काम सभी निबट के बैठा है किसान खेत की मेड़
बादल देखे कभी वो साहस नापे अपना
याद उसे है आज भी बीता साल वो खाली-खाली
मंडराया महाजनी ब्याज दाने-दाने बारह माह
आस लगाई है अबकी भी लाज बच निकलेगी शायद
बिगाड़ता रहा है ये ''शायद'' ही अब तक मेरे सारे काम
बारिस भी अब तो शायद पर जा रूकी है
जाने वो क्या इस तरसती मेड़ का दुःख
जो खाते और लेते है गेहूं पैसे देकर
यहाँ जान खपती है,पसीना गढ़ जाता है
तब कुछ ज़मीन के उपर आता है
मेहनत की हद देखी है उसने
जो बैठा है आज फिर से मेड़ पर
साथ है उसके बाल-बच्चों की मां बस
दिलासा देते चातक थे कुछ
कुछ याचक थे साल पुराने ब्याज वाले
फंसा हुआ था इसी बीच वो
चिंता की डोर थामे
यही नियती बनी रही तब भी
और अब भी ..............
"यहाँ जान खपती है,पसीना गढ़ जाता है
जवाब देंहटाएंतब कुछ ज़मीन के उपर आता है
मेहनत की हद देखी है उसने
जो बैठा है आज फिर से मेढ़ पर "
समसामयिक रचना मानिक भाई ! हम किसानो को तो हाशिये पर रख दिया गया है ! खेंतों के लिए कहाँ बची हैं संवेदनाएं ! दुआ है इस बार आसाढ़ के बादल ना तरसायें खेत और मेढ़ के लबों को !
बहुत संवेदनशील रचना
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