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09 नवंबर, 2021

शुक्रिया प्रवीण कि तुम्हारे आने से

9 नवम्बर 2021, बसेड़ा की डायरी

यह दो राग का मिलनबिंदु है। राग प्रवीण और राग माणिक। भारतीय जीवन शैली में इन्हें आपसी भाईचारे को बढ़ावा देने के हिसाब से किसी समय गाया-बजाया जाता रहा है। एक ही थाट से जनमे हुए भाईबंद हैं दोनों। कल शाम सात से शुरू हुई जुगलबंदी सुबह आठ पर आकर रुकी। रोकना हमारी पसंद नहीं विवशता थी। हम ऊँचे तक गए। पहाड़ के मतारे तक और खूब गहरे जैसे मेनाल का झरना गिरता है। कई हुनर के हम गुरुभाई हैं। सन सत्तानवे की दोस्ती है। एक दूजे के तार कहाँ और कब ढीलते हैं, दोनों तुरत-फुरत पहचान लेते हैं। देर से मिलते हैं मगर दुरस्त मिलते हैं। हमारे सुख की तरह दुःख भी एकमेक हुए। हमारी यादों का बटुआ एक ही रंग का निकला। दोनों की कथा का एक दुखद सूत्र यह भी था कि हम दोनों अपने पिता के बग़ैर चलना साध रहे थे। पिताजी का असमय गुज़र जाना हमारा सामलाती शोक बन पड़ा। पिता की अनुपस्थिति में पिता होना असहज करता है। माँ की उपस्थिति अब आकाश है। हमारी हिम्मत हमारी जड़ों का देहात में होना है। आज दोनों का वास अलग-अलग नगर में है पर दोनों में दोनों की बू आती है।

अनुभव हुआ कि मिलने पर बातों में ना-नुकुर गायब हो जाता है। अब छीलते हैं पर छिना-झपटी नहीं होती। हमविचार होकर चलने में अब राह छोटी पड़ जाती है। गाते हैं तो तीन सप्तक भी ओछे जान पड़ते हैं। बातें दे-लम्बी और दे-पुरातन। न और न छोर। आलाप में न्यूनतम समय लेने वाली संगीत सभा हमारी ही होती है। राग अपनी मूल शक्ल पर लौटने में बेहद कम समय लेता है। हमारा मिलना डालपक सीताफल या अमरूद का अचानक हाथ लगना है। बेरियों में बेर आना है। छोटी दिवाली के आसपास रबी की फसल के लिए नहर में पानी छोड़ने की तरह सुखद लगा। बातों में हम भी मध्य लय से होकर ही तार सप्तक तक जाते हैं। सम पर आकर ठहरना कभी नहीं चूकते हम। सम पर हमारी जान अटकी है। ताल के पक्के हैं क्योंकि तालीम पर फ़क्र है। गुरुओं की शागिर्दी आज भी संतोष भरती है।

वर्तमान में संतोष और आगे का विश्वास हमारी बैठक का सत था। मूल की मेहनत हमारी नींव थी जो वक़्त-बेवक्त बिखरने से बचाती रही। कल अरसे बाद यह दोनों राग गाने-बजाने-सुनने का फिर से आसरा मिला। दोनों एक दूजे की मजबूरी और ताकत से लगे। हमारे मिलने से सार्थकता की कोंपलें नए सिरे से उग आई। हमारा मिलना पृथ्वी के घूर्णन में एक काल्पनिक विराम की मानिंद अनुभव हुआ। दिवाली का बचा हुआ काम दोस्ती ने पूर दिया। घने अँधेरे कोनों को उजास मिल गया। आँसुओं को कंधा और सारंगी को हारमोनियम पर लहरा देने वाला साजिंदा मिल गया हो जैसे।

मित्रता में एक रात का जगेरा और फिर से सुबह सवेरे बतकही की वही प्यास सुकून का स्रोत बनी। सबकुछ अनियोजित और आसरे-आसरे। घर-गिरस्ती से लेकर रोज़गार की बातें घटी। हम देश-दुनिया को विषय बनाने की फुरसत के साथ बैठे भी नहीं। रात के दो पहर तक अपनी दुनिया में डोलते रहे और फिर नींद ने आ छाती से लगाया। लगा कि मिलते हैं तो सेमीनार हो जाने से बचते हैं। हमारी बैठकी से एक दूजे की कविताओं में आंतरिक लय जन्मती है। कहानी में कहन दिखाई देने लगता। उपन्यास उपसंहार की तरफ बढ़ता है। पाठकीय टिप्पणियों को सम्पादक का पता मिल जाता है जैसे डाकिए को मनी ऑर्डर वाली बुढ़िया का सुदूर घर। पृथ्वी पर मित्रों का मिलना ऐसे ही घटता है। जैसे ठीक से हवा भरने के बाद फूटबाल कूदती है और जैसे लड़की अपनी दोनों चोटियों में रिब्बन के फूग्गे खिलने के बाद उछलती हुई स्कूल जाती है।।

नुकीली बातों को बिना छूए शेष हालचाल को थाल-दर-थाल सेकने में रात गुज़री। ज़िन्दगी में जितनी पाणत बाकी थी, कल निबटाई। सुबह सड़क की सैर में आते जाते खूब डूबे। डूबना हमारी रुचि का विषय रहा हो मानो। अंत में जाना कि मैत्री में डूबना आनंद देता है। लिखित परीक्षाओं के अंतिम पेपर के बाद की-सी खुशी। प्रसन्नता मिलती है जैसी स्कूली यूनिफोर्म से छुटकारे पर मिलती है। दोस्त का अनायास आगमन दिवाली की सफाई में कपड़ों के नीचे सहसा मिले ढाई हज़ार की तरह लगा। मशहूर शायर राहत इंदौरी हो या उस्ताद वासिफुद्दीन डागर साहेब। सुनने के साथ भीतरी अनुभूति पर बात करना, प्रवीण के साथ सदी की सबसे सुखद यात्राओं में से एक साबित हुआ। रागदारी इतनी लम्बी है कि घराने की शक्ल में ढलने लगे हैं हम। बीते बीस सालों में पढ़ाए शिष्यों की संख्या हज़ार पार हो चली है कि स्वभाव में बचपना बरक़रार रखना मुश्किल हुआ जा रहा है।

हम मिले कि मिलना ज़िंदगी था। ज़रूरी केस की सुनवाई की तरह मिले। बयान सुने और दर्ज किए गए कि जैसे सुलह होने की आशा में गवाह खुश होते हैं। दोनों पक्षों के द्वारा दावा उठा लिए जाने के वक़्त जैसे अदालत खुद मिठाई बाँटती है। न्याय घूमर ले-लेकर नाचता है अपने होने पर। खाली दोस्त का मिलना कहाँ था वह जब तुम आए। भाभी को देवर मिला। भतीजी को काका मिले। माँ को पंहुना वाला प्रवीण मिला। मिले ऐसे कि कोना-कोना चहक उठा। बखारे के सारे बिस्तर बिछाए गए। तकिये पर तकिये लगाकर रजाई में टाँगे घुसाए देर तक बने रहे हम। एक बारगी फिर लगा कि यह ताप बरसों काम आएगा। पक्का अनुमान हो गया है कि रिश्तों में ऊन के फंदे इसी तरह डाले जाते होंगे कि एक दिन मनमाफ़िक स्वेटर बन सके ऐसे ही। शुक्रिया प्रवीण कि तुम्हारे आने से दिवाली पर बने गुलाब जामुन और बेसन की चक्की को स्वाद मिल गया। बैठकी अपने आकार पर ठसक के साथ विदा हुई।
-माणिक

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