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07 नवंबर, 2021

बेतरतीब दिनों को करीने से लगाने की असफल कोशिशों के बीच

7 नवम्बर 2021 बसेड़ा की डायरी
बेतरतीब दिनों को करीने से लगाने की असफल कोशिशों के बीच बना हुआ हूँ। गूँथने वाली नुवार का पुराना पलंग था जिसका बचा हुआ आधा भाग अब नहीं गूँथा जाता। ज़िन्दगी का चढ़ाव हिम्मत माँगता है। जानता हूँ कि मेरी छान से पानी टपकता है पर अब इसके केलू हारना खुद के बस का नहीं रहा। जान गया हूँ कि आधी समझ के साथ आधा ही जीना हो सकता है। कपड़े गला रखे हैं पर धोवणे से कूटना बाकी है। मिर्ची को तीन दिन धूप लगा दी अब अमान-दस्ते में मसलना तुम्हारे जिम्मे। जनवरी की ठंड से पहले कुछ स्वेटर तुरपाई माँग रहे हैं। एक नीला शर्ट है जिसके बटन लगने अब एकदम ज़रूरी हो गया हैं। रतजगे के लिए अलाव की लकड़ियाँ डलवा चुका। घुमक्कड़ी के लिए फुरसत जमा कर रखी है। गमले, मिट्ठी और खाद मँगवा लिया। तुम आओगे तो चम्पा, मोगरा, कनेर की पौध खिलना संभव होगा। एक पोखर को हामी भर रखी है कि हम दोनों नए सिरे से आएँगे तो तुम्हारी मछलियों को भूंगड़े डालेंगे। कुछ तितलियों को न्यौत रखा है। एक मोर का नाचना रोक रखा है। एक गिलहरी मेरे कहने पर वहीं रुकी हुई है। पैदल साथ चलने के लिए एक रास्ते ने एकांत देने का वादा किया था। उस बात को भी बरस-भर बीत गया। यह सारा विवरण तुम तक ज़रूर पहुंचेगा इसलिए लिख रहा हूँ।

यादों की पिटारा है कि लदा का लदा रहता है। जैसे माँ अभी-अभी गेहूँ बीन कर फारिग हुई है। पिता मंगरे से टोबलाभर लकड़ियाँ लाकर अभी हाल चौंतरे पर आ बैठे हैं। अचानक आ धमकने वाले मित्रों की संख्या अन-गिणती की


थी। बीते में देखा तो लगा बड़े पिताजी के लड़के यानी गोपाल भैया अब भी भभके और बगनार की मदद से चांदी के पायजेब में जालन लगा रहे हैं। गिरस्ती को चलाने की खातिर सभी ने बूढ़ा होने से साफ मना कर दिया हो मानो। स्मृतियों में एक डाकिया लगातार उपरले कमरे में आई हुई चिट्ठी-पत्री पर टपाटप तारीख़ वाली सील उगाड़ रहा है। पड़ोसी खेत नीँदने में व्यस्त हैं। कुछ दोस्त हैं जो अम्बल भीजोने से फ्री होने पर बात करने की कहकर गए। अब तक नहीं लौटे। 

असल में एक कोई चाहिए जो रजाई की तरह बातों की मसोड़ कर सके। जिसे अंदाज़ा हो कि तीन किलो मक्की की पापड़ियाँ बनाने में हाजी के फूल कितने डालने पड़ेंगे। कोई चाहिए जिसे सही-सही अंदाज़ा हो कि लाल-सफेद गूंद के फुल्ले कैसे पाड़े जाते हैं और सर्दी के लड्डू को कैसे गोलमटोल किया जाता है। खुल्ली बात करूं तो साथ चलने के लिए दो पाँव और चाहिए। एक मजबूत कंधा और दो दुरस्त कान। कान जो सुन सके मेरा अब तक का अनकहा। दीवार के पार देखने वाली एक आँख काफी है जो मेरे भीतर उतर सके बिना सीढ़ी। साथी जिसे समझ हो कि चलना वास्तव में दौड़ने से भिन्न क्रिया है। आना है तो सुनो। बोलते हुए ठीक जगह रुकने का हुनर होना एक ज़रूरी शर्त है यहाँ। अब बड़ी चिंता की बात नहीं रही क्योंकि बातों में हुँकारा भरना मुझे आता है। साथ वह जो मुझे पूरे में जानना चाहे, दरवाज़ा खुला है। न्यूनतम ज़रूरत यही कि अंतराल को अंतराल की तरह ले और लय में लय घुला सके जो।

की-बोर्ड पर खटाखट अंगुलियों से जी भर गया है। स्क्रीन आँखें नोचती हुई लगने लगी। पखवाड़ाभर पहले की बात होगी, एक ज़रूरी किताब के पन्नों का दिलकश ईशारा अब दिल जीत रहा है। सुनोगे तो सुनो कि शहर अब उतना नहीं लुभाता। गाँव में गाँव ढूँढ़ ही रहा हूँ। चालीस बरस हो गए। जान गया हूँ कि दिवाली की अपनी हद है। सात दिनों का निचोड़ यही रहा कि छूटे हुए कोनों में उजाला देर से ही आएगा। संगत में कुछ कविताओं की राग बनानी है। कुछ लच्छे यथास्थान बाँधने है अभी। कुछ गाँठे हैं जिन्हें चार हाथ से ही खोला जाना तय रहा। चार आँखों से एक नदी और एक डूंगर को निहारना बाक़ी कामों की सूची में सबसे ऊपर लिख रख्खा है। पूरा घर पोतने के बाद भी एक आलिया लीपना रह गया मानो।

छूटे हुए कामों के लिए राहगीर चाहिए। चाहिए एक नक्शा-नवीस जो मन को आकार में ढाल सके। वक़्त पर कोई आ सके तो एक बाँधनवाल टाँगनी है। एक जोड़ी बैल के सींग लाल-पीले रंगने हैं। एक थालपोश बुनना तुम्हारे जिम्मे रहेगा। एक कलरफूल कलश पिछले साल मेले से खरीदा था, उसके लिए कोड़ियों वाली छूमरी गूंथनी है अभी। अलगनी में अटके कपड़ों को तह करके अलमारी में जमाने शेष हैं। यात्रा में थकान अब कुछ भी करने को मना करती है। दो हाथ और आते ही चटनी बांटनी है। बीते तीन महीने से धनिया, मिर्ची और प्याज काटकर रखा है। सच्ची बात यही कि लहसुन में अब भी बू शेष है। सिलबट्टा जाने कब से आँगन के अधबीच रखा है। आस की नज़र राह पर टिकी है कि कोई आएगा एक दिन।

दो दिन से मेहंदी गला रखी है। एक आलेख अधबनी शक्ल का-सा रुआँसा सामने खड़ा है। डायरियों के पन्ने बिखेरकर बीच में बैठा हूँ जो अब तक लिखी ही नहीं गई। यह भी जान लिया कि पत्रिका का एक अंकभर निकाल लेने से जीवन का इन्द्रधनुष पूरा नहीं हो जाता। आज चंद्रकांत देवताले जी का जन्मदिन है। वे मेरे प्रिय कवि हैं। आप आओगे तब उन्हें कविताओं में महसूस करता हुआ मिलूँगा। अगर समय से आ सके। इंतज़ार में हूँ जैसे निर्जन एकांत में कोई स्त्री सीताफल बेचने के लिए सुबह से टोकरी को लुगड़े से ढाँककर दिनभर गीत गाती है। ठीक उसी तरह हूँ जैसे नदी बहती है तो सोचती है कि यह रास्ता एक दिन समुद्र का आलिंगन देगा। यथाशक्ति आकाश के ठेगले सिल रहा हूँ। 

कुछ दिन के लिए नींद को विराम कह दिया है। कोई आएगा तो खुली छत पर इकठ्ठे सोएँगे। कई रातों को कह रखा था कि आएंगे तो बातों के पहाड़ जमाएँगे। एक रात, एक रजाई और एक आदमी। यहां तीनों की तौहीन है। रात, रजाई और आदमी। अब जाना कि राजेश चौधरी क्यों कहते फिरते हैं कि शाम चार बजे रोज़ मुझे बात करने के लिए आदमी चाहिए होता है। कुल जमा ज़िन्दगी के जाम में हूँ। कोतवाल ऐनवक्त लापता है। सिग्नल के तीनों लट्टू एकदम फ्यूज वह भी एकाएक। लाल, हरा हो या पीला। सब के सब नदारद। सिलेबस में बिना हासिल की जोड़ बाकी कही थी। परीक्षा में गुणनखंड आ टपका। भाई कोई सुन रहा हो तो किसी से कहो कि दोपहर के बाद का तीसरा पहर बीत रहा है। तणी पर कपड़े सूखते हुए कितनी देर हो गई है। बेतरतीबी को कहने का यही एक ढंग मेरे पास था तो कह दिया। इधर तो यही चल रहा है लौटती डाक से आपके उधर की कहना। मैं बाट जो रहा हूँ।

- माणिक

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