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13 जनवरी, 2022

कल बच्चे खेलेंगे तो हम ठीक से अपने बचपने में लौट सकेंगे।

 बसेड़ा की डायरी, 13 जनवरी 2022

जाना और भीतर से गुना तो काम बढ़ गया ऐसी अनुभूति हुई। विद्यार्थियों को ज़िन्दगी देना और मानव बनाना बड़ा काम है। अपनी अयोग्यताओं के साथ स्कूल परिसर में घुसना बेमानी लगने लगा है। कल शाम 'गूगल मीट' पर उत्तराखंड में 'दीवार पत्रिका' को अभियान का रूप देने वाले ख्यात कवि और आन्दोलननुमा व्यक्तित्व महेश पुनेठा को सुना। क्या जबर इंसान हैं। विचारों से लकदक। एकाएक विचार कौंध गया कि कवि के भीतर एक शानदार अध्यापक बसता है। नौवीं से बारहवीं के बच्चों में जमकर काम करने की उनकी अदा पर फिदा हुआ। बोलते हैं तो लगता है पहाड़ से नदी निकल रही हो जैसे। धीरज और शालीनता अटूट। उस ऑनलाइन सभा में मैं बाहरी था। बिना बोले केवल श्रोता की भूमिका निभाई। सभी बच्चे थे जो सम्पादन की बारीकियां सीखने को आतुर हो उपस्थित थे। पहाड़ों ने दिल जीता। निष्कर्ष के करीब पहूंचा कि मैदानों में ऐसा काम सम्भव है। लगा कि भाषा के अध्यापक होने के नाते कभी इधर भी दीवार पत्रिका निकलेगी। रात में उसी भाव को बरक़रार रखते हुए 'शिक्षान्तर' यानी 'स्वराज यूनिवर्सिटी' उदयपुर की रेवा जी और साथी मनीष जैन की टेड-टॉक सुनी। अंग्रेज़ी में थी। दिमाग ज़ोर मांगने लगा। रुचि थी तो अंत तक सुन सका। हिंदी पढ़ना ही सहजता उपजाता है पर अंग्रेजी से परहेज़ नहीं पालता।

फेसबुक स्क्रॉल करते वक़्त याद रखकर सत्यनारायण जी की 'कथादेश' में हर महीने छपने वाली डायरी पढ़ता हूँ तो कथ्य और शिल्प में डूब जाना तय होता है। खुद की लेखनी फीकी जान पड़ती है। लिखने में अचानक अंतराल आ जाता और सोचने में गहराई समय माँगने लगती है। मेरे लिए सत्यनारायण जी जैसा गद्यकार होना शेष है। इस यात्रा में कोटा वाले अम्बिकादत्त जी की दाद मिलती है तो फिर कलम उठाना सम्भव लगता है। रत्नकुमार सांभरिया जी की कहानी 'चमरवा' पढ़ी। देर तक रोया। आत्म को छूती हुई कथा। उनकी कहानियों ने मुझमें कथा साहित्य के प्रति रूचि जगा दी है। 'चमरवा' में आया विषय एकदम अछूता था। न देखा न सुना। अचानक मरी पत्नी 'नोना' को घर में अकेला उपस्थित पति 'दरपन' कैसे नहलाकर अंतिम संस्कार के लिए तैयार करता है। पीड़ादायक दृश्यों का धारावाहिक वर्णन लगा। रोते हुए पढ़ने के अलावा चारा नहीं था। लिखता हूँ पर पढ़ना ऊर्जा देता है। जिन दिनों पढ़ना घटित हो पाता है, मैं उड़ा-महसूसता हूँ। ज़मीन से दो अंगुल ऊपर। शेष ऊर्जा पाठकीय टिप्पणियों से जुटाने का आदी हो चला। 'हंस' पत्रिका में पल्लव भैया का कथेतर पर आलेख पढ़ा तो सत्यनारायण जी व्यास की आत्मकथा पढ़ने की ललक जाग उठी। एक ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर मन्नू भंडारी जी के लिखे संस्मरण 'कितने कमलेश्वर' की भाषा पर मन आ गया। जाना कि कितनी तरह से संस्मरण लिखे जा सकते हैं। अखिलेश जी का 'वह जो यथार्थ था' चल ही रहा है। कई चीजें एक साथ पढ़ने की आदत रही है। जानता हूँ कि अपनी गाड़ी धक्का-परेड है। येनकेन खुद को खड़ा करता हूँ और बच्चों के बीच खड़ा हुआ दिखता हूँ। इस तरह फेसबुकी पोस्टों के टुकड़े पढ़कर अपने लिए चादर सिलता-बिछाता हूँ। ज़रूरत और सामर्थ्य से बेहद कम पढ़ पा रहा हूँ। भीतरी कमजोरी भीतर से काटती है। उपन्यास के हाथ लगाने की हिम्मत नहीं रही। कवितायेँ हमेशा बुलाती रही हैं। जाने कैसे अब की बार अरसा हो गया।

जीवन विद्या में भी संगीत को लेकर चर्चा शून्य के बराबर हाथ लगी तो दृष्टि नहीं बन पा रही थी। कुछ खुदाई की तो जाना कि इस दर्शन के प्रणेता आदरणीय ए. नागराज जी खुद वीणा बजाने के शौक़ीन थे। राग 'तोड़ी' उनका प्रिय राग था। हाँ, सोम त्यागी जी की रूचि संगीत के बारे में नहीं के बराबर है, ऐसा उन्होंने ने पुष्कर में उत्तर देते हुए बताया। द्वंद्व के बीच मेरा क्लासिकल म्यूजिक छूट सा गया था। इसी सोमवार से फिर लगाव बनाया है। भाईचारा ऊंचाई की तरफ है। समझिएगा की आलाप चल रहा है तो देखो कितना लंबा समय लेता है। सुबह सुब्बुलक्ष्मी जी को मीरा भजनों और पंडित भीमसेन जोशी जी को मराठी अभंगों में सुना। इन दिनों सितार ज्यादा लुभा रहा है। शाहिद परवेज़ साहेब अपनी पहली पसंद है। दर्जनभर सितार वादक सूची में हैं वैसे। यह सब मेरे सोचने और जीने में लय पैदा करता है। म्यूजिक मेरी समझ की बढ़ोतरी में रामबाण है। हार जाता हूँ तो मुझे यहीं से हौसला मिलता है। राह टिमटिमाती है। संबल का हाथ नज़र आता है। फ़िल्मी गीतों का भी आभार मानता हूँ पर शास्त्रीय और लोक की गूँज ज्यादा मादक है। तंदुरे पर कबीर सबसे ज्यादा जचता है। दसेक लोक गायक होंगे जिनके मार्फत कबीर में डूबता रहा हूँ। म्यूजिक खाली मनोरंजन तो नहीं ही लगा। यह कोई विशेषता लिए हुए है जो मुझे मेरे अधरझूल से उबारने की हिम्मत रखता है।

कल मकर सक्रांति है तो आज खेल मैदान तैयार करवाया। छुट्टन जी, सेंगर जी, भैरू लाल जी और अमर जी सभी माड़साब आ जुड़े। बसेड़ा के भाई दिलावर जी आंजना ने आगे होकर वॉलीबाल और बेडमिन्टन का एक सेट भेंट किया। बच्चे खुश। नेट आ गयी, बॉल, कॉक, रैकेट्स आ गए और क्या चाहिए। सुबह ग्यारह से दोपहर की एक बजते-बजते मैदान में बच्चों ने रेत बिछा दी। आँगन में हो-हल्ला गूंजते देर न लगी। अंकित और हर्षित किसी दादभाई का ट्रैक्टर ले आए। हर्षित ने पूरे आत्मविश्वास से मैदान में पसरी सारी गिट्टी ठिकाने लगा दी। बाकी ने तगारियां और फावड़े से ढेर समतल करने में पूरी हिम्मत लगा दी। नेट बांधी गयी। खेल शुरू हुआ। आनंद की सीमा न रही। कैलाश जी और भागीरथ जी ने भी शॉट लगाने में हाथ आजमाए। आज स्कूल आसमान में था। लगा कि स्कूल खाली किताबों तक सिमित नहीं होता। पढ़ने को परीक्षाओं तक मान लेना भूल है। मैंने नौवीं से बारहवीं की बालिकाओं को आज 'सत्यमेव जयते' के एक घरेलू हिंसा केन्द्रित एपिसोड को दिखाकर उन्हें कमला भसीन जी से मिलवाया। कमला जी की स्मृतियाँ ही शेष हैं मगर वे आज फिर जी उठी। बसेड़ा की बच्चियों ने उन्हें सुनकर 'जिंदाबाद' बुलंद किया। स्कूल में विद्यार्थियों के मन का होता है तो वे अपना सौ प्रतिशत देने में जुट जाते हैं। न कहने की ज़रूरत रहती है न डाटने-डपटने की। भारी ठिठुरन के बावजूद बाज़ार जाकर सक्रांति के निमित्त पहली से आठवीं के लिए छोटी-छोटी गेंदें, रिंग्स, कूदने की रस्सियाँ, एक और बेडमिन्टन सेट खरीद लाया। कल बच्चे खेलेंगे तो हम ठीक से अपने बचपने में लौट सकेंगे।

-माणिक

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