पिताजी का मकान
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छूट्टी के बाद का बचपन
बीत गया खेतों की मेढ़ पर
दिशाहीन हो डोलते फिरने में
कहाँ दिन गुज़र गए पता नहीं
नदी नालों को लांघने में गुज़र गई गोधूली
बूढ़ी याद का एक हिस्सा कहता है कि
बेफिक्री ओढें दोपहरें ईतराती थी उन दिनों
मगर हम बेखबर थे तब भी
बरसाती पानी बह निकलने पर
ठहर जाती थी रेत पेंदे में
बैठ जाती थी गरीबों के हित
याद है आज भी
तगारियां भर-भर रेत छाना करता था
दादी के साथ किया वो सफ़र
नदी किनारे कंटीली झाड़ियों के पास-पास
जाती पगडंडी और नंगे पैर हमारे
कुछ तगारी रेत से
थोड़ी तो ऊंची उठती थी
पिताजी के मकान की दीवारें
दादी बूढ़ी थी और मैं बच्चा
जितना हुआ उतना किया
यही तसल्ली थी मन को
भड़भड़ाते हैं वो चद्दरी लोहिया किंवाड़
आज भी
तो याद आ जाता है सबकुछ
ईमान,मेहनत और दिहाड़ी से
मिलकर बनते थे मकान
होते थे गिनेचुने कारीगर और
घरभर के लोग ही मज़दूर बन जाते थे
फावड़ा,तगारी,सरिया लिए
लोग यादों के धुंधलके में हैं कहीं
खड़े हैं आज भी सहायता को तत्पर
आ खड़े होते थे रिश्तेदार और पड़ौसी
छत चढ़ाई की रस्म में
बदले में गुड बँटता था खाली
अगर सेठ हुए तो
ज़लेबी,चाय हाथ लग जाती
मिलेझुले से बनते घरों का
वो ज़माना बीत गया
जैसा भी था,घर था
लगता नहीं था मकान कहीं से
आज की तरह
जो बनते है बैंक,ब्याज और
किस्तों के रोने धोने से
हाँ बात अभी बाकी है कहना
उन दिनों होती थी
केवल संकड़ी खिड़कियाँ
संकड़े दरवाजे और संकड़े रोशनदान
मगर दिल बड़े होते थे
और लगते भी थे
खुली हवादार आवभगत करते
मुंडेर पर लगी बारहमासी
और कवेलू वाले छत तक जाती
गिलकी,ककड़ियों की बेलें
अफसोस अब सुख गई है
पानी भी तो नहीं देता कोई उन्हें
बारह महिने गुज़र गए
बारहमासी के फूल नहीं आए
नाइलोन की रस्सी तब भी हुआ करती थी
खींचता था पानी मैं भी
अपने किशोर हाथों से
भरता था पानी डिब्बों में यथाशक्ति
याद है वो चड़ाव के रास्ते पर
पत्थर बिखरे पड़े होते थे
कुम्हारों की कुई से घर तक
मुश्किल था चलना दौड़ना
कंधे पर रखी लकड़ी और दोनों तरफ लटके डिब्बे
तरकीब से लांघता था
सर्पिली नालियों के गढ्ढे
गढ्ढे,जिनसे मुद्दे उपजते थे अक्सर
बेमतलबी बहसों के
कुई सूखने पर पहाड़िया ढ़लान में लगा
हेंडपंप घड़घड़ाता था कई दिनों तक
भोर की चार से अंधरे की ग्यारह तक
चलने वाला हेंडपंप का हत्था
गवाह है आज भी
पिताजी के मकान बनने का
पानी आता तो माँ चुना मिलाती थी
सीमेंट हिलाती थी
पिताजी दीवार नापते थे बार-बार
अब बने कि कब बने
और मैं लगातार ताकता रहता था सबकुछ
पड़ौसी के आहाते में बैठा हुआ चुपचाप
वो तीन माले आज तीस नज़र आते हैं
जैसा भी है
इतिहास थामें है अपने में
जाने क्यूं लगता है
बिना पुताई के भी चमकीला
और बिना वास्तु ही सधा हुआ
समय था वो ऐसा
जो बन गया मकान आसानी से
अब चल बसा शायद वो वक्त
जो किस्तें नहीं ब्याज नहीं
भाईचारे में कुछ हिसाब नहीं
शर्म आती है खुद पर आज़
कितना बदल गया है सब कुछ
थोड़े से वक्त में
कुछ सालों पहले ही तो बना था
पिताजी का मकान