बसेड़ा की डायरी, 3 जून 2021
बबली सहित घर में दो बहनें और एक भाई हैं। बसेड़ा के बीचोंबीच भी एक घर है पर परिवार ने अब बाड़ी के रास्ते मोती मगरी के छोर पर बाड़े में अपना ठिकाना बना लिया है। देहातियों में बाड़े में घर बनाने का चलन पुराना है। पिता जगदीश जी और माँ रामकन्या बाई। जाति से धोबी। पुस्तैनी काम अब नहीं के बराबर है। अरसे से खेती ही आधार है। खुद के साथ-साथ पाँती-पूरी से गिरस्ती चल रही है। स्कूल के रास्ते में आते-जाते जगदीश जी बड़े अदब से नमस्कार करते हुए मुझे उनके घर के बाहर रोकते ज़रूर हैं। मान-मनुहारें भी होतीं। परिवार की कुशल पूछते कुछ अपनी सुनाते। घर में सबसे बड़ा नवीन है। बबली का भाई नवीन दिमाग से उतना मजबूत नहीं है इसलिए उसकी सेवा-चाकरी पूरे परिवार के लिए बड़ी जिम्मेदारी है। बचपन से ही वह इसी तरह है। शरीर से चुस्त मगर पराये-हारे। मनमौजी और बेफ़िक्र। उसका दवाई-गोली और इंजेक्शन से छत्तीस का आंकड़ा है। बड़ा सच तो यही है कि बीमारी में उसकी सार-संभाल ज्यादा मुश्किल हो जाती है। इधर सबसे छोटी मंजु है जो अब ग्यारहवीं में आ गयी है। उसका भी पढ़ाई से बैर है। मोबाइल और स्कूटी। यही मंजु का परिक्रमा-पथ है और यही धूरी। गेले आता गेले जाता परिवार है। साधारण और सरलमना लोग हैं।
चार दिन से बबली कर रही थी कि गुवाड़ी में पीछे एक बगीची बना रखी है। चित्तौड़ के लिए मीठे नीम का एक पौधा सहेजकर रखा है। आज आते में पूरे परिवार से मिला। पहली दफा बगीचा भी देखा। तुलसी, बारहमासी, नीबू, अनार, आम, मीठा नीम, सहित डेढ़ दर्जन किस्म के पौधे थे। बबली वहीं कुछ साग-भाजी बो रही थी। उसकी यह अभिरुचि आज ही प्रकट में आई। बगीची में मिट्टी के दो अधबने चूल्हे भी देखने में आए। पूछाताछी पर जाना कि बबली की मम्मी फुरसत के वक़्त बनाती है और बन जाने पर लगभग सौ की नोट में एक बिक भी जाता है। चूल्हे से मुझे मेरा बचपन याद आ गया। माँ, भाभी, तीनों मामियाँ, लाली मौसी, नानी, पटवारियों के मासा सहित सभी की शक्लें और उनके चूल्हे याद हो आए। चूल्हा शब्द ही यात्रा की तरफ इशारा करता है। मैंने भी माँ-पिताजी के साथ खूब भुंगली से फूँक मारकर चूल्हा चेताया है।
खैर बबली फिलहाल बीएसटीसी के अंतिम साल में है। लगातार समपर्क में है। बारहवीं के पहले बैच की बालिका। एक दशक पहले आम के पेड़ से ही निचे गिर पड़ी थी। कमर की हड्डी तोड़ बैठी। अब शरीर उतना ताकतवर नहीं है पर उसका आत्मविश्वास उसकी सभी कमज़ोरियों पर भारी है। पाव-घड़ी बैठकर बात भी नहीं हुई कि देखते ही देखते रामकन्या बाई दो-ढाई किलो लहसून भरा थैला ले आई। वे जानते हैं भाभीजी के खेतीबाड़ी नहीं है। नंदिनी को सभी भाभी कहते हैं और मुझे सर। प्रेम इतना उमड़ा कि पाँच कच्चे मगर रसदार नीम्बू(नीबू), दो कलमी आम, एक ठीक-ठाक तुलसी का पौधा, दो बारहमासी के फूलदार पौधे गीली मिट्टी सहित पैक करके इस तरह मेरे बैग में जमा दिए कि चित्तौड़ तक सकुशल पहुँच जाए। यह किसान परिवार की अपने गुरुओं से पेश आने की परम्परा है। जो उपजता वही गठरी में बाँध उपहार देने को तत्पर।
चौंतरे पर मैथीदाना साफ़ करने का काम चल रहा था। मेरी नज़र गयी तो मनुहार करने लगे, ये भी बाँध दूँ। अचार में काम आएगी। मैंने हाथाजोड़ी की और विदा माँगी। नहीं जानता कि यह किसका प्रतिदान था। मन ही मन बबली के अध्यापिका बन जाने का आशीष दिया। जानता था कि बबली परिवार के लिए आसरा है। उजाले का एकमेव स्रोत। घर के बाहर तक आकर छोड़ते समय जगदीश जी बता रहे थे कि इसी पखवाड़े में चौदह आरी ज़मीन ली है चारेक लाख में। खेतिहर परिवार के लिए इस खरीद की खुशी मैंने उनके चेहरे की तसल्ली में देखी। गर्मी की दोपहर इससे ज्यादा आत्मीय और यादगार नहीं हो सकती थी। चित्तौड़ पहूँचते ही हाथोंहाथ अनुष्का, नंदिनी और मैंने शाम के वक़्त तीन गमलों में अलग-अलग पौधे रोपकर बबली का सपना साकार किया। सोचा बसेड़ा के यही बच्चे यहाँ घर आएँगे तो कढ़ी-खिचड़ी में मीठे नीम और चाय में तुलसी के पत्ते नक्की।
बसेड़ा ‘हेल्थ सब-सेंटर’ गया तो जानकारी मिली कि ‘कम्युनिटी हेल्थ ऑफिसर’ के पद पर सुश्री अनिता आर्य की नई-नई नौकरी लगी है। पहले से सेवारत हेमलता यादव यानी हमारे नर्स बैंजी को कुछ राहत मिलना तय हुआ। एक और एक ग्यारह जो हुए। ख़बर यह भी मिली कि कोरोना के ‘रेपिड एंटीजन’ टेस्ट किट आए हुए हैं तो लगे हाथ नाक में तुली डलवाकर जाँच नमूना दिया। सरकारों का शुक्रिया कि पाँच मिनट में रिपोर्ट हाथ में थमा दी। बीते गुरुवार से नाक टपक रहा था। कई धंद-फंद किए पर काम सधा नहीं। सोचा कोरोना टेस्ट करवा लूँ। सुखद यही रहा कि रिपोर्ट नेगेटिव रही। दोनों आशा बहनें वहीं मिल गयी। रानी शर्मा और रानी परिहार। दोनों बहुत मेहनती और दायित्व को लेकर सतर्क। घर-घर की पक्की जानकारी। चर्चा में जाना कि बीमारी कम हुई है पर सफाचट होना अभी शेष है। गाँव-गोरमा की सर्वे संबंधी बातेंकर लौट आया।
दो दिन से देशव्यापी बहस छिड़ी हुई है। ‘बोर्ड के इम्तिहान रद्द करने के बड़े निर्णय और बच्चों का भविष्य’। विचारों के प्रकटीकरण का श्रृंखलाबद्ध सैलाब आया हुआ है। हज़ार एंगल और हज़ार परसेप्शन। दर्जनों पैनल चर्चाएँ और सैकड़ों बहसें कुर्बान। लाखों राय-शुमारियाँ और करोड़ों अलिखित बधाईयाँ। जाने कितने ही फीसदी बच्चे प्रसन्न मुद्राओं के साथ आनंदित होंगे। कुछ ही फीसदी हैं जो निराश और चिंतनरत हैं। वातावरण में सरकारों के लिए कसीदे और लानतें बराबर मात्रा में मौजूद हैं। परिवेश में दोनों ही तरह की राय रखने वाले अभिभावक मिल जाएँगे। फैसले पर अध्यापकों को भी कमोबेश दो-फाड़ देखा है। समाजकी ऐसी गति स्वाभाविक है। सत्य यही है कि यह समय पहले जैसा नहीं है तो स्वाभाविक है कि निर्णय भी चौंकाएगा। बीते महीनों चुनाव और कुम्भ को लेकर चली चर्चाएँ स्पष्ट हैं। भविष्य की आशंकाओं के मद्देनज़र फैसला एकदम सही है। भुगत भोगी हैं कि सिमित व्यवस्थाओं में असीमित आकार लेते कोरोना को साधना हमारे वश में नहीं है। अस्पतालों के भयावह दृश्य इतने जल्दी विस्मृति के पाले में कैसे जा सकते हैं भला। माना ‘परीक्षा बेहद ज़रूरी है’, हालाँकि यह भी बहुत मेहनत के साथ हमारे मगज में बिठाया गया तथ्य है कि परीक्षा के बिना पढ़ाई बेकार है। याद रखिएगा जो निर्णय हुआ है पाँच सौ प्रतिशत परिस्थितिजन्य है। ‘बच्चों की जान से ज्यादा ज़रूरी परीक्षा है’ अगर यही आपका निष्कर्ष है तो फिर आप तो पहले से ही फेल हैं। यह ज़िंदगी बचाने के साल है भाई। असल हाल उनसे पूछिएगा जिनके घर का कोई अपना यह दुनिया छोड़ चला।
प्रिय अध्यापक साथियो, नमस्कार। आपके सारे तर्क मेरे सिर माथे पर। तनिक सोचिएगा कि आपका पढ़ाया हुआ विद्यार्थी अगर केवल मात्र बोर्ड परीक्षा नहीं देगा तो क्या आपके सानिध्य में उसका सीखा हुआ ज्ञान-विज्ञान अब उसके जीवन में रत्तीभर भी काम नहीं आएगा। संभव हो कि आपके रटाए हुए तथ्य वह धीरे-धीरे भूल जाए। हमारी बेसिक पकड़ वहाँ ढीली पड़ जाती है जब हम बच्चों को पढ़ाते ही खाली परीक्षा के लिए हैं। सबकुछ तो अंकों की दौड़ बना दी है हमने। आओ इसी बहाने कुछ बात कर लेते हैं। बीते सालों में बोर्ड परीक्षा में पास हुए बच्चे आजकल कहाँ हैं? उनका ताज़ा हाल पता लगाएगा। समाज में उन्हें भी टटोलिए जो बोर्ड में फेल हो गए थे। अभी वाले सत्र के बच्चों का वनटू-वन इंटरव्यू करिएगा। अपनी बाँसुरी में फूँक मारने के साथ-साथ उन्हें भी सुनना होगा। यह दुखद सत्य है कि कई बच्चे इस ‘प्रमोशन’ पर इसलिए भी खुश हैं कि परीक्षा से बच गए। यह भीतर से खोखले हो जाने की शुरुआत है। मीठा ज़हर है। याद रखिएगा भयानक हालात से उपजी मजबूरी है यह प्रमोशन। ऊपर से आनंदित करने वाली इस ‘खुशी’ का सरलार्थ करने से काम नहीं चलेगा भावार्थ समझना होगा। बहरहाल सरकारों का शुक्रिया और विद्यार्थियों को महामारी से सुरक्षा पर बधाइयाँ। याद रहे कि यह बोर्ड परीक्षा पास करने पर मिलने योग्य ‘बधाई’ से भिन्न किस्म की बधाई है।
परीक्षाओं के चलन और उनके पैटर्न को लेकर बहसें छिड़ गयी हैं। यह मौसम आना ही था। अध्यापक आपस में टकराने लगे हैं। बच्चों का स्वास्थ्य और सुरक्षा अध्यापक से जुदा विषय कैसे हो सकता है। अफ़सोस अक्सर हम वही फोर्मुले और बातें दोहराने के आदी हो जाते हैं जो हमने अपने जीवन में कभी भोगे और अपनाए होते हैं। जबकि वक़्त लगातार तेज़ी से बदल रहा है। साल 2018, 2019 यहाँ 2020 और 2021 से सर्वथा अलग है। अनुभव ही प्रमाण है। फिर इन दो वाक्यों में क्या फ़र्क रह जाता है जब आप तर्क करते हैं कि ‘महास्नान बड़ा पुण्य का काम है इसके बिना जीवन असार है’ और ‘परीक्षा के बगैर पढ़ाई-लिखाई एकदम व्यर्थ’। ठहरकर विचार करिएगा। जैसी परीक्षाओं का जाल हमने बीते दशकों में बिछाया है और उसमें छनकर आने वालों ने समाज का जो भला किया है। स्पष्ट दृष्टिगोचर है। ज्ञान की परम्परा को लिखित और पढ़े-लिखो में निहित मान लेना ही शुरुआती बड़ी खामी है। वर्तमान समाज सीखे हुए नागरिकों के लिए तरस रहा है। पढ़े-लिखे तो पहले से पर्याप्त हैं।
तीन घंटे में विद्यार्थी का तापमान नाप लेने का दंभ अच्छा नहीं है। इसी बहाने चर्चा छेड़कर हमारी शिक्षा का कुछ भला करें कि अब भी बालक समग्रता में अपने मूल्यांकन को तरस रहा है। परीक्षा केन्द्रित अध्यापन ने बच्चों का कितना भला किया है इस पर प्रकाश डालने की ज़रूरत है। व्यापक एवं सतत मूल्यांकन का दायरा बढ़ाने की आवश्यकता है। अफ़सोस ऐसे अध्यापक भी बहुत कम बचे हैं जो बच्चों पर इस परसेप्शन के साथ काम कर सके कि अगर परीक्षा नहीं हो तो पुस्तक को कैसे पढ़ाना है। कल्पना करो कि परीक्षाओं को सदैव के लिए समाप्त कर दिया जाए। क्या अध्यापक फिर निरर्थक हो जाएँगे। गुरुजी की आवश्यकता समाप्त हो जाएगी। किताबों अपना अर्थ खो देंगी। मित्रो, परीक्षा अपनी जगह है। उसके होने या नहीं हो पाने को लेकर इतना काहे परेशान हो रहे हो। आप तो आज यह सोचो कि आपने पूरे साल ऐसा क्या सीखाया कि आपका बच्चा बिना परीक्षा दिए भी अपने जीवन में समाज में यह साबित कर सके कि वह योग्य है। हम योग्यता प्रदर्शन के लिए कब तक अंकतालिकाओं का सहारा लेंगे।
पढ़े की परीक्षा विभाग लेता है और सीखे की समाज। आपका विद्यार्थी समाज के सुखद के लिए अपनी तरफ से क्या जोड़ने की ताकत रखता है यह बताएगा आप तो। आंकडे रटकर उगलने के लिए तो रोबोट है। मेमोरी डिवाइस का बड़ा इंतज़ाम कंप्यूटर है। जीबी और टीबी में आने वाली हार्ड डिस्क की सशक्त परम्परा मौजूद हैं अब तो। डोमेन हैं, क्लाउड हैं। जिन्हें परीक्षा ही देनी हैं उनके लिए भी सरकार कुछ न कुछ रास्ता निकालेगी ही। सब अच्छा होगा। सच कहूँ सुनिएगा। आप और आपके विद्यार्थियों की तरफ यह समाज बड़ी गरज की नज़र से देखता है। एक दिन आपके पढ़ाए बच्चे यहाँ के नागरिक बनेंगे। लोकतंत्र अपनी मजबूती के लिए आस पालकर बैठा है। बच्चे एक दिन नागरिक के रूप में समाज में प्रवेश करेंगे तो तब समाज में चोरी-बेईमानी कम हो जाएँगी। भष्टाचार लुप्त होगा। असत्य का नाश और व्यभिचार का मरण तय है। कालाबाज़ारी के खात्मे के लिए यह समाज आपसे अच्छे नागरिक मांग रहा है। संवेदनशील डॉक्टर, ईमानदार इंजिनियर, पाक नियत वाले वकील और चिन्तनशील प्रोफ़ेसर। प्रगतिशील वैज्ञानिक भी आपको ही मुहैया करवाने हैं। समाज में समानता और न्याय के पोषक लोग चाहिए होंगे। परिवारों में स्थाई संतुष्टि तलाशने वाले व्यवहारकुशल सदस्य चाहिए। वर्तमान की मांग है कि स्वाभिमानी और निस्वार्थ जनप्रतिनिधि चाहिए।
समाज समर्पित और मिशनरी अध्यापकों की खेप के लिए आपकी तरफ मूँह करके खड़ा है। राज्यों में अमन-चैन चाहिए। देश में खुशहाली चाहिए। सबकुछ के लिए यह समाज आपके उन बोर्ड परीक्षार्थियों की तरफ देख रहा है। अध्यापक साथियों क्या आप समाज की अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए तैयार हैं। समाज को जैसे कबीर, रैदास, तुलसी, मीरा, गाँधी, अम्बेडकर और विवेकानंद चाहिए उसी तरह बेहतर हुनर वाले बढ़ाई, लौहार, कारीगर, हलावट, नल-बिजली के कुशल मिस्त्री भी चाहिए। आप देंगे उन्हें मेहनती किसान और देशभक्ति से भरपूर मजबूत शरीर वाले फौजी। परीक्षाओं का दायरा बहुत छोटा है साहेब। आप सीखाने पर जोर देंगे तो सभी की अपेक्षा पूर सकेंगे। खाली पढ़ाने से वही हासिल होगा जो अब तक होता रहा है। परिणाम हम सभी के सामने है। बहस जारी रहे। सभी पक्षों को सुनने का धैर्य और संवाद का सलीका बचा रहे। निष्कर्ष पर पहूँचने की जल्दी का सत्यानाश हो।
डॉ. माणिक
(बसेड़ा वाले हिन्दी के माड़साब)
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