पुस्तकों की अपनी यात्राएं होती हैं। कहाँ उधर मुक्तिबोध जैसा शताब्दी का सबसे बड़ा कवि अपनी पहली पुस्तक को छपे हुए रूप में तब देखता है जब वह मृत्यु शैय्या पर है और कहाँ इधर शहर में साहित्यकार टाइप लोग हर बरस एक क़िताब थेपते देते हैं। महंगी क़िताबें अच्छी निकल जाए ज़रूरी नहीं और सस्ती पुस्तकें कमज़ोर ही हों कह नहीं सकते।
पढ़ने को उधारी में माँगी हुई पुस्तकों की भी अपनी गति और संकट है। सालों से नहीं लौटाई गयी किताबों के विरह में पुस्तक के मूल स्वामी की तबियत में जो तापान्तर देखा जाता है, बड़ा रोचक होता है। पन्ने-पन्ने दोबारा-तिबारा पढ़ी जाने वाली किताबों की भी क्या किस्मत होती होगी। गुमशुदा पुस्तकों का भी अपना संसार है। पेन्सिल के निशानात और लाल-पीले टैग लगे उदाहरण मौके-बेमौके दोहराने के लिए मेज पर रखी पुस्तकों का भी क्या भाग्य होता होगा। घर को पुस्तकालय में बदलते हुए देखा है हमने। ऐसी सार्वजनिक इमारतों की भी कमी नहीं जिन्हें पुस्तकालय अध्यक्षों ने बपौती की तरह इस्तेमाल किया। आँखों में ऐसे भी चित्र जीवंत हैं जिनमें बिस्तर पर कई पुस्तकें एक साथ खुली हैं और एक पाठक तल्लीन होकर नोट्स ले रहा है। दुर्लभ क़िताब के लिए मजनूँ की तरह भटकते पुस्तक-प्रेमी इसी जन्म में बस थोड़ी सी मशक्कत से मिल जाएँगे। क़िताबें असल में बहुत उपयोगी होती हैं गोया गुलाब सहित प्रेम-पत्र के आदान-प्रदान में उनका इस्तेमाल। डायरी में कहीं नाम दर्ज करके पुस्तकों के चिह्न अटकाने के बाद पाठक को क़िताब थमाने वाले संजीदा लोग भी इसी समाज में शोभा पाते हैं। यह बहुरंगी दुनिया है। जितना फैलाव उतने शेड्स। निष्कर्ष में कहूँ तो यह समृद्ध लेखकों के प्रति नतमस्तक होने का भाव है। जान लीजिएगा कि यह जीवन में संवेदनाओं का बसेरा सुनिश्चित करने वाली दुनिया है। पढ़ने के बाद देर तक झकझोरने का माद्दा रखने वाली सामग्री। शिक्षा की बुनियाद कहलाने वाली पुस्तकें आज बेतरह याद आयीं।
बसेड़ा स्कूल में साल दो हज़ार सत्रह के जून से ही हिंदी का प्राध्यापक हूँ। इस बीच बारह महीने तक का ‘सन्डे लाइब्रेरी’ का अपना अनुभव रहा। अभी भी पुस्तकालय का चार्ज नंदकिशोर जी दुबे के पास ही हैं। बता दूं कि मूल रूप से वे शारीरिक शिक्षक हैं। कर्मठ और अपने काम को लेकर अनुशासित। बीते साल तक नि:शुल्क पाठ्य पुस्तकों का आवक-जावक और वितरण भी देखते रहे। ऊपर से छठी से दसवीं तक संस्कृत भी पढ़ा लेते हैं। संस्कृत उनका विषय कभी नहीं रहा। बस रूचि है और पाँच-छह बरस से शानदार और बिना रुकावट अच्छा परिणाम दे रहे हैं। लाइब्रेरी को समय नहीं दे पाए क्योंकि पुस्तकालय स्कूलों की प्राथमिकता से सालों गायब जो है। इस मुआमले में दुबे जी निर्दोष हैं। अकेले क्या-क्या निबटाए। पाँच घंटे के स्कूल में समय का अपना संकट है। हर साल थोड़ी-बहुत नई पुस्तकें आती रहीं। रजिस्टर में दर्ज और अलमारी में पैक। यही अमूमन स्कूलों की नियती है।
बीते माह राज्य सरकार की सामूहिक खरीद से नेशनल बुक ट्रस्ट का भेजा एक सौ पच्चीस श्रेष्ठ और चयनित किताबों का बॉक्स मिला। गर्मियों के अवकाश में मैं कोरोना ड्यूटी पर स्कूल आता-जाता रहा। एक दिन अवसर पाकर बॉक्स को अनबॉक्स किया। लगे हाथ वर्धा यूनिवर्सिटी से बसेड़ा आकर रह रहे गुणवंत और अर्जुन जैसे पूर्व विद्यार्थियों को भी सहर्ष बुला लिया। सोचा उन्हें वर्धा की याद हो आएगी और अच्छा लगेगा। तीनों अचरज के साथ पुस्तकों को एक-एक करके उलटने-पलटने लगे। दो घंटे तक यही क्रम चला। छोटे से गाँव में इतनी विविधता वाली पुस्तकें एक साथ देखकर मैं भी बहुत खुश था। अंत में दोनों को एक दो पुस्तकें पढ़ने हेतु ले जाने के लिए सहज आग्रह किया। अफ़सोस दोनों ने तब के लिए स्पष्ट मना कर दिया। मैं भीतर से बड़ा उदास हुआ। नई पुस्तकों के प्रति मेरे विद्यार्थियों में पढ़ने की ऐसी वितृष्णा देख बड़ा दुःख हुआ। नहीं समझ पाया कि उनकी प्राथमिकता बदल गयी या उनके पास पहले से घर का अतिरिक्त जिम्मा है या कि वे किसी पुस्तक को अभी पढ़ रहे हैं।
विद्यार्थियों में बहुत सी रुचियाँ इसलिए जन्म लेकर विकास नहीं कर पाती क्योंकि अब अध्यापक उस गाँव में नहीं रहते हैं जहां उनकी नौकरी होती हैं। आज भी आवासीय विद्यालयों के बच्चे अलग चमक लिए होते हैं। नवोदय इसका अप्रतिम उदाहरण है। अठारह-अठारह घंटे तक गुरु-शिष्य की शागिर्दी अलग ही किस्म की फसल उपजाती है। एक अनुमान के अनुसार बसेड़ा में नए सत्र तक चार नए कमरे बनकर तैयार हो चुके होंगे। एक कमरा कंप्यूटर लैब-कम-लाइब्रेरी बनाने का मन है। दुबे जी इसी जनवरी में रिटायर्ड हो रहे हैं। पुस्तकालय का प्रभार लेना चाहूँगा। एक साल इसे अच्छे से जीना चाहता हूँ। कई साथियों को काम करते देखता हूँ तो ऊर्जा मिलती है। विचारों में कोंपलें खिलती हैं। बाड़मेर के किसी देहाती स्कूल में भूगोल के प्राध्यापक डॉ. सिद्धार्थ अपनी स्कूली लाइब्रेरी के लिए अच्छा काम कर रहे हैं। ‘एक व्यक्ति एक पुस्तक अभियान’ के मार्फ़त पुस्तकालय ने अच्छा आकार पा लिया है। पहाड़ों में भाई महेश पुनेठा जी और केन्द्रीय विश्वविद्यालय महेंद्रगढ़ में प्रोफेसर एवं ‘रेतपथ’ के सम्पादक अमित मनोज का ग्रामीण पुस्तकालय प्रेरणा देता है। मुझे याद आता है डॉ. गंगासहाय मीणा ने भी अपने पैतृक गाँव में एक पुस्तकालय खोला है। सभी के काम सामूहिक ताकत का नतीजा होंगे ऐसा जान पड़ता है। अकेले-अकेले ऐसी यात्रा शोभा भी नहीं देती। सभी को देखकर मन बना है। कुल जमा लगा कि मरते हुए विद्यालयों को पुस्तकालय जैसी संजीवनी जीवनदान देगी।
कल प्रशांत भाई कह रहा था कि शिक्षा के परिणाम तुरत-फुरत में नज़र नहीं आते नहीं बल्कि दूरगामी होते हैं। हमने तो परिपाटी ही ऐसी चलाई कि परीक्षा हो तो ही पढ़ते हैं। परीक्षा के अभाव में क़िताब के हाथ लगाने से क्या नफ़ा? सिलेबस से इतर पुस्तकें हमारे गुरुजी ही नहीं पढ़ते तो हम क्यों पढ़ें भला? मोबाइल में इतने सतरंगी एप्स हैं तो नीरस पुस्तकें ही क्यों? घर में कोई नहीं पढ़ता तो मैं क्यों पढूँ? हमारे घर में पुस्तकें खरीदने का चलन नहीं तो मैं नयी राह क्यों लूँ? यही हमारे आसपास के वाजिब-ग़ैरवाजिब प्रश्न हैं। सभी का आसपड़ौस लगभग एक सरीखे लख्खण वाले लोगों से भरा है। यह लाइलाज समाज है। समस्या को मूल से पकड़ना ही कामगार औषधी साबित होगी। परिवेश हावी है तो स्कूल बेचारा कितना करे।
मेरी कुछ क़िताबें सामान्यतया शिष्यों के घर पड़ी रहती हैं। वक़्त-ज़रूरत याद आती हैं तो डायरी देखकर पता लगाता हूँ। बच्चे कभी पूरी पढ़ते कभी आधी पढ़कर लौटा देते। पढ़ी हुई पर वे हमारी अनियतकालीन बैठकों में प्रतिक्रियाएं नहीं दे पाते हैं तो निराशा होती है। अनिता, टीना, ममता, सोना, रवीना, दीपक, बबली, अर्जुन, गुणवंत को ज़बरन क़िताबें पढ़वाता रहा हूँ। अब हार गया हूँ। नई तरकीब और नए विद्यार्थी तलाशने होंगे। मैं बच्चों की फ्रीक्वेंसी समझने में असफल रहा। थोड़ी और कम उम्र के बच्चों पर काम करना होगा। बाल साहित्य पर समझ बढ़ानी होगी। बड़ों पर काम मुश्किल होता जा रहा है। परिणाम उतना उल्लास नहीं देते अब। छोटे बच्चों के बीच गोल घेरे में बैठकर पुस्तक से कहानियाँ सुनाने के सपने देखने लगा हूँ। मालुम है कि गहरे काम के लिए निरंतरता की कसम खानी होगी। फिर से समूह बनाना होगा। सरकारी के बजाय गैर-सरकारी स्रोत तलाशने होंगे। तय कर लिया है कि इस बार थोड़े से काम आरम्भ करके ठोस पर ध्यान केन्द्रित करना हैं। बड़े और चर्चित हो जाने में अब उतनी इच्छा नहीं रही।
बीते सालों में देख रहा हूँ कि स्कूल से एक सरीखे बच्चे निकल रहे हैं। ठीक से याद है प्रवेश के समय वे अलग-अलग रूचि और मति-गति के थे। हमारे सिस्टम ने उन्हें एक फोर्मेट में ढाल देने का कृत्य-कुकृत्य किया है। स्कूल कभी भी फैक्ट्री नहीं हो सकता है जहाँ एक सरीखे जूते-चप्पल का उत्पादन होता हों। जहाँ एक जैसी मशीनें और खाद-सीमेंट के सेम-टू-सेम कट्टे पैक होते हों। विद्यालय का जिम्मा और इसकी अदाएँ अलग होनी चाहिए थी। अफ़सोस वैसी नहीं रहीं। परिणाम हम सभी भुगत रहे हैं। फुटबॉल में जिसकी रूचि थी उसे भी नब्बे प्रतिशत की पंक्ति में धकेल दिया। लड़कियां बैडमिंटन के लिए तरसती रहीं और अंत में थक हारकर बैठ गयीं। हम नालायक उन्हें हिंदी में निबंध लेखन पढ़ाते रहे। जो फौज़ में जाना चाहती थी उसे गार्गी सम्मान के लिए प्रेरित किया। सब उलट-पुलट। पीटीआई बनने वाला अध्यापक की लाइन में लगा हुआ है यह हमारी ही कारस्तानी है। उन सभी को हैडकांस्टेबल वाला डोज़ दे दिया जो अच्छे फीटर, वेल्डर, इलैट्रीशियन और मैकेनिक हो सकते थे। कविता करने वाले, चित्रकारी करने वाले, मिमिक्री करने वाले और गोला फैंक वालों सहित अनौखी प्रतिभा के सभी अलबेलों को उनके हुनर के साथ समझने के बजाय हमने उन्हें लाल लिटमस और नीले लिटमस में उलझा दिया। कल्पना के पर कतरने में हम उस्ताद निकले साहेब। अब लगता है क़िताबें बचे हुए बच्चों को बचा सकती है। लाइब्रेरी के नए अभियान में मित्र निराश नहीं करेंगे इतना तो अंदाज़ है।
अंत में देश के आधारभूत ढाँचे के विकास हेतु जिन्हें बड़े अदब से याद किया जाता है ऐसे पंडित जवाहर लाल नेहरू को उनकी पुण्यतिथि पर नमन।
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