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30 दिसंबर, 2011

चमकी महल की दिवारें


चमकी महल की दिवारें

सांप,अजगर,बर्रे और तत्तैया
बसते थे जहां घर समझ कर
मजदूर घास काटते रहे दिनभर
अब मैदान साफ है वहाँ
पाईप लम्बे करते रहे पानी के
बाल्टियां भरकर सिंचते रहे बगीचा
कुए की चड़स तक जा चलाई
तब चमकी महल की दिवारें
दालान और गलियारे
रंगीनियाँ बढ़ गई बगीचे की
सब कुछ लेकिन बन गया
जंगल में नाचा मोर
हकीकत कौन जानता है
नहीं खुदेंगे शिलालेख
ना बनेंगे ताम्रपत्र
उनकी साहसिक लगती दिहाड़ी पर
भर तो दी है हाजरी सुपरवाईजर ने
सबूरी है इसी में उन्हें
साफा कोई और पहन गया
रिब्बन कोई और काट गया
मोली बंधन खोल गया कोई और
उनको तो बस खुशी थी
लड्डू बंटने की
 रास आई उन्हें तो बस
उदघाटन के एवज में मिली छूट्टी
कसीदे पढ़ने वाले भूल गए
बेवई पड़े पैरों की मजदूरी
नहीं दिखी कहीं समारोह में
सोच यही आज फिर से आया
किले के विरान महल में
बतियाने बैठा कुछ देर
उन रस्सियाँ बाँधते,मचान बनाते
उपर तक पोतने वाले कारीगरों से
घोखड़े पोछती उन महिलाओं
का मन हल्का कर आया
रामा,हुकमा और किशना
जैसे उनके नाम थे शायद
बदामी और रामकन्या
ईंटे ही भरती रही तगारी में
कुछ करीब से लगने लगे वे लोग
एराल सूरजपोल,गोपालनगर
गाँव के मजूर
जो रहते दिनभर महलों में
और रात बिताते बस्ती में
रहरह कर याद आते हैं
फटी दरारें फिर से मुंदते
उखड़ी दिवारें फिर से चुनते कारीगर
अब जाकर कुछ चालाक हुए
वे अब देखते नहीं सपने
शिलालेख और ताम्रपत्रों के
कि लिखा जाएगा उनका भी नाम
अब दिल केवल दिहाड़ी में लगता है
ये इमारतें अब महल नहीं लगती
गरीबी में धंसी उन आँखों को
दिखता है
मजुरी का मेहनताना
बात जोहते हैं सूरज ढलने की
जो पकाता है मजदूरी
और जलाता है चूल्हा
ये हद थी आखिर
लगाते कब तक दिल अपना
किले,महल और दीवारों से
जहां मिलती है खाली मजुरी

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