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01 जून, 2021

बसेड़ा की डायरी : देहाती स्कूल में अध्यापकी के अपने सुख और सुविधाएँ हैं।


बसेड़ा की डायरी, 1 जून 2021

देहाती स्कूल में अध्यापकी के अपने सुख और सुविधाएँ हैं। एक अनुमान कहता है कि न्यूनतम में अधिकतम देने का चैलेंज है यह नौकरी। परिवेश पढ़ाने से ज्यादा सीखाना माँगता है। मास्टरी यानी बच्चों की पूरी देखभाल। नतीजतन दोहरे दायित्व और चौगुने अनुभवों से लबरेज हो गयी है हमारी अध्यापक-बिरादरी। माड़साब रात में शहर को जी लेते हैं और दिनभर देहात। आपबीती से कहना यह है कि विद्यार्थियों के लोक को समझे बगैर उन पर काम करना कम असरकारी रास्ता है। परिदृश्य की सही समझ का आधार वहाँ का लोकेल होता है। गाँव को उलांघकर बच्चों में परिवर्तन टेड़ी खीर है और नासमझी भी। अभिभावकों का काम-धंधा, खेत-खलिहान में भागीदारी, बस्ती की बसावट, आस्था के घट-पनघट, मोहल्लों का माहौल, परिवारों की आपसदारी, मौत-मरण में हमदर्दी की परम्पराएँ, मुंडन-नांगल के गीत, गाँव की पथवारी और नौरतां उठने का ठाठ। देहात को जानने-समझने की राह इन्हीं से होकर गुजरती है। अध्यापक भी अपने हिस्से का गाँव गूंथते हैं मगर गाँव की नब्ज टटोलने के बाद काम का आगाज़ ज्यादा फलदायी होता है।

देहात में अब भी मुद्दों पर एका संभव है। पंचों की पंचायत कुछ-कुछ ज़िंदा है। अब भी रात में रेड़ पड़ती है यहाँ। वैसे देहात में बहुत सी रीत-भाँत अब अपने होने की अंतिम घड़ियाँ गिन रही हैं। फिर भी कुछ हद आज भी जाजम के कहे पर गाँव वाले बिना ना-नुकर चल पड़ने के अभ्यस्त हैं। बच्चे अठारह घंटे तीस मिनट स्कूल से बाहर रहते हैं। स्कूल अपने साढ़े पाँच घंटे की सीमा में बंधा है। विद्यार्थियों पर घर-गुवाड़ और शाम-सवेर के बाल-सखाओं का अपना असर रहता है। शिक्षा में यह सारे दृश्य अंदाज़ फेल होने के लिए काफी है। उधर देहात को समझने में असफल होती किताबों की दुनिया का अपना मजबूत इतिहास रहा है। साक्षी और शुभम की दुनिया का सच थॉमस और टॉम के सत्य से मेल नहीं खाता। जरमरी और आकड़े के पौधों से लैस यह जगत न्यारा है और बोगोनविलिया सहित एरिकापाम की वो सत्ता अलग। कोरोना-काल के सघन सर्वे वाले अवसरों का शुक्रिया कि माड़साब ने अपने चेले-चपाटियों के केलूपोश घर-संसार को नजदीक से निहार पा रहे है।

बसेड़ा बहुत सुंदर गाँव हैं। सामाजिक ताना-बाना इसके कुशल-मंगल का संकेत देता है। पंचायत में तीन गाँव हैं। बसेड़ा के अलावा पहला खेड़ी आर्यनगर जहाँ पाटीदार बहुल बस्ती है। दूजा महीनगर-गोल मगरी भील बहुत बस्ती। अरे याद आया कि प्रतापगढ़ जिले का जवाहर नवोदय विद्यालय बसेड़ा में ही गोलमगरी हाई-वे पर बनकर तैयार है। बसेड़ा के लिए अब यह नयी और लगभग स्थायी पहचान है। बातें बसेड़ा की होगी तो इसके विशाल तालाब का जिक्र आयेगा। एकदम ऊँचाई की आतमणी दिशा में पोखरा है और उगमणी दिशा में गाँव शुरू होता हुआ ढलान पर तालाब के सहारे-सहारे बाड़ी की तरफ बढ़ता है। गलियाँ मोहनजोदड़ो की तरह समकोण पर नहीं काटती। रास्ते आड़े-अंवले हैं। तंग और उबड़-खाबड़ थे पर सरपंच साहेब ने सीसी करवा कर निहाल कर दिया। पुरुषोत्तम जी मीणा उर्फ़ पुष्कर जी काम के बूते दूसरी बार फिर सरपंच चुने गए। पुष्कर जी युवा, मेहनती और सहज हैं। बसावट एक नज़र में देखें तो पहाड़ी ढलान हैं। उपरले हिस्से में मीणाओं के मकान ज्यादा फैले हुए हैं तो निचले परिसर में आंजनाओं की बस्ती है। सरकारी स्कूल में एक से बारह तक की कक्षाओं में ढाई सौ बच्चे पढ़ते हैं। जब स्कूल खुलता और बंद होता है तो गलियाँ आबाद हो उठती है।

कई जातियों का बसेरा है बसेड़ा में। मेघवाल, कुम्हार, धोबी, भील, नाई, कलाल, दरजी, लुहार, कीर, कहार, हरिजन, सुथार, भाट, ब्राह्मण, राजपूत, जैन, बलाई और मुसलमान। दो मोक्षधाम हैं और दो आटा चक्की। तीन डेयरियाँ और दर्जनभर किराना व्यापारी। सरकारी सब सेंटर पर हेमलता नर्स बैंजी हैं और एक विश्वास भाई बंगाली डॉक्टर। निजी स्कूल के नाम पर आठवीं जमात तक का राजस्थान पब्लिक स्कूल है जिसे गोपाल जी पाटीदार सादड़ी से आकर चलाते हैं। सब में मेलझोल से अच्छी निभती है। आपसी हौड़ाहौड़ है पर उतनी नहीं कि घोड़े फूट पड़े। चुनाव आयोग की सूची में गाँव को भले अतिसंवेदनशील मान रखा हो मगर नागरिकों में अमन कायम है। पंचों की समझ इतनी साफ़ और सुकुनदायक है कि गाँव की राजनीति स्कूल में नहीं चलाते। यह अनूठापन देहाती स्कूल के पल्लवन का प्राणतत्व है। शुक्रिया बसेड़ा।

अंत में बसेड़ा के मोहल्लों का जिक्र करना ज़रूरी है जहाँ से बच्चे थैले-पाटी टाँगकर निकलते हैं और स्कूल की फाटक को आकर चुमते हैं। उपरला चौराया, निचला चौराया, नीम चौराया, फाटक चौक, मठ चौक, घट चौक, मोती मगरी, ढाबा माता चौराया, खाखर बावजी चौराया, स्कूल पाचे, बामण वल्ला निचे। वही लिखा जो बोल के शब्द हैं। यहाँ की ज़बान पर जो चस्पा है वही उकेरा है। गाँव वालों की आस्था का अपना लोक है। यही उनके जीवन का अभिन्न हिस्सा और उनकी शैली का आधार है। ऐसा लगा कि कई देवरे और शक्तिपीठ गाँव को थामकर चलते हैं। स्कूल में दो मूर्तियाँ हैं। पुरुषोत्तम जी सरपंच साहेब ने अपने पिताजी की याद में एक सरस्वती जी का मंदिर बीते साल ही बनवाया। दूजा प्राचीन हनुमान मंदिर। स्कूल के एकदम बाहर मामा देव का मंदिर जिसे खाखर देव भी कहते हैं। मठ चौराहे पर गोदड़ बावजी का स्थान हैं। प्राचीन कथा के अनुसार कहते हैं कि सालों पहले आंजना समाज के एक ज्ञानी पुरुष ने यहाँ ज़िंदा समाधी ली थी। यहीं अब एक शिवालय है जिसे गाँवभर के लोग पूजते हैं। महाशिवरात्रि पर विशेष ठाठ उपजता है। रतजगे के बाद खीर बाँटी जाती है। आंजना समाज का विशेष आराध्य स्थल है। राधा कृष्ण का मंदिर गाँव के अधबीच स्थित है।

बसेड़ा में एक आकर्षण रेबारी बावजी है। रेबारी जाति के लोग अपने ऊंटों सहित सपरिवार बहुत बड़ी संख्या में साल में किसी दिन विशेष यहाँ आते हैं। रातिजगा लगाते और भजन-भाव करते हैं। जागरण की अगली सुबह बहुत बड़ा जीमण होता है। बसेड़ा के गाँवभर को चुल्हानूत बुलाया जाता है। रेबारी बावजी का थान तालाब के दूसरे छोर पर दूर तलहटी में है। एक और नया मंदिर अभी बन रहा है शिव-पार्वती जी का। वल्ली वाले कुए के पास। वैसे गाँव में कई शिव मंदिर हैं। शिव के भक्त ज्यादा हैं। उपरला चौराहा और ब्राहमणों के मोहल्ले में भी शिवालय हैं। तालाब के किनारे ढाबा माता का मंदिर है जहाँ शीतला माता जी की भी पूजा होती है। ऊपर की तरफ ही खाखर बावजी अलग से हैं। तालाब की ही किनोर पर खेड़ी माता भी प्रसिद्द है। इन सभी के अलावा सभी के खेतों में अपने-अपने देवता और पुर्बज-पथवारी माता अलग से है हीं। बहुत अद्भुत दुनिया है। देहात में यह बहुत आम है। अंत में अध्यापक मित्रों को यही कहना है कि बच्चों को पढ़ाने से ज्यादा बच्चों को जानना ज़रूरी है।

डॉ. माणिक(बसेड़ा वाले हिन्दी के माड़साब)

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