बसेड़ा की डायरी, 7 जून 2021
गर्मियों की छुट्टियाँ बीत गयीं। सबकुछ चुपचाप गुज़र गया। न माड़साब-बहन जी अनुभव कर पाए न शिष्यों को भनक लगी। बड़े सर तो अफ़सरी से फ़ुरसत ही कहाँ पा सके। हम सभी को काम की अधिकता से ज्यादा उसकी बेतरतीबी ले डूबी। अवकाश में से आनंद निचोड़ने के बाद भला क्या बचता है। दायित्व में जी-हज़ुरी मिलाने पर भी शेष क्या रहता है? आप समझ ही रहे होंगे। तारीखें गड्डमड्ड हो गयी हैं। अप्रैल-मई और जून सब एक माजने के लगने लगे हैं। एक जुलाई जैसा पर्व बीते ज़माने की बात हो चली है। लम्बी छुट्टियों के बाद आपस में मिले अध्यापकों ने नमस्ते के अलावा कुछ नहीं बोला। असल में हम कागज़ी होते जा रहे हैं। साथ बैठ चाय पीने के बीस मिनट भी हमने अपने ही हाथों ज़मीन में बहुत गहरे गाड़ दिए हैं मानो। प्रिंसिपल सर सहित हम पाँच थे पर आपसी बतकही के नाम पर शून्य। कभी स्कूल के आँगन में नए सत्र के पहले दिन पोटलिया भर-भर उत्साह-उमंग बिखरा रहता था। बच्चों के बगैर विद्यालय में मरघट सी शांति पसरी थी। न उपस्थित का आनंद था न अनुपस्थित की उदासी।
तनुषा के घर से चाबी लाकर चांदमल ने ताला खोला। दोनों अब दसवीं में आ गए हैं। दोनों के घर स्कूल के आजूबाजू जो ठहरे। ऑफिस में कंप्यूटर की धूल झाड़कर मैंने बैठक को बैठने लायक बनाया। पिछे से जगदीश जी सेंगर और बिंदु मैडम की उपस्थिति से वातावरण में प्रसन्नता फ़ैल गई। लगा जैसे एकाएक दोनों हाथ उग आए। मैडम ने सभी साथी कार्मिकों के नाम लिखकर रजिस्टर में जून का पन्ना तैयार किया तो हमने सिग्नेचर किए। दिनभर में जितनी चहल-पहल थी कोरोना टीकाकरण के कैम्प की बदौलत थी। लोगों की आवाजाही से मन लगा रहा। कैलाश जी माली स्कूल के सबसे पुराने अध्यापकों में से हैं। उनके आते ही कैम्प की व्यवस्थाएँ जल्दी-जल्दी आकार लेने लगीं। स्कूल के पीछे रहने वाले परिवारों में से कैलाश जी और सेंगर जी अक्सर कुछ स्काउट बच्चों को बुला लाते हैं। ग्यारहवीं में आ चुके पंकज मीणा और उसकी टीम के आने से बहुत से काम एकदम हल्के हो गए। चाबियों के गुच्छे टटोले गए। ताले खंगाले गए। जन्नाटेदार गर्मी झेल चुकने के बाद भी बचे रहे पौधों की सार-संभाल की गयी।
किसी अध्यापक साथी के फोन पर शिवजी लौहार अपनी दोनों बच्चियों को स्कूल छोड़ गए। बारहवीं में आ चुकी पूजा और आठवीं में आई कशिश। दोनों ने बहुत मनोयोग से माँ सरस्वती जी के मंदिर को साफ़-सूथरा करते हुए सुंदर बना दिया। ज़रूरी एक या दो कमरों की सफ़ाई भी की। दो साल के इस कोरोना-संकट-काल ने शिष्यों को अपने गुरुओं से सर्वथा अलग कर दिया है। कम कहा ज्यादा समझना। मिलनसारिता नदारद हो गयी। आपसी समझ का गठबंधन लगभग लापता। सभी अपनी चोक-बिगड़ी मनस्थितियों के साथ काम कर रहे हैं। कोई पूरा नहीं है। सभी आधे-अधूरे। वातावरण में कोरोना को लम्बे अस्पताली-ईलाज से मात दे चुके प्रिंसिपल छगन लाल जी पाटीदार की सहजता हरसमय मौजूद थी। अपनी कई बीमारियों के बावजूद कोरोना को हराने में आगे रहे सेंगर साहेब हमारे सामने थे, यह कम खुशी की बात नहीं है। आपसी चुहल के लिए आज ज्यादा वक़्त नहीं मिल पाया। चाय के बर्तन-भांडे का आज ठौर-ठिकाना नहीं था, तो चाय नसीब न हो सकी। टिफिन भी अलग ही खोले और खाए गए। सरकारी स्कूल में नए सत्र का पहला दिन अमूमन ऐसी ही सूरत वाला होता है।
तमाम कोशिशों के बाद भी बमुश्किल तीस टीके लग सके। लोगों को समझाने के क्रम में सभी हार चुके हैं। जो लोग बचे हैं वे टीके से डरते हैं। कोई नालायक उन्हें यह समझाने में सफल हो गया है कि टीके लगवाने से लोग पहले बुखार में आते हैं फिर मर जाते हैं। एक बुढ़िया ने कहा कि टीके से ताव आएगा और मुझ अकेली को रोटी कौन देगा? उनका सवाल वाजिब था और हम ना-उत्तर थे। मुसीबतें कम नहीं हैं? लोगों के पास मोबाइल नहीं हैं ट्रेस कैसे करें? पहले टीके की पर्ची खो गयी। अंगूठा-टेक नागरिकों ने पहली ख़ुराख की तारीख याद नहीं रखी। किसी के पैंतालिस की उम्र पार करने में महीना कम पड़ रहा है तो किसी के चौरासी पूरे होने में दिन घट रहे हैं। इधर नर्स बैंजी ऊपर से बड़े डॉक्टर साहेब का कहा कहती और करती हैं। वे मजबूर हैं क्या करती। सब नियमों से आबद्ध हैं। ग्यारह आदमी जब तक जमा नहीं हो जाते तब तक टीके की शीशे(वायल) नहीं खोलती हैं। समीकरण बड़े जटिल हैं। आँगनवाड़ी की दोनों आशा और दोनों कार्यकर्ता जी-भर श्रम कर रही हैं। ऑनलाइन डेटा फीडिंग में कम्युनिटी हैल्थ ऑफिसर अनिता जी और अध्यापिका बिंदु मैडम देहाती लोगों से उन्हीं की जबान में पूछाताछी करते हुए बतला रही हैं। रजिस्टर संधारित हो रहा है।
कैम्प में आए लोगों से बातों का ठाठ न्यारा ही है। ठाठ का आनंद लेकर ही शेष जीवन के लिए ऊर्जा पैदा की जा सकती है। यही ठीक रास्ता है। ज्यादा पैचिदगियाँ भी सफ़र में भारीपन लाती हैं। हमें हल्केपन को तलाशकर उसे पतवार बनाना होगा। सबकुछ खाली और खाली आँख का फ़र्क है। गाँव को समझना हो तो टीका लगवाने आए लोगों के बीच बैठ बातों की इमारतें बनानी चाहिए। थोड़ा सा भी सचेत न रहो तो ऐसी जाजम में बहसें भी जी उठती है। औरतें और आदमी सब भरे हुए थे। अनुभव-सम्पन्न और लम्बी उम्र बिताए लोग। थोड़े से टल्ले से ही उबक पड़ते हैं। सभी अपनी अनकही सुनाने की फ़िराक में नज़र आए। टीके की बारी आने तक औरतें घेरा बनाकर सुख-दुःख साझा सकती दिखीं। बीड़ियाँ और ठहाके। एक बारगी लगा उनके जीने के लिए दो चीज़ें काफी हैं।
हाल की बारहवीं बोर्ड के सत्रह ही बच्चों को कहा कि आपको बिना परीक्षा प्रमोशन पर कैसा लग रहा है? संभव होने पर दसेक पंक्तियों में अनुभूति लिखकर भेजें। जवाबी चिट्ठी केवल दो की आई। सोना और रानी। एक ने दुःख जताया और दूजी ने कहा कि सर आपने ही हमें सिखाया कि जीवन में कई बार परीक्षा देना बहुत मायने नहीं रखता असल मामला सीखने पर फोकस रहने का है। बाकी ने निराश किया। उनकी भी कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी वरना यूँ ही कोई........। पर्यावरण दिवस के एक दिन पहले ही शाम को दो गमले और तीन नए पौधे घर लाए। नंदिनी और अनुष्का सहित अशोका नर्सरी जाना हुआ। अनुष्का में बड़ा उमाव था। मोगरा, गुलाब और क्रोटोन। एक सौ चालीस का एक गमला पड़ा। खाद-मिट्टी चालीस रुपए प्रति गमला अलग से। पौधों की दरें डराती हुई। सत्तर का क्रोटोन, अस्सी का गुलाब और नब्बे का मोगरा। फेसबुक पर जयपुर वाले चंद्रपाल जी सहित कुछ मित्रों के टैरेस गार्डन बड़े आकर्षक लगते हैं। जी ललचाता है।
उदयपुर के चिमन डांगी जी का आर्ट जंक्शन भी दिल लुभा रहा है। पर्यावरणीय सरोकारों के लिहाज़ से बहुत गहरा काम है उनका। जयसमंद जैसे गाँव से भाई संदीप की आँगन में रखे खाट की तस्वीरें सुकून देती हैं। विद्या भवन वाले पुष्पराज भाई अवकाश में बदन के लिए कसरत का वक़्त जुटाते हुए दिखते हैं तो अच्छा लगता है। खुशियाँ तलाशने के यही तरीके बचे हैं अब। तमाम तरह के अंधड़ और धूल-धक्कड़ के मौसम में भी बच्चों के लिए हिंदी के विडियो बनाता अभिनव सरोवा जाने किस मिट्टी का बना हुआ है, सोच में पड़ जाता हूँ। शुक्रिया अभिनव। महेंद्र नंदकिशोर जैसे अभिन्न का अवसाद से बाहर आना आल्हादित करता है। अरसे बाद भतीजी पिंकी के नवजात बेटे राजवीर को हँसाया-दुलराया और खिलाया। भीतरी खुशी मिली। इधर कुछ मित्रों के लापता होने की ख़बरें तैर रही हैं। यह सुखद नहीं है।
पिता थे तो गाँव रिंझाता था अब उतना नहीं रिंझाता। पिता की अनुपस्थिति में उनके जमा किए सामान को छूना उनकी देह को बाथ में भरने के बरोबर है। पुरखों के घर को टटोलना सुखद यात्रा कैसे हो सकती है भला। हज़ार सुलहों पर गिनती की उलझनें भारी दिखी। यह कैसे चितराम हैं सामने कि दिल भरे हैं और बाहें खाली। संवाद ढील भोग रहे हैं। दाम्पत्य ने सम्भाला है मोर्चा तो दुनिया बची है बिखरते-बिखरते। पिताजी थे ठीक वहीं जहाँ रखे थे उनके ख़रीदे सब साजो-सामान। पीतल और ताम्बे के। स्टील और जर्मन के। लोहे और चीणी के। अनगिनत बर्तन। डेगची, तपेली, चरे-चरी, छोटी-बड़ी और संकड़े मूँह की केटलियाँ। छोटा-बड़ा अमानदस्ता और भगोनी-करचू। सभी आकार वाली परातें और थालियाँ। बर्तनों से ज्यादा उन पर लिखे नाम और तारीखों का उत्स। बेवड़े-घड़े, अनाज की कोठियाँ, लोहे के पलंग, चूल्हा-तवा और कई तरह की मशीनें। सेव निकालने की मशीन, मिर्ची पिसने और दलिया दलने की मशीन। कुछ सुनारी औज़ार जैसे चुग्गा, कत्या, एरण, भभका, बगनार, कांटी-बाट। सबकुछ सिनेमा की रील की तरह चलता हुआ। पिताजी के चश्में, जूतियाँ, धोती-जब्बे। जड़ों को सीने से लगाने की एक यात्रा। एक आबाद बरगद की कहानी का सन्नाटा।
और अंत में कुछ बेतरतीब विचार। कविताई सरीखा या गद्य कविता की शक्ल में। जैसे मन में उपजे हर भाव को शब्द कहाँ नसीब होते हैं। प्रार्थनाएँ अब वहाँ नहीं पहुँच पाती हैं जहाँ के पते लिखकर उन्हें भेजा जाता रहा। मौन में लिखी डायरियाँ ज्यादा पढ़ी जाती हैं। लिखा हुआ उतना नहीं पढ़ा जाता और कहा हुआ भी उतना कहाँ सुना जाता है अब। जिस तरह अंतराल और अभ्यास का अपना सुख है उसी तरह इंतज़ार और अपने बीते में लौटने के अपने दुखड़े हैं। नदी खाली पानी की ही नहीं होती दुःख की भी होती है। पहाड़ सी ऊँचाइयों को सुखांत कहने वाले भोले लोग थे शायद। रात होगी तो नींद होगी ही, यह झूठ कई पकड़ा है मैंने। अखंड नीरवता में ही सबसे भयानक शोर दर्ज किए गए हैं। आजमा कर देखिए किसी दिन कि आदमी भी रोते हुए खुबसूरत होते हैं। ‘बेटी के पाँव में पाजेब’, यह नयी सदी की सबसे छोटी और अनूठी कविता है। अब रुमाल पर कसीदे से काढ़े गए दिल उसी तरह गायब हैं जैसे तपती दोपहरी में सड़क से प्याऊ। दिल में समय-असमय आई बातें एक आना भी कहाँ कागज़ पर उतर पाती हैं। प्रेम की अधिकाँश नावें हिचखोले खाने को अभिशप्त हैं और स्नेह के डोर अपने आप को अब गाँठों के हवाले कर चुकी है। संकेतों को ठौर मिल जाना और मौखिक को लिखा जाना भी मोक्ष है। अलिखित अक्सर बिखरकर हवा हो रहा है असमय सूखते पत्तों की तरह जर्जर।
डॉ. माणिक
(बसेड़ा वाले हिन्दी के माड़साब)
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