पिताजी का मकान ------------ छूट्टी के बाद का बचपन बीत गया खेतों की मेढ़ पर दिशाहीन हो डोलते फिरने में कहाँ दिन गु...

पिताजी का मकान ------------ छूट्टी के बाद का बचपन बीत गया खेतों की मेढ़ पर दिशाहीन हो डोलते फिरने में कहाँ दिन गु...
कभी तो कबूलें हकीक़त कभी तो फेंकें दूर झूंठ की चादर जी लें कुछ देर नाटकबाजी के विरह में सोच कुछ ऐसा ही मन में आज दी है बचपन को शक्ल ...
कविता ढूँढता हूँ वो रास्ते -------------------------------- जाते थे रास्ते एक गाँव से दूजे गाँव को एक घर से दूजे घर को मौहल्ले से...