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23 जुलाई, 2010

कविता''कुछ तो पीछे छूट गया है''


गासलेट की चिमनी लगाती बेटियाँ
और स्कूल के बाहर फुग्गे बेचते बाबा
चरर मरर कुटिया की दास्ताँ 
छोटे दरवाजों के मकान वाले 
वे बड़े दिल के आदमी
छूट गए हैं पीछे ,बहुत पीछे 
लाता और बांचता था ख़त
डाकिया रिश्तेदार सा लगता था
ताज़ी सब्जी तक दे जाते थे
पडौसी खेत के पहचान वाले
मौसी,बुआ,काका,काकी के रिश्तों का
वो आलम छूट गया लगता है
मौहल्ले के चोंतरे पर
गीत गाती औरतें और
चाय की थड़ी पर बातें 
बेलते फुरसत के आदमी
फिरकनी,सितौलियों और गिल्लीडंडे में 
जी अटकाए फिरते गाँव के छोरे 
उपले बनाते हुई  बातें गढ़ती 
अनपढ़ लड़कियां छूट गई हैं कहीं
ऐसे  मखमली अहसास छूट गए लगते हैं
ऐसी फुरसत,ऐसे गाँव उठ गए लगते हैं
सादगी में लिपटे गरीबों की कहूं क्या 
टप-टप करती छते थी किस्मत में जिनकी 
याद है आज भी आंगन रखी चारपाई 
लगती थी पंगत जिमने की अलग से 
वो प्रश्न,वो आश्चर्य ,वो गुस्सा
कुछ तो पीछे  छूट गया है
ईस्कूल के गुरूजी का घर तक आना
और पड़ौसियों की कम ऊंची मुंडेर से
हलचल देखता बचपन 
और ऐसे में 
अपनेपन की फसल उगाता मौहल्ला
बरसाती गड्डों में फंसी बैलगाड़ी
को दिल से धकेलते  राहगीरों का टोला
कहीं पीछे छूट गया लगता है
बहुत कुछ अपना रूठ गया लगता है

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