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19 नवंबर, 2021

विचार की टाटी खुली तो मंथन संभव हुआ है।

14 नवम्बर 2021 बसेड़ा की डायरी

विचार की टाटी खुली तो मंथन संभव हुआ है। बाड़ाबंदी से दम घुटता है अब। जान गया हूँ कि उस पार हिलोरती नदी बाँहें फैलाई खड़ी है। परिणाम का आनंद उसके आने से पहले आ पहुँचा हो मानो। खुश रहता हूँ कि जैसे दुःख इस बार फिर से नहीं लौटते की मंशा से लम्बे अवकाश पर चला गया। संवाद में खुलना सीख गया हूँ तो भीतर और बाहर एक सरीखा लगने लगा है। छिपाने से ज्यादा जताना याद रहता है। यात्रा में अब आँखें बंद नहीं करनी पड़ती। डर का फुर्र होना एक बारगी फिर सुखद लगा। आजकल कान बड़ी रूचि से खुले रखता हूँ। आसपास को चाव से समझता हूँ कि जो करना-धरना है इसी ज़मीन पर। भागना या पलायन अब चयन के मुद्दे नहीं रहे। प्रिय समाचार यही कि ठानी हुई राह पर अब कदम नहीं डगमगाते। दिन की पाई-पाई पूरी योजना से खर्च करता हूँ और रात को पूरी तरह बिछाकर सोता हूँ। संशय का डेरा उठ गया। निर्णय के तम्बू गाड़ लिए। दृश्य का धुंधलका छंट गया। काम की सूची नाक की सीध में रखी हुई है। अवरोध में कुछ भी नहीं दिखता। सुलझने की तरफ बढ़ा तो सब सहायक लगने लगे। शुक्रिया रविवार कि तुमने विचार की मौहलत दी।

दो महीने बाद होने वाला विश्व पुस्तक मेला अभी से रिझाने लगा है। आपको मालुम हो कि दिसम्बर के शीतकालीन अवकाश पर जीवन विद्या लिख दिया है। आने वाले दिनों में कुछ रविवार हैं जिनके माथे पर ‘ज़रूरी व्यस्तताएं’ टाइप लेबल चिपका दिया। एक मित्र की बारात में घूमर पर नाचना है। जंगल में बनी एक नई हेरिटेज होटल में मित्रों के साथ धूप सेकनी है। गुलाबी मौसम का नाप लेना है। सर्दी के कपड़ों पर अपनों की टिप्पणियों का इंतज़ार है। कम हुई तोंद को बढ़ने से रोके रखना एक सूत्रीय एजेंडा अब बिना याद रखे भी याद रहने लगा है। मित्रों के बुलावे असमंजस में डालते हैं। द्वंद्व है कि पुष्कर जाऊँ या होशंगाबाद। जयसमंद और बाड़मेर एक साथ एक ही तारीखों में आमंत्रित करते हैं। सादड़ी और भीलवाड़ा के बीच झूल रहा हूँ। यह द्वंद्व भी एक दिन अपना रास्ता नापेगा। स्कूल में हूँ कॉलेज में जाने की इच्छा है। बच्चों के बीच हूँ पर युवाओं के बीच कुछ सार्थक करने की आकांक्षा जीवित है। पीड़ित हूँ कि जितना सोचना हो रहा है उसका पावभर भी लिखना नहीं हो पा रहा। कुशल यही है कि लिखे हुए को पढ़वाना तो दिन-ब-दिन आसान ही हुआ है। स्कूल में अध्यापकी अब पहले से ज्यादा खुशी देती है।

नाथद्वारा से लौटकर आना शरीर नहीं आत्मा का स्नान था। चीज़े और देश का वर्तमान अब उतना नहीं उलझाता। गैर-ज़रूरी टिप्पणियों से बचना आ गया है। फोकस करना हासिल कर लिया है। अपनों के भरपूर प्रेम में हूँ क्योंकि नवम्बर प्रेम का महीना है। यह सालगिरह और जन्मदिन के केक काटने वाला माह है। यह बोलमा करने और उतारने का वक़्त है। यह देवता के उठने और सर्दी के जमने का मौसम है। यह अपनों को याद करने और खुद को अभिव्यक्त करने की बेला है। बीते सात दिनों में दस से ज्यादा लोगों से बतियाकर साता भोग रहा हूँ। बातों के बाद अकसर मैं अपनों के बीच बँट जाता हूँ। मुझे सूँघना है तो मित्रों को टटोलना होगा। मेरी खुशबू मैंने थोड़ी-थोड़ी अपनों में वितरित कर दी है। मिलोगे तो ठीक से जान पाओगे। ध्यान रहे यह मिलने-झुलने का महीना है। सगाई-सगपण और ब्याव-मांडे का माह भी यही कहा गया।

बच्चों से जुड़ना और अपने अंदर का बचपना बचाए रखना इस दौर के सबसे मुश्किल काम लगे। गंभीरता ओढ़ना और उसकी संभाल सरल होती गई। परिस्थितियाँ चिंतन को उकसाती रही और अपना आसपास मुझे चिंताएं भेंट करने लगा। मौलाना आज़ाद पर बात किए बगैर राष्ट्रीय शिक्षा दिवस गुज़र गया और बाल दिवस रविवार को पड़ गया। बड़े विषयों को निगलना हमारी आदत का हिस्सा होता जा रहा है। गनीमत है कि पिछले बरसों के आयोजन के फोटो और वीडियो उपस्थित थे तो उन्हीं में संतोष ढूँढ़ लिया। तब कुछ कर सके तो आज उनकी स्मृतियाँ हैं। आज कुछ सार्थक नहीं हो पा रहा है तो यह दुःख अरसे तक सालता रहेगा। अध्यापन के अलावा महात्मा गांधी पर केंद्रित सर्वोदय विचार परीक्षा के लिए तीन दर्जन बच्चों के साथ गांधी जी की आत्मकथा पर काम किया। अद्भुत आनंद मिला। नौ से बारह के कुछ नए बालक-बालिकाओं को करीब से जान सका। इसी यात्रा में वे मुझे दूजे रूप में समझ सके। लोकायत प्रकाशन और विजय मीरचंदानी ने इस बार भी पुस्तकों की 20 प्रतियां जुटाने में मदद की। सिलेबस के इतर की यह गति असली गतिविधि साबित हुई। इधर यही एक सुकून दर्ज किया जाए।

एकाकी और एकांतजीवी होना उतना भी फायदेमंद नहीं लगा कि मन की कहने-सुनने वालों का जमघट एकदम उधड़ गया। मिलना और बतियाना सुखकर होता है, यह स्मृति से जाता रहा था। पिछले सात दिन में खूब इत्मीनान से अपने वर्तमान को सुना और बखान किया। खूब सारा अनकहा कहने योग्य था जो लोगों के मन में दबा मिला। सुकून है कि सुनने का जिम्मा मैं तहदिल से निभा पाया। कम बोलना दूजों को स्पेस देना है। संवाद को सींचना है। इस बीच साथी अध्यापकों सहित विद्यार्थियों को सुना जिन्हें सुनना हमारी आदत से एकाएक गायब हो चला था। सुनने की परम्परा में अपनी माँ, पत्नी और बेटी को सुनने का अभ्यास जारी है। चित्त लगातार शांत होता जा रहा है। ठहरकर बोलना आदत बनती जा रही है। मित्रों को पूरे में सुना, जहाँ सुनना घटित होने के बाद दोस्तों के चेहरे पर अलग ही तेज़ था। वे पुलकित थे जैसे बेर आने पर बोरड़ी फूली नहीं समाती है। लुर-लुर जाती है। कॉल कटने के एन वक़्त पहले लगा जैसे उधर से आती आवाज़ से उदासी जाती रही। मिलकर गपियाने और एक दूजे को टटोलने की इस यात्रा में हम दोनों ने सहजता को करीब पाया। दोनों मतलब फोन के इधर और उधर वाला। नकलीपन से उबारने में यह सप्ताह भी कामयाब रहा। कई बार लगा कि लिखकर अभिव्यक्त होना शेष है। आनंद का वितरण आनंद में बढ़ोतरी करना हुआ। रोशनी ने रोशनी का हाथ थामा। यह हाल का प्राप्त ज्ञान है।

प्रवीण से बात हुई तो अमृत लाल वेगड़ को नवीन अर्थों में जाना। नर्मदा मैया की कथा मुझ तक बह आई। स्मृति में नदी किनारे के घाट, मंदिर, गाँव और देहाती जीवन का लोक स्पष्ट उभर आया। रत्नकुमार साम्भरिया की कहानी 'फुलवा' पर चर्चा संभव हुई। दलित साहित्य का एक लोकप्रिय नाम। कहानी की दुनिया का भिन्न स्वाद। प्रतिक्रिया सांभरिया जी को फोन कर जताई। प्रसन्न हुए। जयपुर आने का न्यौता दिया। पीएचडी के समय से ड्यू पड़ा हुआ उनसे एक इंटरव्यू करना नक्की हुआ। थोड़ा आगे चलें तो डॉ. प्रशांत से बातचीत हमेशा ग्राउंड का यथार्थ जानने में मदद करती है। उसके आंकड़े हमेशा शिक्षा जगत को लेकर झकझोरते हैं। विवरण देते हुए वह भरपूर आत्मविश्वास और गुस्से से भरा होता है। वह अपने गुस्से के जायज कारण अपने पास रखकर ही बात करता हैं। खूब पढ़ता है। यह उससे संवाद में ही जाना जा सकता है। जो सूझा-दिखा या हाथ लगा, पढ़ लेगा। अटरम-शटरम सब। अच्छे लेखन पर उसकी नज़र रहती है। उनके दोस्त उससे खाली इसलिए खार खाते हैं कि शिक्षा का होकर भी साहित्य में रमा रहता है। भाँत-भाँत का पढ़कर बड़ा हुआ है प्रशांत।

अब तक के परिचित सुनील आगीवाल जी के साथ पहली दफा आधा दिन गुज़ारा तो लगा कि कितनी सहजता से बात को दूजों के दिल में उतारा जा सकता है। बिना अभिनय किए हुए सुनील जी वाक्यों में अपनी ही भिन्न शैली विकसित कर गए हैं, ऐसा लगा। तीनेक बार तारीफ की पर वे अप्रभावित रहे। बीते तीन दशक की ज़िंदगी के सतरंगी अनुभव ने उन्हें पक्का बनाया है। राजीव दीक्षित जी, दिव्यांग बालक, अन्ना आंदोलन और आम आदमी पार्टी जैसे कई मंचों के अनुभव से लबरेज़ सुनील जी। फिर प्रयास वाले डॉ. नरेन्द्र गुप्ता जी से अरसे बाद मुलाक़ात हुई तो समाज को विदेश सहित भारतीय सन्दर्भ से देखने की दृष्टि मिली। उनके कई तथ्य चौंकाने वाले थे। उन्हें देर तक देखता रहा। युवावस्था में देवगढ़ के आदिवासी इलाके में बिना बिजली के गाँव में ग्यारह साल के उनके वास पर भी चर्चा हुई।

बातों का सिलसिला अभी थमा नहीं था। बच्चों के सबसे करीब रमेश दादभाई से बहुप्रतीक्षित संक्षिप्त बात भी उनके काम को मुझ तक ले आई। फोन किया। उधर से नमस्ते सर या ज़िंदाबाद जैसा कुछ सुनाई दिया। मैंने एक चुटकुलानुमा पुछल्ला सरकाया और वे अपने असली अंदाज़ के साथ देर तक हँसे। यह हँसी अब बाड़मेरी हवा में ऑक्सीजन बढ़ाती है। चित्तौड़ में उनका मन रह गया बस। कइयों के मन यहीं हैं। बातचीत से लगा कि बाड़मेर जैसे खुद चलकर चित्तौड़ आ गया। नंबर घुमाते ही उधर से आवाज़ आई। मैं अभी आपको ही याद कर रहा था। टेलीपैथी सरीखा लगा। मतलब याद का समंदर खाली एक किनोर पर ही शोर नहीं मचाता है।

भाई अशोक जमनानी से देर तक बात करके हम एक दूजे को विश्वास देते हैं। लगता है कि हम पर दुनिया का अभी उधार बाकी है। हमारी बातों के बीच स्पिक मैके और किरण दा पर बात हुए बगैर अधूरा ही लगता है। आंदोलन के वर्तमान पर फ़िकर करते हुए हम दोनों कई बार एकदम चुप्पी में खो जाते हैं। सूरज पारीक से चर्चा उच्च शिक्षा का कच्चा चिट्ठा सामने लाती है। मनीष रंजन जी का फोन आश्वस्ति जगाता है। मैना से बातचीत मेरे भीतर के लोक को फिर-फिर ज़िंदा करती है। उससे बात की शब्दावली में एक देशज गंध व्यापती है। मोहम्मद हुसैन डायर का भीतरी अध्यापक रूप प्रेरित करता है। निराशा में इन्हीं सभी से ऊर्जा बटोरकर आगे बढ़ता रहा हूँ। जितना आभार मानूं कम जान पड़ता। कुछ संज्ञाएँ ऐसी हैं जिनसे बात नहीं करके भी उनके मन को पढ़ता रहा हूँ। जितेन्द्र यादव, राजेश चौधरी, गोपाल गुर्जर, संदीप और बलदेव महर्षि। मैं इन सभी राशियों के योग से निकला हुआ औसत हूँ।

बीते दिनों सुशीला टाकभौरे जी से दो मर्तबा संवाद हुआ। फोन करके देर तक बात करती रहीं। सुशीला दीदी कहकर पुकारता हूँ। हाल के सेमीनार सहित इन दिनों के अनुभव मुझसे खुलकर साझा करती रहीं। साक्षात्कार की किताब आने वाली है। अब डायरी पर काम करेंगी। आत्मकथा का दूजा भाग लिखने का बड़ा मन है बस एक लंबा अंतराल पाने को तरस रही हैं। हालांकि गिरस्ती और उम्र उतनी सहायक नहीं है। टाइपिस्ट उनकी मेहनत के साथ चल नहीं पाते। मराठी इलाके से हैं तो उत्तर भारत के प्रकाशकों के साथ फॉण्ट, प्रूफ और पांडुलिपि के टंटे हैं। प्रकाशन समूह के लम्बे-लम्बे एग्रीमेंट उन्हें असहज करते हैं। बोलने में बेबाकी पर कायम हैं। नोट्स लेना सतत है। लगातार देख-समझ रहीं हैं पर कई चीजों पर बोलने का अवसर खोज रही हैं। मेरे शोध करने से लेकर अब तक मुझे बड़ा आशीष देती रहीं। हमारे बीच की सहजता बातचीत का प्राण तत्व अनुभव होती है। सलाह लेती-देती हैं। एक अलग किस्म का दिली संतोष है। मैं उनकी जिजीविषा और लेखकीय दायित्व को सलाम करता हूँ। अपनी माटी में उनकी आत्मकथा पर केन्द्रित कुछ लिखने का मन बनाया है। ठहरकर और जमा जमाकर उन्हें बोलते हुए सुनना बहुत प्रीतिकर होता है। दौड़ने के वक़्त में उन्हें कोई जल्दी नहीं है। कहती हैं सौ तो नहीं पर नब्बे तक जीना चाहती हूँ। कुछ काम शेष है उन्हें डूबकर साधना है।

:-माणिक

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