बसेड़ा की डायरी, 20 जून 2021
चार भाई-बहन के बीच एक मोबाइल है। छिना-झपटी सतत हैं। टीवी में डीडी राजस्थान ढूँढ़ने के आदेश मिले हैं। रेडियो सुनने के लिए एप डाउनलोड करना ही होगा। डॉ. गोपाल जैसे कुछ जागरूक लेक्चरर गूगल क्लासरूम पर पढ़ाने का इरादा जता रहे हैं। हौसला बुलंद रहे। कई बार एक गाँव का दृश्य दूजे से भिन्न होता है। सोयाबीन और मक्की के बिजवारे में उलझा बच्चा स्कूल की सूरत भूल चुका है। नयी क़िताबें आयी नहीं और पुरानी माड़साब जमा कर रहे हैं। दुबे जी ने बताया जो क़िताबें छात्रों द्वारा जमा करवाई जा रही हैं, एकदम नई की नई हैं। यह बीते साल की व्यथा-कथा समझने हेतु काफी है।
आजकल माड़साब गाँव में एक नया सर्वे कर रहे हैं। अठारह से पैंतालिस साल के लोगों का कि उन्होंने कोरोना का टीका लगवाया कि नहीं। ज्यादातर के नहीं लग पाया है। नहीं लगने के चार कारण में से अधिकतर के ‘अन्य’ कारण सामने आया। यहाँ अन्य का अर्थ टीके उपलब्ध नहीं होना माना जाए या अनचाहा भीतरी डर। इस टाइप का सर्वे बहुत अंत में होना था जब टार्गेट बहुत कम बचा हुआ हो। यह श्रम का नाश है। इक्कीस जून को विश्व योग दिवस से टीकाकरण गति पकड़ेगा, ऐसा प्रधानमंत्री जी ने कहा था। कल हमारी ग्राम पंचायत में भी पचास टीके अलोट हुए हैं। बुजुर्गों के अलावा युवा भी टीके से जुड़ी अफवाहों के शिकार हैं। तीसरी लहर आएगी या नहीं के भँवर से बाहर आ चुके लोगों ने मास्क उतार कर रख दिया है। झुण्ड और बैठकें जिंदाबाद होने लगी हैं। समूह में गपबाजी चल पड़ी है। छात्र पीढ़ी जिस पर सबसे ज्यादा भरोसे किया जा सकता था, वह भी स्कूल आते समय मास्क पहनकर नहीं आ रही है। देखा गया कि लड़कियां मास्क लगा रहीं पर लड़के नहीं। इस गणित के आसरे भी समाज को समझना होगा। अध्यापकों का मास्क भी नाक के निचे आ गया है। दो गज की दूरी छोटी होती जा रही है।
पिछले साल जो बोर्ड कक्षाओं में थे उन्हें अभी भी विश्वास नहीं हो रहा है कि वे उत्तीर्ण हो चुके हैं। सभी को टीका लगने तक स्कूल में ऑफ़लाइन पढ़ाई-लिखाई चलेंगी, मुश्किल लगता है। ऑनलाइन एज्युकेशन गरीब-अमीर के बीच की खाई को और चौड़ा ही कर रहा है। पढ़ने का मन है पर न पर्सनल मोबाइल है न पर्सनल लेपटॉप। टैब का भी सवाल नहीं उठता। अभिभावक खाद के कट्टे और बिजवारे के जुगाड़ में पस्त हो रहे हैं। बुवाई की क़िस्त देने के लाले हैं। कीटनाशक दवाई का छिड़काव का खर्चा अलग। इधर बच्चा कुर्ता पकड़कर स्कूल के लिए फीस माँग रहा है। दृश्य करुण हैं। महाराष्ट्र की ख़बरें फिर डराने लगी हैं। भविष्य में अभी कुछ भी उजला नहीं दिख रहा है। बसों में सवारियाँ फिर से ठसठसाने लगी हैं। शहर खुल रहे हैं और दिल बैठ रहे हैं। चालान के डर से मास्क की रखवाली ज़िंदा है बस।
स्कूल में कागज़ रंगने का काम नहीं थमने के लिए फिर शुरू हो चुका है। सालभर की शेष रही आकस्मिक अवकाश वाली सी.एल. तीस जून से पहले खप जाने का इंतज़ार करने लगी हैं। अध्यापक हिसाब लगाने लगे हैं। चौदह पेपर रिम खरीद ली गयी। कक्षाएं नहीं हैं मगर छात्र उपस्थिति रजिस्टर आ चुके हैं। माहौल सुरक्षित है ऐसा बयान जारी किया गया है। विज्ञान पढ़ाने वाले भैरू लाल जी के अलावा सभी कार्मिकों के टीके लग चुके हैं। पाँच साथी ऐसे हैं जिनके दूसरी डोज शेष हैं। स्कूल की ट्यूबवेल ठीक करने के लिए मिस्त्री ने हामी भरी मगर आज तक नहीं आया। यहाँ लोगों के पास काम ज्यादा है और हुनरमंद कारीगर कम। इसी सप्ताह दो पंखे ठीक करवाने के लिए कक्षा बारहवीं पास कर चुके निर्मल पाटीदार और अब बारहवीं में आए दीपक पाटीदार ने हामी भरी। तुरंत ठीक करके लगा भी गए। अच्छा लगा कि बच्चों के हाथ में एक कला आ गयी। मिस्त्री की तरह व्यवहार कर रहे थे। इधर कोरोना के नाम पर देश में अभी भी प्रतिदिन डेढ़ हजार लोग कोरोना से मर रहे हैं और रोजाना साठ हज़ार नए रोगी सामने आ रहे हैं पर बसेड़ा में यह आंकड़ा शून्य है।
एक अंतराल के बाद स्कूल आते बच्चे अब अध्यापकों को नमस्कार नहीं करते हैं। मैं अपने अस्तित्व को लेकर री-थिंक करने में व्यस्त होने लगा हूँ। यूँ यह काल बड़ा निर्ममता से पेश आ रहा है। रिश्ते दम तोड़ने को उतारू हैं। कुछ बच्चों को वोलंटियरशिप के लिए बुलावा भेजा। एक भी नहीं आया। अध्यापकों को अपने भीतर के ताप को फिर से नापना होगा। दिव्यता लानी होगी। अध्यापकी आसान काम नहीं रहा। मजबूर हो माड़साब योजना बदलकर अब जो आता है उसे ही आधे घंटे के लिए काम सौंपने लगे हैं। कमी कहाँ रही कि बच्चे कभी अनुभव नहीं कर पाए कि हमारे विद्यालय का असल रखवाले हमीं हैं। शिक्षा लागातार गच्चे खा रही है। नीतियाँ आँकड़ों में सिमट कर रह गयी हैं। कुछ बच्चों ने बताया कि उन्हें दोस्तों से मिलने के नाम पर स्कूल बड़ा याद आता है। बोर करने वाली क़िताबें और उनके कु-पाठ कभी नहीं रिझाते। पासबुक से अलग स्कूल में क्या मिलता है? स्कूल की सभी दीवारें सपाट हैं तो दिल किससे लगाते। पेड़-पौधों की देखभाल का कालांश ही नहीं आया तो दोस्ती किससे करते। न कोई खेल याद आता है न कोई आनंददायक सभा। न हास्य न व्यंग्य। स्कूल में बच्चों की परवाह के नाम पर कोई याद नहीं आया यह संकेत अच्छे नहीं हैं। न बड़े परदे पर देखी कोई फिल्म याद है न अभिनय। स्कूलों को बच्चों के बगैर चलने की अपनी दयनीय स्थिति में अपने होने को लेकर पुनर्विचार करना चाहिए। सोचिएगा कि आपके बगैर विद्यार्थी में किताबी ज्ञान के अलावा क्या अधूरापन घर कर रहा है। क्या है जो उसे घर पर नसीब नहीं।
ट्यूबवेल के ज़माने में स्कूल के गुरुजी कैलाश जी माली ने अपने खेत पर कुआ खुदवाया और बंधवाया। इसी मंगलवार दाल-बाटी और सूजी के लड्डू खिलाए। सादड़ी से नीमच जाते रोड़ पर अंडरब्रिज के पास बारह कुओं का एक इलाका है। वहीं उनके पूर्वज का स्थान हैं। सामलाती खेत है। रातिजगा हुआ। बहन-बेटियाँ और जमाई आए। गीत-भजन हुए। तथ्य यही है कि कई अध्यापक अध्यापन के साथ ही अपनी पुश्तैनी खेती भी संभालते हैं। मथुरा लाल जी और नंदकिशोर दुबे जी ने खेती लीज पर दे दी है। प्रिंसिपल सर के खेत उनके भाईबंद देखते हैं। भैरू लाल जी और छुट्टन लाल जी के खेत उनके गृह जिले में घर-परिवार के लोग संभालते हैं। गाँव से आने-जाने वाले फोन पर बातों के विषय में खेती-किसानी शामिल रहती ही है। बाकी अध्यापकों में कोई ऐसा नहीं है जो पार्ट टाइम किराने की दूकान चलाता हो या प्लाट खरीदने-बेचने में उलझा हो। न डेयरी है न मुर्गा-मुर्गी पालन। एक भी साथी घर पर ट्यूशन नहीं पढ़ाता है। ऊपरी कमाई के कोई जुगाड़ नहीं है न चाह है।
सामान्यतया माड़साब लोगों के कल्चर में ‘निजी लाइब्रेरी’ शब्द अब बेमानी होता जा रहा है। स्कूली बच्चों की याद नहीं आती कि उन्हें कोई प्रेरणा देनी हैं। जीवन का सूत्र सुझाना है। सोमवार से रोजाना पाँच बच्चों से बात करने का फरमान जारी हुआ है। संवाद में सृजन के बीज होते हैं। अच्छा कदम है। कुछ बेतरतीब विचार और साझा करने हैं। स्कूल की गति और दिशा मुखिया की गति और दिशा से सीधी जुड़ी हुई है। मुखिया की वैचारिकी से ही स्कूल साँस लेता है। इधर देख रहा हूँ कि शिष्यों में उत्साह मर गया है। न वे अभिव्यक्त करते हैं न महसूस करते हैं। प्रश्न अपने उत्तर के लिए मूँह ताक रहे हैं। गरीबी ने प्रतिभाओं का गला दबा रखा है। इच्छाएँ शमशान के रास्ते जा रही हैं। चेहरे मलीन हो रहे हैं। आँखें उदास। न रात सुकून देती है न दिन आस भरते हैं। बेबसी ने चादर फैला रखी है बस। वे सुनते हुए मुस्कराकर बच निकलने के आदी हो चुके हैं। सपने देखना बंद कर दिया है बच्चों ने। न जिजीविषा रही है न कुछ विशिष्ट करने की चाह। ऊँघ है कि जाती ही नहीं। औज़ारों की धारें खांडी हो चुकी हैं। हर विचार अब उन पर असर से बाहर है। वे अंदर से भी ठंडे पड़ चुके अनुभव हुए। यह मुर्दा भाव अच्छा नहीं।
आज फादर्स डे का प्रचार था। सभी ने अपने पिता को याद किया। पिताजी को याद करते हुए आज माँ को मंगल सूत्र, कान के झुमके अपने हाथों से पहनाए। नई पाजेब पहनाकर चुग्गे से कड़ियाँ दबाई। एक अंगूठी भी पहनाकर देखी। माँ भी बहुत सुंदर दिख रही थी। वह खुश थी। पिताजी को गुज़रे छह महीने होने आए। माँ को उनसे बहुत सारी शिकायतें थीं। आज भी याद करते हुए शिकायतों का जिक्र आता है। पिताजी पर लिखना हमेशा से मुश्किल रहा है। आज भी बचाकर रखते हुए नहीं लिख रहा हूँ। मानसून की बारिश के बाद सीतामाता अभयारण्य के चित्र देखने को मिले। वहाँ जाने का बड़ा दिल है। परिचित साथी भावना माहेश्वरी के परिवारजन को सीतामाता जंगल में रमते देखा तो सुखद लगा। डॉ. संदीप मेघवाल के गाँव जयसमंद वाले जल अभयारण्य का विडियो डोक्युमेंट देखा। वहाँ जाना कभी से अभीष्ट की सूची में सबसे ऊपर टांग रखा है। आने वाली तेईस जून को बसेड़ा में नौकरी करते हुए चार बरस पूरे हो रहे हैं। अगले सप्ताह की डायरी में खुद का अवलोकन करके कुछ लिखूंगा।
डॉ. माणिक
(बसेड़ा वाले हिन्दी के माड़साब)
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