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27 जून, 2021

बसेड़ा की डायरी : तमाम चिंताओं के बीच भी काम जारी है।

बसेड़ा की डायरी, 27 जून 2021 

मोहल्ले में आज प्रखर का जन्मदिन है। हमारे घर के ठीक सामने वाले भैया-भाभी का लड़का। गोवर्धन भैया और गायत्री भाभी। गोवर्धन जी इतिहास पढ़ाते हैं और भाभी की संगीत में रूचि हैं। उनके घर से अक्सर रियाज़ के स्वर सुनाई देते हैं। प्रखर सालभर से यहीं रह रहा है तो अब एकमेक हो गया है। अनुष्का को दीदी पुकारता है। आज छह या सात साल का हुआ होगा। कल ही न्यौता मिला। बर्थ डे में जाना हैं। यह कनेरा घाटा क्षेत्र का रहने वाला एक धाकड़ परिवार हैं। गाँव से भी उनके परिजन आए हुए हैं तो सुबह से ही बड़ी जगर-मगर है। सुना है इस नए मकान में प्रखर की दादी पहली दफा आयी हैं। आज प्रखर के घर के सामने पौधे रोपे। नीम और आशापाल। उसकी दादी से मिलकर देर तक मैंने बात की। खेती किसानी और परिवारजन की ताकि उन्हें लगे कि कुछ कम ही सही पर शहर में भी आत्मीयता ज़िंदा है। देहात को समझने के मेरे पास यही कुछ छिटपुट तरीके बचे हैं।

 सुबह गायत्री यज्ञ हुआ था। नंदिनी और अनुष्का शामिल होने गए थे। अनुष्का वहां हुए मन्त्रों के सस्वर पाठ से बड़ी प्रभावित हुई। घर आई बहनों, भतीजियों और बच्चों ने बर्थ-डे के अनुसार दिनभर की भागादौड़ी कर साज-सज्जा में दम लगा दिया। देहात से आए प्रखर के इकलौते भुवाजी बड़े मजाकिया हैं। बातों के ख़ास शौक़ीन। जन्मदिन मनाने का अपना उमाव होता है। मोहल्ले के बच्चों के चेहरे खिल जाते हैं। कोरोना का डर अब कम हुआ है तो थोड़ी तसल्ली है। प्रखर को खूब सारा प्यार। जन्मदिन उम्र के साल गिनने का एक बिंदु है। वैसे जी चुके बरसों को याद करने की अपनी परम्परा है और उसका अलग रसपान भी। रात में खूब नाच-गान हुआ। केक कटा। मित्रों का जमावड़ा संभव हुआ। कई कॉमन मित्र दिनों बाद मिले तो खूब बातें हुई।

जीवन में बीते हुए और बचे हुए बरसों के लिए लगातार बनती-बिगड़ती योजनाएं आसपास रहती ही हैं। कामना यही है कि ज़िन्दगी में उमंग और आल्हाद बना रहे बस। मेरी मति अनुसार रविवार का दिन अपने बीते को याद करने का दिन होता है। याददाश्त ज्यादा काम नहीं करती है तो ठीक हाल के शनिवार को भी दोहरा सकते हैं। बाकि भरापूरा अतीत तो है ही। बीते में लौटना अक्सर आसान होता है पर वहाँ से वापसी बहुत मुश्किल अनुभव होती है। इस पथ में सुख के सागर भी हाथ लग जाते हैं और दुःखभरी नदियाँ भी। बीते के अपने आकर्षण होते हैं और पश्चाताप भी। बीते में प्रेम है, गलतियां हैं, अपनापन है, आज़ादी है। गिरस्ती का फैलाव है। दर्जनभर मौतें हैं और दर्जनभर नए जन्म। पुरानी नौकरियां हैं और रुचियों के पल्लवन का लेखाजोखा। 

सुखद और दुखद की खिचड़ी है अतीत। कहीं सही को चुनने की खुशी है तो कहीं बेहतर के छूट जाने के दुखड़े। पिछे देखेंगे तो शर्तिया यात्राओं की बहियाँ हाथ लगेंगी। नदियों के एकांत और किले की लगभग अज्ञात जगहों पर गुजारी दुपहरियाँ बुलाएँगी। कच्चेपन में लिखीं कविताएँ बेतरह याद आती हैं और जल्दबाजी में लिखे अधबने आलेख भी। अतीत में झाँकने पर आज मुझे एक रेडियो लगातार बजता हुआ मिला। अख़बार फड़फड़ाते मिले और कतरनों में छपे मेरे नाम फिर से एक बार चमक उठे अनुभव हुए। मुफलिसी के चिट्ठे थे वहाँ जहाँ दाम्पत्य के तेरह साल बिताए। उलाहने और व्यंजनाएँ झेलने का समृद्ध इतिहास याद आता है हमारा। कम में जीने की आदतें और हौसले को थाम कर रखने का रियाज़ याद के सिरहाने अब तक रखा है। लगा कि रविवार का अवकाश बेवजह नहीं होता। इसमें सोमवार उगने का डर और शनिवार के छूट जाने की पीड़ा का गुजर साथ-साथ होता है। अंत में बीते से ताकत बटोरने का निश्चय किया है। ठानी हुई को पाने का हौसला जुटा रहा हूँ। दोस्तियाँ निभाने का अभ्यास सतत है। शुक्रिया रविवार। 

बसेड़ा स्कूल में नौकरी करते हुए बीती तेईस जून को चार साल हो गए। शुरू के दो साल नौकरी के बजाय अध्यापकी की और खूब आनंद लिया। बच्चों के साथ अनगिनत प्रयोग किए। बीते दो साल से सिर्फ नौकरी कर रहा हूँ, अध्यापकी एकदम गायब है। यह पीड़ा अक्सर अनकही ही रही। बारहवीं के चार बैच निकल चुके हैं। मेरे हिंदी साहित्य पढ़ाए लगभग साठ विद्यार्थी स्कूल छोड़कर गए उनमें से बमुश्किल पंद्रह के सम्पर्क में हूँ। बाकी ने मुझे छोड़ दिया शायद। गाँव वालों के लिए मैं क्या कर पाया या करता रहा हूँ? यह तो वे ही साफ़ बता सकेंगे। आते-जाते अब कोई नमस्कार नहीं करता इससे साफ़ लगता है कि हमने अपने हिस्से की अध्यापकी में कोई कमी ज़रूर रखी है। पढ़े हुए विद्यार्थियों में से अधिकतर खेती-किसानी में समय बीता रहे हैं। तीनेक उच्च शिक्षा में स्नातक कर लेंगे इस साल। पांचेक बच्चे रास्ते में सफ़र पर हैं। बहुत कम हैं जो जिगर के आसपास हैं। आगे चलकर अब कोई कुछ नहीं जानना चाहता है। कइयों के भीतर अब भी सकुचाहट उपस्थित हैं। कभी लगता है हर गांव की जीने की एक गति और लय होती होगी। खैर बच्चों के साथ सम्पन्न हुई स्पिक मैके कन्वेंशन वाली खड़गपुर और दिल्ली की सफल यात्राएं याद करता हूँ तो मन प्रसन्न हो उठता है। सन्डे लाइब्रेरी के नाम से ही जिगर में प्यार उमड़ पड़ता है। स्टाफ के साथी घर के-से हो गए हैं। घर है तो बर्तन बजते रहते हैं मगर हम सभी आपस में बेहद खुश हैं। स्कूल की दरिद्रता हमेशा से दुखी करती रही। 

स्वामी विवेकानंद मॉडल स्कूल की इमारतें और उनके संसाधान देखता हूँ तो अपने स्कूल के साथ होते हुए भेदभाव स्पष्ट दिखते हैं। सरकार को पुनर्विचार करके सरकारी ग्रामीण स्कूलों का बजट वर्तमान से दस गुना करना चाहिए। यह आज की ज़रूरत है। स्कूल को लेकर गाँव वालों की परवाह एकदम निरपेक्ष भाव वाली है। चार सालों में चार प्रिंसिपल आए। स्कूल अनाथ सा ही रहा। कुछ पद सालों से खाली के खाली। स्कूल लगभग निरीह। जर्जर और सिकुड़न के साथ बेचारगी लिए हुए शक्ल वाला। लोग यहाँ घोषणाएं कर जाते हैं और भूल जाते हैं। हम देखते रहते हैं। किस्से हज़ार हैं। भामाशाह हैं मगर गिनती के हैं। अंदाज़ लगाएँ कि अधिकांश सरकारी स्कूल में चपरासी और बाबुओं के हिस्से का काम कौन करता होगा? कोई तो करता ही होगा। इमारत का कचरा कौन निकालता है, पानी कौन भरता है, झाले कौन साफ़ करता है, ताले कौन खोलता है, संडास कौन साफ़ करता है, अध्यापकी के अलावा समस्त काम कौन निबटाता है। एक उच्च माध्यमिक स्कूल जिसमें ढाई सौ बच्चे पढ़ते हैं तो वहाँ पचास हजार में सालभर निकालने का रिवाज हैं। अद्भुत गणित है। कई माड़साब अपनी गाँठ का लगाते हैं। लोगों से धन सहयोग मांगने को मजबूर हैं। अब पढ़ाएं या गाँव में जाएँ। स्कूल खाली सरकारी सम्पत्ति कैसे हो सकता है। ग्रामीणजन को खुद आकर स्कूल को सहेजना और अवेरना चाहिए। हर कमरा दो पंखों के बजाय एक से काम चला रहा है। कहीं ट्यूबलाइट है तो कहीं खाली लट्टू। चहार दीवारी अधूरी है। कोई भी कूद-फांदकर आ जाता है। पौधे रामभरोसे बड़े हो रहे हैं। अधूरा फर्नीचर चिढ़ाता है। इमारत की लिपाई-पुताई सपना हो गयी है। संकड़े-संकड़े कमरे बच्चों को जकड़कर बैठते हैं। कथा अनन्त है। 

तमाम चिंताओं के बीच भी काम जारी है। कुछ चीजें आस जगाती रहती हैं। कोरोना वेक्सिन के कैम्प लगातार चल रहे हैं। अब लोग आगे होकर टीका लगवा रहे हैं। गाँव जाग रहा है। जनप्रतिनिधि साथ दे रहे हैं। कक्षा बारहवीं के बच्चे वोलंटियर के रूप में सेवाएं दे रहे हैं। निकिता, किरण, रौनक, साक्षी, पूजा और अखिलेश। बहुत सुंदर काम कर रहे हैं बच्चे। मैं जब बारहवीं में पढ़ता था राष्ट्रीय  सेवा योजना में निम्बाहेडा के पास कासोद कच्ची बस्ती में खूब नालियां साफ़ करता था। वह गाँव हमने गोद ले रखा था। पोलियो अभियान हमारी जान थी। दिनभर की सेवा के अंत में वितरित होने वाली आलू की सब्जी और पुड़ी बड़ी याद आती है। रामनिवास जी लुहाड़िया हमारे प्रभारी हुआ करते थे। पान चबाते हुए लाल लाल ज़बान से क्या गज़ब के हिंदी बोलते थे। आय हाय। खैर इन बच्चों में अपना बीता देखता हूँ। बाकी टीकाकरण के दौरान माड़साब और लाटसाब के भी कई अनुभव हैं। कुल जमा सोचता हूँ कि बसेड़ा में ग्यारहवीं और बारहवीं के बच्चों के साथ फिर से कुछ नया करने का मन है। सत्यानाशी कोरोना जाएगा और वातावरण में नया सवेरा आएगा ऐसी मंशा है। सार्थकता की तलाश में ही उम्र जा रही है। सप्ताहांत में संतोष न मिलना पूरे सप्ताह पर धब्बा है। सफ़र जारी आहे। चिंता की बात नहीं के बराबर है। सोमवार से इतना भी डर नहीं लगता।

 डॉ. माणिक

(बसेड़ा वाले हिन्दी के माड़साब)

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