कुछ देर रतनसिंह महल के झरोखे में
बैठ आया सुकून के साथ
जी आया कुछ पल
जी आया कुछ पल
भव्य लेकिन झर्झर इमारतें
तैरती रही आँखों में देर तलक
शाम की मध्यम होती रोशनी
और मेरी युवा आंखों में बसे
अनगिनत सालों से बुढ़ाए झरोखे
कहीं से तालाब दिखता था
तो कोई हरियाली दिखाता
कहीं से ढ़लान दिखता था
तो कोई पहुंचाता मेरी नज़र
ऊंचे टीले की शिलाओं पर
देखे बारामदे में कुछ थके हारे मज़दूर
दिन ढ़लने की खुशी साफ़ दिखती थी
उनकी चमक वाली आँखों में
देखा है वहीं
मजूरी पकने और चुल्हा जलने का आनंद
देखा है वहीं
मजूरी पकने और चुल्हा जलने का आनंद
दिहाड़ी के बाद घर को जाते जाते
चुन रही थी सुखी लकडियाँ
कुछ एकदम घरेलू महिलाएं
विराने में जीवन देखा उस सांझ
देखी उबड़ खाबड़ पत्थरों से बनी
कुछ मज़बूत दिवारें
उग आई थी जहां बैले और घासफूस
घोखड़ों में बैठे उल्लू देखे मैंने
कमल खिलने वाले तालाबो में
था ज़मावड़ा अब नंगे पूंगे बच्चों का
आहाते के खम्बों की सीध से आती नज़र
बगीचे में चरती भैसें
और पेड़ों पर उछलते लाल मुँही बन्दर
सरल और निर्भीक जीवन
महल में देखा पहली बार
अब राजा रहा न कोई वहाँ
महल में देखा पहली बार
अब राजा रहा न कोई वहाँ
भ्रष्टाचार में डूबा दरबान भी नहीं
यहीं बने है कुछ छिटपुट मंदिर
यहीं बने है कुछ छिटपुट मंदिर
अपनी टूटफूट का दर्द समेटती मूर्तियों वाले
रूक रूक कर सांस लेते
डरावना समय शायद जाता रहा
भला सामंती दिवारें कब तक ऊंची रहती
गिरना तो था एक दिन
नियति को रोके कौन
कौन रोके चक्रवत चलता जीवन
नियति को रोके कौन
कौन रोके चक्रवत चलता जीवन
अब बकरियां तक लांघती और उजाड़ती है
महल का बचाकुचा बगीचा
जो जानता है सच्चाई सबकुछ
तब से लेकर अब तक की
अलविदा कहती दिखी
अलविदा कहती दिखी
दिनभर की धूप अब छतों के रास्ते
चुपचाप जा रही थी
किले के पीछे वाले दरवाज़े से
गिलहरियाँ घरों की तरफ लौटती
दिखी और विचार और गहरे में
बैठते हुए महसूसे मैंने
बैठते हुए महसूसे मैंने
दिन ढलने के साथ
एकाएक आई नज़र
सफ़ेद दिवारें
ओढ़े हुए थी जो काले,पीले,मटमैले नाम
बेतरतीब तीर के निशान और
दिल से लगते रेखाचित्र
बनाएं हैं हमारे ही दिशाहीन मित्रों ने शायद
समझ अपनी बपौती कर गए दिवारें गंदी
दे गए सबूत अपने बिगड़ैल होने का
दे गए सबूत अपने बिगड़ैल होने का
भोर,दिन हो या सांझ
आदमी से ज्य़ादा सन्नाटा पसरता है वहाँ
आज भी समाया है डर
वहाँ आए मुशाफिरों में
निकल ना पड़े कोई तलवार फिर से
वहाँ आए मुशाफिरों में
निकल ना पड़े कोई तलवार फिर से
चल पड़े ना कोई तोफ फिर से
हो जाए ना कोई फरमान जारी
जो फाड़ दे कान के पर्दे
यूं बयाँ करता दिखा
महल का विराना
मैंने जितना समझा लिख डाला
बाकी बचा पढ़ लेना किसी
किसी किताब में
या आ जाना वक्त निकालकर
कभी महल के विराने में
ढूंढेंगे साथ मिलकर जीवन की
पड़ाव दर पड़ाव बदलती परिभाषाएं
(ये कविता चित्तौड़ दुर्ग के रतन सिंह महल में मेरे भ्रमण के दौरान उपजे विचारों पर आधारित है )
मैंने जितना समझा लिख डाला
बाकी बचा पढ़ लेना किसी
किसी किताब में
या आ जाना वक्त निकालकर
कभी महल के विराने में
ढूंढेंगे साथ मिलकर जीवन की
पड़ाव दर पड़ाव बदलती परिभाषाएं
(ये कविता चित्तौड़ दुर्ग के रतन सिंह महल में मेरे भ्रमण के दौरान उपजे विचारों पर आधारित है )
Veerane main ateet aour vartman dono ko bakhubi dikhati hai aapki kavita
जवाब देंहटाएं"मैंने जितना समझा लिख डाला
जवाब देंहटाएंबाकी बचा पढ़ लेना किसी
किसी किताब में
या आ जाना वक्त निकालकर
कभी महल के विराने में
ढूंढेंगे साथ मिलकर जीवन की
पड़ाव दर पड़ाव बदलती परिभाषाएं ".. बदलते समय के साथ बदल जाती है परिभाषाएं और ऐसे में अतीत को समझने के लिए प्रतीकों की जरुरत होती है.. एक गंभीर रचना .. बहुत सुंदर कविता ...
Manik sir!! Mahal ke veerane ko bade pyare dhang se sanjoya hai aapne...:)
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