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31 अक्टूबर, 2010

किले में कविता:'कौन खबर ले किले की'

अतिथि को दिखाने के काम आता था
किला हमारे शहर का
विचार नकली था मगर
बरसों बना रहा अटल
पुरखों से हमारे घर में
कभी कभार बन जाता था ढ़ाल
मुसीबत और दूजे देश में
यही किला काम आता था 
समझा नहीं बरसों तलक
धोकता रहा नकली देवरा
शहर के सेठ,मॉल,बाज़ार और नेता
ढूँढता रहा इन्हीं में इतिहासी पहचान
मिट गई गफलत उबर गया अब
केमरे  के क्लिक से आगे
उसकी भी है जिन्दगी
देर सवेर अब बुद्धी आई
जो खुल्ले आम सांस लेता है
पहाड़,परकोटा है जिसकी शान
आज़ाद है,मस्तक है मेरे शहर का
हाथ फिराया इधर उधर तो
कांखदबा हीरा लगा मुझे
हाल ना पूछो उस किले का
तौड़मरोड़ का झूठ नहीं ये
खबर नहीं अखबारी
नहीं रपट सरकारी भैया
लागलपेट के बिना लिखा है
राजा रानी रहे नहीं है अब
रहा भरोसा प्रजा का
सिसकियाँ भरती हैं दिवारें
मौन धरे दीमक लगे दरवाज़े
अरसा हो गया
तालों में चाबियाँ नहीं डाली
पुराने प्लस्तर में जकड़ी बैठी
जंग खाती हैं खिड़कियाँ
टूटफूट हो जाए थोड़ी और
फिर आना मेरे शहर भैया
दिखने लगे दरारें मुंह फाड़ती
और गिर जाए आजुबाजु की दीवार
तब आना और भी फबेगी
इमारतें इस किले की
खुद ही आगे हो बोलेगी
उगलेगी अपना इतिहास खुद ही
पढ़ना पड़ेगा द्विभाषी साइन बोर्ड
गरज रहेगी
ज़बरन लपकते गाइडों की
पढ़ कर मत आना कुछ भी
किला खुद बोलता है मेरा
एक बानगी लिखता हूँ
''फुरसत ही कहाँ मिलेगी
हो जाओगे मशगूल यहाँ आकर
रम जाओगे गफलत में
घुड़सवारी,ऊँटसवारी,फोटो खिंचाई
रस्में कई निभानी तुमको
चने खिलाना भूल जाना
तुम्हारी जोहते होंगे बाट यहाँ
बन्दर,कुत्ते और मछलियाँ
पूछ लेना भैया जाते जाते
हालचाल कुछ मेरा
वक़्त और शर्म अगर बचे बाकी
कह सकता हूँ तुमको केवल
तुम ठहरे हो पराए
अपनों की क्या बात करें अब
तुम तो सब कुछ जानो
घर से दूकान,दूकान से घर
अब कौन खबर ले किले की ''

(ये कविता चित्तौड़ दुर्ग के रतन सिंह महल में मेरे भ्रमण के दौरान उपजे विचारों पर आधारित है )

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