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31 मई, 2021

बसेड़ा की डायरी : अभी देर है मगर एक दिन तितली उड़ेगी।

बसेड़ा की डायरी, 31 मई 2021

इन दिनों जीवन परीक्षा में आए उस प्रश्न की तरह व्यवहार कर रहा है जिसका उत्तर आते हुए भी हमसे देते नहीं बन रहा है। परीक्षक की नज़र परीक्षार्थी को ऐसे घूर रही है जैसे वह कारतूस छिपाकर बैठा हो। जीवन को बाँचना पोस्टकार्ड पढ़ने की तरह सरल नहीं रहा अब। सभी अपने भीतर और बाहर की भिन्नता को लेकर खिन्न हैं। जीवन क्या हो गया है, परिवार में चार के बीच के टूथपेस्ट जैसा कुछ जिसे सभी अपने हिसाब से पिचका रहे हैं। ज़िंदा बचे रहने की एक परिभाषा यही रह गयी है कि बहुत करीब के लोग सहसा मर रहे हैं और हम निर्लज्ज पानी-पतासे, बेसन चक्की और बालूशाही बना रहे हैं। इतनी संकड़ाई पहले कभी नहीं रही। मन में भी घर में भी। करुणा-हमदर्दी सफाचट। घर में बुजुर्गों की तरह सुन-देख पा रहे हैं बस जता नहीं पा रहे। ‘भाटाचोट’ हो जाना यही दशा है। ज़िंदगी को जितना समझता हूँ कहना चाहता हूँ कि प्राइवेट नर्सरी से ख़रीदे उन विदशी पौधों की तरह गति हो गयी है जिन पर फूल आने का वादा था मगर आए नहीं। अतीत का एक दृश्य जीवंत हो उठा जहाँ कभी यूं भी लगा कि जीवन पेन की उस नली का-सा हो गया है जिसने अचानक स्याही टपकाना बंद कर दिया है और लड़का नीब खोलकर पीछे से फूँक मार रहा है। हाथ सहित शर्ट पर गाढ़ी नीली स्याही के धब्बे बिखर चुके हैं। सब छापक-छल्ले की तरह बिखरा हुआ। पेन रगड़ने के निशान भोगता कागज़ लड़के पर हँसना चाहता है मगर डरता है। मनुष्य पहली दफ़ा पिंजरे के आभास से भेंट कर रहा है।
 
अभी देर है मगर एक दिन तितली उड़ेगी। कलेक्ट्रेट चौराहे पर पूर्णिमा के समोसे फिर से मिलने लगेंगे। गुड्डू भाई कचोरी वाला के यहाँ फिर से लोग अंगुलियाँ चाटेंगे। निराशा भाड़ में जाएगी और मिठाई वाली गली के रस्तोगी की गुजियाँ खरीदकर हम अपने रिश्तेदारों को उपहार भेज सकेंगे। अपने-अपने गमलों में आस के फूल लगाएँ। होगा एक दिन ज़रूर होगा। हम चार यार नेहरू गार्डन के बाहर बर्फ वाली रबड़ी की कुल्फ़ी के चटकारे लगाएंगे। स्कूल में फिर से टिफिन खुलेंगे और मेज पर सब साथ बैठ जीमेंगे। थोड़ा ठहरिएगा बहुत जल्दी थेपड़ियों का जगरा चेतेगा। गोमुख में छलांग और हाथीकुंड में तैराकी संभव हो सकेगी। पाडनपोल वाले झरने पर जमघट लगना तय है। इंदिरा गांधी स्टेडियम में दौड़ और गोरा बादल में क्रिकेट को जीवनदान मिल जाएगा। सब्जी मंडी फिर से सब्जी-मंडी जैसा स्वर देगी। पूरी गर्मियों में ननिहाल नहीं आ सकने वाले बच्चों की याद में उदास रहे सार्वजनिक फ़व्वारे फिर थिरकेंगे। चौपाटियों को उनके मुरीद मुबारक होंगे और मधुशालाओं को शाकी। शादियों के मुहूर्त पीहर-ससुराल-ननिहाल सहित अड़ोस-पड़ोस में रौनकें बाँटेंगे। बेस्वाद जीवन में फिर से वही स्वाद आएगा। एक दिन।



माड़साब जिस दिन डायरी नहीं लिख पाते उस दिन खाटी-छाछ वाले पांतरे की तरह विचारों का दही जमाते हैं। लिखे की ईमारत अनुभव की नींव पर खड़ी होती है। पाठकों से बातचीत बीते दिनों के लिखे की विचार प्रक्रिया को आगे बढ़ाती है। डायरी छपने के बाद आठों दिशाओं में गति करती है। एक का विचार सभी का हो जाता है। अच्छे का प्रसारण सुख देता है। गलत का फैलाव अपराधबोध। लेखक लिखकर के बरी नहीं हो सकता। जवाबदेही बढ़ जाती है। दौसा में संस्कृत के सहायक आचार्य रामखिलाड़ी मीणा ने देर तक बात की। पुरानी परिभाषा फिर दोहराई जानी थी कि मित्र के मित्र भी मित्र होते हैं। साहित्य-संस्कृति के फिल्ड में यह गुणा ज्यादा तेज़ी से काम करता है। रविन्द्र पुरोहित भैया ने एक दो डायरियाँ भेजी जो उनके किसी परिचित साथी ने अपने किसी ख़ास दोस्त के निमित्त लिखी थी। साहित्य इस तरह बात को बिछाता है। बिठाकर संवाद संभव करता है। अंत में डोर से डोर में कसावट आती है। एक आशावान से मुलाक़ात दूसरे की अँधेरी कोठरी में उजाला धर देती है। बड़े-बूढों ने कहा है बात से बात निकलती है। दिल की मुश्किल महफ़िल में न सही एकेले में दोस्त से कहिए। हाँ याद आया, लेखक सिर्फ डायरी के लिए दिनभर नोट्स ही नहीं लेता अपने स्कूल के वेतन बिल बनाता-बनवाता है। सत्रह तरह के पोर्टल लोग-इन और लोग-आउट। दुनियाभर की दूजी तरह की जिम्मेदारियां। लेखन-पठन से एकदम उलट किस्म के कामकाज को अंजाम देता है। डोंगल के पासवर्ड याद रखना, पासवर्ड री-सेट, सर्वे के लिए एक्सेल में शोर्टिंग, बिलों का प्रिंट आउट, डिजिटल सिग्नेचर यही तमाम माथापच्ची। इनसे बचने के बाद डायरी का नंबर आता है। असल में हम बचे-कुचे लेखक हैं। 


लेखाजोखा जारी है। कोरोना की ड्यूटी में सर्वे के आंकड़ों की कंप्यूटर फीडिंग। उबाऊ मगर बेहद ज़रूरी। ग्राम पंचायत के पाँच वार्ड। हरेक वार्ड में तीन-तीन कार्मिक। सवेरे की सात से भरी दोपहरी तक। दो दिन का सघन सर्वे। घर-घर की छानबीन। कोरोना का टीका लगा कि नहीं जैसी पूछ। कुल जमा पैंतालिस से ऊपर के आठ सौ सात नागरिक। पौने दो सौ आदमी तो अब भी ऐसे निकले जिन्होंने पहला टीका ही नहीं लगवाया। अफवाहों के बूते फ़ैल चुका अनजाना भय कहें या बेपरवाही की हद। आंजना, पाटीदार और मीणा बहुल ग्राम पंचायत ठहरी। भील, रावत, धोबी सहित अन्य कई जातियों का स्थाई वास। गमेती, बारेठ, हरिजन, मेघवाल, धोबी, मीणा में से अधिकाँश ने कोविशिल्ड की अभी पहली सुई भी नहीं लगवाई। आंजना और पाटीदार में जागृति ज्यादा है। मीणा भी लगातार आगे बढ़ रहे हैं। बीमारी से निजात के रूप में फिलहाल अचूक माने जा रहे इस टीके की दोनों डोज लगा चुके व्यक्तियों का आंकड़ा अभी दो सौ पर ही अटका हुआ है। इलाका बारीक काम और मेहनत मांग रहा है। अच्छी बात यह कि दिखती आँखों अब न रोग है न रोगी। 


सर्वे बाबत आँकड़ों की फीडिंग में ग्रामीण परिवेश के कई नाम आकर्षित कर गए। मेरी जड़ें देहात में ही हैं तो ज्यादा अचरज नहीं हुआ मगर आकर्षण तो आकर्षण है। सुगन बाई, हुड़ी बाई, समंद बाई, शाणी बाई, भग्गू बाई, भूली बाई। आपने सुने होंगे ऐसे नाम। और भी जैसे रोड़ जी, जोड़ जी, नेत्रमल, कचरू, भाना जी, माना जी, बाबरू, भोनीराम, गेंदा लाल। इलाक़े का अंदाज़ अलग है यहाँ। थोड़े से और परोसता हूँ। गोया सुवा लाल, गोमा जी, जगूड़ी बाई, नब्बू बाई, कुश्बा बाई, घिसी देवी, वाली बाई, अमरी बाई, दाखी बाई, वरदी बाई, बुलाक बाई, हगामी, कारी, सोसर बाई। एकदम अलग दुनिया है न। ये नाम पढ़ते हुए आपका दिमाग भी चल पड़ा होगा। अपने-अपने देहात की हरियाली से नाम चुनकर एक माला बनाइएगा। कितने सहज और सरलमना लोग हैं ये। लोक की संस्कृति इन्हीं की वजह से ज़िंदा है बाकी हम तो इसे चिंटू-पिंकी-टिंकू और मोंटी करने पर तुले हुए हैं। आगे विचार करेंगे तो नामों की भी अनथक यात्रा आपको बुलाएँगी। अब भी अनौपचारिकता शेष है तो देहात में है। हालाँकि वह भी सिकुड़न पर अमादा है।


खेतिहर किसानों को मास्क विहीन शक्लों के साथ देखना आसान होने लगा है। गाँव में छोटे-छोटे झुण्ड बनने लगे हैं। डर जाता रहा। अस्पतालों में मरने वालों की ख़बरें विराम पा चुकी है। टेस्ट के लिए कैम्प में अब कोई नहीं जाता। लोग घरों में कम खेतों में ज्यादा हैं। देहात ने अभय के माहौल को गले लगा लिया। अद्भुत जिजीविषा का दर्शन यहीं संभव है। पेयजल का संकट बारिश का इंतज़ार बढ़ाने में सहायक है। किसान के चेहरे से बीते साल के खराब ज़माने का हाल अभी भी जाना जा सकता है। उधारी और ब्याज में डूबे खेतिहर बीघे के हिसाब से बुवाई-जुताई-गोबर खाद डलवाई के हिसाब से खोफ खाने लगे हैं। एक बीड़ी साथ पी-कर सारा दुःख सुनना आसान है। कोई तो हिम्मत जुटाकर सैकंड हैण्ड ट्रेक्टर-ट्राली-मोरपल्ला-ट्रिलर का सेट खरीदने का मन रहे हैं। सेठों को पैसे दे-देकर कई किसान अपना गणित लगाने को मजबूर हैं। भवभूति की ‘उत्तर रामायण’ के बाद किसान-जीवन में करुण रस अधिक है। बीमारी की हताशा से बाहर निकले तो दूजी निराशा ने गले लगा लिया। गरीब के दुखड़ों का पार नहीं होता। 
  
नाई की दुकानें लगभग बंद। अघोषित रूप से खुली दुकानों का पता मेरे पास नहीं है। दो महीने की बाल कटिंग चिढ़ाती रही। आज खुद ही जीरो मशीन घुमा दी। बाल-कटिंग का कुछ श्रेय अनुष्का और डालर को जाता है। यह सामूहिक जिम्मेदारी का काम था। गंभीरता से निभाया गया। एक भी बट्टा नहीं लगा तो हमें इस हुनर में हौसला अनुभव हुआ। शक्ल अजनबी और अनूठी हो गयी। यहाँ अनूठी का मतलब वास्तव में अनूठी ही है। जो अंतिम संभव हल था वही चुन लिया। अब सुकून है। आजकल में मेहंदी चोपड़ने की योजना है। जून महीने की सात से स्कूल खुल जाने की बेसब्री है। तोंद बढ़ना अच्छी बात नहीं है मगर क्या करें। कोरोना की तरह कुछ हमारे वश में भी नहीं रहा। अंत में स्पिक मैके आन्दोलन के 2002 के परिचित जयपुर वासी संदीप चंडोक भैया के नहीं रहने पर शोक व्यक्त करता हूँ। उनकी संगत में दसेक साल काम किया। खूब सारी अनुभूतियाँ हैं। लिखूंगा कभी। संदीप भाई का पचास के आसपास की उम्र में अचानक चले जाना अखर रहा है। पथ जैसा भी है मगर हमें चलते रहना होगा।

डॉ. माणिक(बसेड़ा वाले हिन्दी के माड़साब)

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