Loading...
19 मई, 2010

कविता -''बदलते समीकरण ''

बदलते समीकरण
--------------
जीवन के फलक पर
देखा है सभी ने

आमद,यौवन और उतार अपना
बुढ़ापे  में बचपन याद आता होगा
कभी यौवन में लिखी अधपकी रचनाएँ
कविता,कहानी और उपन्यास
उलझे रहे सदा से
जीवन समीकरणों के बीच
छपना-छपाना,जाना-बुलाना
अरसे तक चली जोड़ तोड़ -बाकी है
कई चल दिए लिखते-लिखते 
छपते,पढ़ते और गढ़ते

साहित्य की दीवारें
जो इतराती  है अब रौब से
जानती कहाँ है वो नींव का ताप 
बेहतरी की कोशिशों के बीच
खप गए कई धुरंधर
पुरूस्कार लिए बगैर चल दिए
सादेपन की चादर ओढ़े 
गुज़ार दी उम्र सारी
उलटा समझ लिजिए आलम आज का
कौन परतें उघाड़ता है
आजकल बीते अच्छे समय की

सच तो ये ही है कि 
जीवन की तहें समेटे हैं अपने में
बहुत कुछ छुआ-अनछुआ
सोचता है कौन उन अछूते पलों को
सिकुड़ा सदा से साहित्य का दायरा
समृद्ध हुई पाठकीय कंजूसी
आलोचना नज़र नहीं आती अब तो
समीक्षा ही मिल जाती है हर मौड़ पर
दिल,दिमाग और लेखन 
कितना  हलके पर उतर आया है
धारें कहाँ रही अब वैसी कलम की

 धडाधड चलती जा  रही है बस 
नए का इतना है खुमार 
कि पुराने और सार्थक  को 

चाहकर भी नहीं देखता 
आज का अतिव्यस्त आदमी
और नहीं करता है उसे 
किसी गिनती में शुमार
 
TOP