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29 मई, 2021

बसेड़ा की डायरी : लेखक को भी बीमार होने का हक़ है।

बसेड़ा की डायरी, 29 मई 2021

    

लेखक को भी बीमार होने का हक़ है। लगातार के बाद अवकाश आना स्वाभाविकता कहलाती है। थकान और आलस भी कोई शब्द हैं। ज्ञातव्य है कि कई बार रचनाकार अपनी सतत बहती हुई नाक पकड़े रहने से मिली फुरसत में भी डायरी लिखता है। पाठक ईलाज बता रहे हैं। जी-भर दुलार रहे हैं। सभी तरफ़ ढोल पिटवा दो कि रिश्तों में ऊष्मा बची हुई है। सर्दी-जुकाम से लड़ने के लिए अंग्रेज़ी दारू से लेकर आयुर्वेदिक तरकीबें तक साझा की गयी हैं। नाम नहीं छपने की शर्त पर एक नालायक दोस्त ने पाडे के पाये, बकरे की सीरी और मुर्गे की कलेजी सुझाई। फिलहाल आयुर्वेद की लक्ष्मी विलास रस गोलियों से सफ़र शुरू किया है। नाक में जाने क्या-क्या डालने को नहीं कहा गया। नीबू, गाय का घी, सरसों का तेल, झंडू बाम, विक्स। अजवाइन गरम करके कपड़े में बाँधकर भी सूँघ ली महाराज। आठ-नौ तरह के काढ़े की रेसीपी आ चुकी है। एक ने बड़े प्रेम से कहा, नाक है बहने दो कुछ दिन में अपने आप ठिकाने आ जाएगी।

 इंजेक्शन और कोरोना टेस्ट की सलाहें भी कम नहीं थी। सभी के प्रति आभार। एक ने तो मिर्ची बड़े के साथ चटनी बताकर चिढ़ाया। सुबह सवेरे गरम पानी और नीबू की चाय जिंदाबाद। दर्जनभर पुरुष मित्रों सहित तीनेक महिला साथियों ने दो दिन तक लगातार फोन करके कुशल जाना। मामला इतना भी गंभीर नहीं है वैसे। हाँ याद आया कोई दोस्त अपने डॉक्टरी भाई-बहन से ईलाज पूछकर भी मुझे बता रहे हैं। मतलब इधर पूरी देखभाल है। लेखक की नाक का जो सवाल था। वैसे सूचना वहाँ तक पहुंचे कि अब आराम है। नाक अब उतना नहीं टपकता। अंत में सदैव रहने वाली इस एलर्जी के लिए होम्योपैथी की शरण में जाने का निर्णय हुआ है।

 लिखे की निरंतरता पाठकों में भी पढ़ने का नैरन्तर्य जगा देती है। पाठक असल में लेखक के जीवन का हिस्सा हो जाते हैं। डायरी पर प्रतिक्रियाओं का पूरा असर है। बड़ी सादड़ी से शिक्षाविद योगेश जी जानी बहुत संजीदा प्रत्युत्तर देते हैं। पचत्तर पार होंगे। हर टिप्पणी सकारात्मक होने की हद तक जाती है। नीमच वाले भाई रवींद्र उपाध्याय विस्तार से लिखते हैं। हिंदी में हमसे बहुत वरिष्ठ हैं। एक गीता मैडम हैं जिनसे कभी बात नहीं हुई। मैं उन्हें ठीक से जानता नहीं हूँ। कोई दिन नहीं चुकता कि उनका अंग्रेजी में टाइप किया हुआ बहुत आदर सहित आत्मीय जवाब नहीं आता। प्रवीण भाषा पर टिप्पणी के लिए अक्सर फोन करता है। शोधार्थी मित्र प्रशंसा से भरे अनुभव होते हैं। गद्य को बहुत तारीफ़ मिल रही है। कभी लगता है मैं राजेश चौधरी जी के कमेन्ट के लिए जी रहा हूँ। लगभग ढाई सौ परिचितों को डायरी भेजता हूँ। पचासेक के जवाब आते हैं। ज्यादातर अध्यापक हैं। कोई पारिवार की तरह है। कोई अलग-अलग समय के आन्दोलनों के साथी हैं। अधिकांश मेरे असल को ठीक से पहचानते हैं।

पाठकों में अब कुछ शिष्य भी आ जुड़े हैं जो लगातार पढ़ते हुए मेरी वर्तनी सुधारने की लोकतान्त्रिक छूट का लाभ उठाते हैं। रिश्तेदार लगभग नगण्य हैं जो मुझे पढ़ते हैं। मेरे जातिगत समाज के लोगों में मैं उतना नहीं पढ़ा जाता हूँ। मित्रों से डायरी पर उनकी राय जानने के लिए फोन करने का आदी नहीं हूँ। लेखक और पाठक इन दो के बीच दूरियाँ लगातार कम होना लाज़मी है। पाठकों को पता हो कि लेखक ने सालभर के लिए तीन बोरी गेहूँ खरीद लिए हैं। कोटी छोटी पड़ गयी है। बाज़ार खुलने पर लौहार के यहाँ से छोटा-मोटा जुगाड़ खरीदना ज़रूरी कामों वाली पर्ची में सबसे ऊपर लिख दिया है। छह दिन पर्ची बनती है फिर सातवे पर बाज़ार जाते हैं। आज से बसेड़ा जाना फिर शुरू किया है। भरी गर्मी की दोपहर में बाइक चलाना बहुत खतरनाक लगा। ज्यादातर लोग बुवाई की तैयारी में खेत में  हँकाई करते दिखे। ममता के माँ-पिताजी और सुनीता मूंगफली के बाले छिलते मिले। शायद बीजवारा तैयार कर रहे थे। चाय-पानी की बहुत मनुहार की। कोरोना का डर इतना गहरे पैठ गया कि हम उदास मन के साथ अप्रत्याशित ‘मनाही’ में उत्तर देते हैं।

 बीस दिन बाद स्कूल जाना हुआ। तय बातचीत के अनुसार गुणवंत नीम गिलोय की ठीक-ठाक ख़ुराख ले आया। कोरोना में इतने दिन उसी की भेंट की हुई गिलोय से मामला जमा हुआ था। कह रहा था नीम पर अब गिलोय आसानी से नहीं मिल रही है। देहात में भीइस बार खूब काढ़ा उकारा गया है। मेरे अनुनय पर सुनीता और रवीना ने ऑफिस को झाड़-बुहार कर टिपटॉप कर दिया। अवकाश के दिनों में सब उतना सहज कहाँ होता है। बीच की दो बारिश से आँगन के पौधे जी उठे। सुनीता का घर स्कूल के एकदम सामने पड़ता है। बच्ची किसी काम के लिए मना नहीं करती। ऊपर से पारिवारिक जुड़ाव भी है। पाँच-सात वाक्य पढ़ने-लिखने की बातें हुई और दोनों बच्चियों को अलविदा कहा। शुक्रिया सुनीता यह संस्कार हमेशा तुम्हें आगे बढ़ने में मदद ही करेंगे। सरकारी स्कूलों में सेवादार तो होते नहीं। गुणवंत और मैंने कंप्यूटर लैब में रखे सामान को तिरपाल से अच्छे से ढंका। भविष्य की बरसात से बचने के इंतज़ाम किए। खुले आहाते में पेड़ के निचे दो कुर्सियाँ लगाकर मजमा जमाया। प्राकृतिक छाया में बतकही का आनंद अलग है। देर तक एक दूजे को सुना।

 गुणवंत ने पाँच-सात आत्मकथाएँ मंगवाई थी। दे आया। तुलसीराम जी की ‘मुर्दहिया’ और ‘मणिकर्णिका’, मोहनदास नैमिशराय जी की ‘अपने-अपने पिंजरे’ के दोनों भाग सहित नए शीर्षक वाला तीसरा भाग, कौसल्या बैसंत्री जी की ‘दोहरा अभिशाप’ और सुशीला टाकभौरे जी की ‘शिकंजे का दर्द’। पीएचडी थीसिस लेखन का बीता साल फिर से ताज़ा हो गया। एक बार लगा बसेड़ा जाना सार्थक हो गया। एक अध्यापक की तसल्ली के लिए इतना काफी है। ऐसे में बाइक से पचास किलोमीटर आना और फिर जाना अखरता नहीं। गुणवंत से खेतीबाड़ी, घर, खेत-खलिहान, वर्धा से लेकर बसेड़ा और खुद के स्वास्थ्य पर बातें हुई। अच्छा लड़का है। जमा-जमा कर बोलता है। अमूमन विद्यार्थियों की तरह उतना परेशान नहीं होता। धैर्य से हर समस्या का हल ढूँढ लेता हुआ लगता है।

 शाम में भीलवाड़ा की शोधार्थी मित्र गगन तिवारी मैडम को फोन मिलाया। किसी सरकारी आदेश के स्पष्टीकरण पर चर्चा होनी थी। पता ही नहीं चला कि पैंतीस मिनट तक हम अध्यापन-अध्यापकी पर बोलते-सुनते रहे। खूब आनंद आया। डायरी पर उनकी राय जानी। डॉ. अखिलेश चाष्टा जी के निर्देशन में कथेतर गद्य में संस्मरण साहित्य पर काम कर रही हैं। बहुत संजीदा अध्यापिका हैं। लख्खण मेल खाते हैं। मेरा उनका बचपन एक सरीखे हालात वाला था। देहाती और लगभग औसत। बाद में जाना कि फ्रीक्वेंसी मैच करने का यही कारण था। फिर घर-परिवार की बातें हुई तो रिश्तेदारों में कोरोना-काल का ग्रास बने लोगों पर देर तक चिंता में डूबे रहे।

 फिर से दोहराना चाहता हूँ कि दुःख का पसारा ज्यादा है। अनुमान यही है कि अभी इसके समेटे में भी बहुत वक़्त लगेगा। एक अनुभूति यह भी रही कि सभी भीतर से विविध अनुभव सम्पन्न हैं। संभव हो तो आप भी अपने आसपास को सुनिएगा। आपके सुनने से किसी का जी हल्का हो जाता है। यह भी ईलाज की एक शैली है। गगन भी हिंदी भाषा की ही व्याख्याता हैं तो देर तक डायरी में सायास या अनायास आयी नवीन उपमाओं पर ध्यान दिलाती रही। मेरे पास गदगद होने के सिवाय उपाय नहीं था। तारीफ़ से जिम्मेदारी बढ़ती है। हौसला ज्यादा मजबूती माँगता है। समाज के और बारीक ओब्जर्वेशन की तरफ बढ़ना होगा। हवा की दिशा जाननी होगी। आम जनजीवन से शब्दों को उठाकर तराशना होगा। गूँथने में ज्यादा आत्मिक होना होगा। रचना में सरसता कायम रहे, यह बड़ा दायित्व है।  

डॉ. माणिक(बसेड़ा वाले हिन्दी के माड़साब)     

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