धड़कन जिसको भजती है
रही तलाश में अबतक
सालों से नज़र जिसके
आता नहीं नज़र आजकल वो
और तो और अजनबी लगने लगी इन दिनों
कुछ जानी-पहचानी आँखों भी
बदल गया है वक़्त कितना
जल्दबाजी में धड़ाधड़ सबकुछ(1)
गणित कुछ तो मैंने भी बिगाड़ी है अपनी
रिसती हुई रेत सा
रिसती हुई रेत सा
छूट गया है बहुत कुछ
राह चलते-चलते
अब तक बीते सालों में
हाथ फेरता रहा बस अँधेरे में अब तक
अच्छे को छोड़ दिया
आँख मूंद चल दिया
बात पुरानी,बीती घड़ियाँ
फरक नहीं अब अरण्य रोदन से
कौन सुनेगा पीड़ा अपनी
एक थी रोशनी आँखों की
वक़्त का मोतियाबिंद गैरे बैठा है जिसे
जो ढूँढती और परखती थी
अपनापन और असली आदमी चुटकियों में(2)
मुंह मौड़ती दिखी मंझिलें अब
लगे राहगीर बदले-बदले
आस बढ़ा दी है ज़माने से मेंने ही
या धुंधलाई आँखों से देखता हूँ आज़कल
सूना ही था प्यार में बेकरार होती है आँखें
सुनी बात सुनी-सुनाई रह गई
बात ये बीते कल की हो गई
बचपन,बुजुर्ग और बिरादरी क्या अब
नक़्शे सभी के बिगड़े नज़र आते हैं
समाज बदल रहा है तेजी से
या नज़र कम पड़ गई है मेरी (3)
कुछ बूढी और कुछ ज़वान आँखें
देखती रही चुपचाप
और समाज बदलता रहा
बेधड़क और चौतरफा
पड़ौसी के बल्ब में ज्य़ादा रोशनी
देखने लगी है अब आदमी की आँखें
कांख में दबाए नफे-नुकसान का गणित
हर बात पर नज़र रखता है मगर
बेकाम की बातें पसंद नहीं उसे
लाभ के पहाड़े बोलता है फर्राटे से
बस अटक जाता है
बेमतलबी बारहखड़ी में
अक्ल के नाम पर समझदार हो गया है
मायने बदल दिए है उसने
आँखें चार होने के
भोलापन,सादापन और सयानी शक्ल
ढूँढते रह जाओगे ज़माने में
ठहरा और छाया हुआ जो
अदाकारी का आलम हर तरफ (4)
चाँद के बहाने पिया का इन्तजार
करती बिरहन आज कहाँ
जो शाम से बैठती थी देहरी पर
सिर टिकाए दरवाजे के पास
नज़र जमाए गोधूली में घरों को लौटते
ढ़ोर-ढंगर के बीच
इन्तजार में निकला चाँद
लेट लतीफ़ लगता था देर तलक
रातभर निहारती थी आँखें
जी भर भी ना पाता था कि
ले जम्भाई सूरज उग आता
ले नया सवेरा,नई नज़र
रातभर जागी जो प्यार में
अलसाई आँखें ले बिरहन देखती थी
अब न वैसा चाँद निकलता है,
न बिरहन बैठती है देहरी पर
सिर टिकाए देर तलक
फीकी है गोधूली और
ढ़ोर-ढंगर भी बेमन के हो गए
अचानक लगा कि वक्त बदल रहा है
सोचा न था कि इतना बदल जाएंगे ............(5)
बचपन,बुजुर्ग और बिरादरी क्या अब
नक़्शे सभी के बिगड़े नज़र आते हैं
समाज बदल रहा है तेजी से
या नज़र कम पड़ गई है मेरी (3)
कुछ बूढी और कुछ ज़वान आँखें
देखती रही चुपचाप
और समाज बदलता रहा
बेधड़क और चौतरफा
पड़ौसी के बल्ब में ज्य़ादा रोशनी
देखने लगी है अब आदमी की आँखें
कांख में दबाए नफे-नुकसान का गणित
हर बात पर नज़र रखता है मगर
बेकाम की बातें पसंद नहीं उसे
लाभ के पहाड़े बोलता है फर्राटे से
बस अटक जाता है
बेमतलबी बारहखड़ी में
अक्ल के नाम पर समझदार हो गया है
मायने बदल दिए है उसने
आँखें चार होने के
भोलापन,सादापन और सयानी शक्ल
ढूँढते रह जाओगे ज़माने में
ठहरा और छाया हुआ जो
अदाकारी का आलम हर तरफ (4)
चाँद के बहाने पिया का इन्तजार
करती बिरहन आज कहाँ
जो शाम से बैठती थी देहरी पर
सिर टिकाए दरवाजे के पास
नज़र जमाए गोधूली में घरों को लौटते
ढ़ोर-ढंगर के बीच
इन्तजार में निकला चाँद
लेट लतीफ़ लगता था देर तलक
रातभर निहारती थी आँखें
जी भर भी ना पाता था कि
ले जम्भाई सूरज उग आता
ले नया सवेरा,नई नज़र
रातभर जागी जो प्यार में
अलसाई आँखें ले बिरहन देखती थी
अब न वैसा चाँद निकलता है,
न बिरहन बैठती है देहरी पर
सिर टिकाए देर तलक
फीकी है गोधूली और
ढ़ोर-ढंगर भी बेमन के हो गए
अचानक लगा कि वक्त बदल रहा है
सोचा न था कि इतना बदल जाएंगे ............(5)
बहुत सुन्दर प्रस्तुति बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत प्यारे बिम्ब बुने हैं आपने - "फीकी गोधूलि" तो कहीं गहरे उतर गई - यादों के पार - मन में - बहुत भीतर तक।
जवाब देंहटाएंparivartan hona ya badalna to niyati hai ......padhkar achchha lagaa..........badhai
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