Loading...
06 जनवरी, 2022

जन-कथाकार रत्नकुमार सांभरिया जी का जन्मदिन

बसेड़ा की डायरी, 6 जनवरी 2022

दो दिन पहले ही ध्यान में आया और आज जन-कथाकार रत्नकुमार सांभरिया जी का जन्मदिन उन्हीं की एक कहानी का पाठ करके मनाया। कक्षा ग्यारह और बारह में लगातार दो घंटे मैराथन संगत थी। जीवन विद्या के बाद बच्चों से बतियाना और खुद के व्यवहार पर काम करते हुए जीवन को सचेत भाव से जीना अच्छा लगने लगा है। 'लाठी' कहानी कुछ दिन पहले से ही पढ़ी थी। साम्प्रदायिक सद्भाव को इतनी बेहतरी से भी गूंथा जा सकता है सोचने में नहीं आ पाया। बसेड़ा के हिंदी साहित्य वाले विद्यार्थियों सहित मुझमें इन दिनों भिन्न-भिन्न कथाओं के रस का स्वाद जग रहा है। बीते दिनों के सतत संवाद में पता चला कि रत्नकुमार सांभरिया जी राजस्थान के प्रतापगढ़ ज़िले में ही धरियावद में कहीं कभी अध्यापक रहे थे। वे इस धरा और यहां के देहाती जीवन को भोग चुके हैं। उनकी कथाओं में यह सब छनकर ज़रूर आया होगा। ज़मीन की बात ज़मीनी अंदाज़ में कहने की कला है उनके पास। गाँव उनमें कूट कूटकर भरा है। बसेड़ा के बच्चे उन्हें एकदम पकड़ पा रहे हैं। 'लाठी' कहानी में शुरू से आखिर तक सस्पेंस संतुलित गति से विकास करता है। वाक्यों की बनावट पर लट्टू हूँ। शिल्प और कथ्य का मुरीद तो हो ही चुका था। अब उनकी कहानियों पर उनसे लम्बी बातचीत का मसौदा तैयार हो रहा है। अब लेखक और पाठक के बीच सहजता आकार लेने लगी है। बहरहाल उन्हें लम्बी उम्र मिलें। उनके उपन्यास 'साँप' के लिए असीम शुभकामनाएं।

एक अंतराल के बाद प्रोजेक्टर का सेटअप फिर आरम्भ किया। सोम त्यागी जी का तीस मिनट का विडियो दिखाकर वातावरण बनाया। शबनम विरमानी का 'राजस्थान कबीर यात्रा' में गाया भजन 'सकल हंस में राम विराजे' सुनाकर रस बदला। अंत में कल दिवंगत हुई मराठी सामाजिक कार्यकर्ता सिंधुताई सकपाल का संक्षिप्त इंटरव्यू दिखाया। बच्चे अभिभूत थे। दिनों बाद तसल्ली भोग रहा हूँ। मन का सम्भव होता है तो जी उठता हूँ। सभी खुश थे कि प्रोजेक्टर चल गया। अब सिलेबस के इतर घर-परिवार और रिश्तों पर लगातार बात होती है। बारहवीं वालों पर ज्यादा प्यार आता है क्योंकि तीन महीने बाद वे चले जाएंगे। सत्यानाशी कोरोना के कारण मैं अपना अधिकतम सोचा हुआ उन्हें दे ही नहीं पाया। यह दुःख सदैव रहेगा। व्यवहार में भावों से परिपूर्ण रह सकूं इसका प्रयास जारी है। टीकाकरण वाले दिन एक बच्चे पर चिल्ला पड़ा पर अगले चौबीस घंटे तक खुद में घुटता रहा। 'मेरा क्रोध मेरी अयोग्यता है।' यह सूत्र आड़े आ जाता है। हम सभी को खुद पर बहुत काम करना है। समाज सेवा का भूत उतर गया है अब। देश में मैं खुद क्या जोड़ सकता हूँ बस इसी पर फोकस है मेरा।

परिसर में घूमते छोटे बच्चों के साथ काम करने को जी करता है। कल सातवीं में चला गया तो 'गधे और बाप-बेटे की जोड़ी' वाली कहानी मेवाड़ी में सुना आया। खूब हँसे। आज उनमें से कुछ बच्चे परिचित आँखों से मुझे देख रहे थे। यही भाव था जो भाव के बदले मुझे मिल रहा था। लगा कि छठी से आठवीं में भी काम की गुंजाइश निकल सकती है। दसवीं के एक विद्यार्थी को गलती पर माफी मांगना सिखाया। उसकी पटरी बैठ गयी। आराम पा गया। ग्यारहवीं के बच्चों को दूजे कमरे में शिफ्ट करने से आज पहली और दूसरी को उनका अपना बाला-कक्ष मिल गया जिस पर उन्हीं का अधिकार था। सब खुश। एक से पाँच पढ़ाने वाले कैलाश जी और मथुरा लाल जी भी फुले नहीं समाए। पहले अकेले में टिफिन खोल लेता था। अब साथ खाना प्राथमिकता में आ गया है। सेंगर जी और छुट्टन जी से सब्जियां अदल-बदल कर खाता हूँ। जनवरी में नंदकिशोर जी दुबे रिटायर हो रहे हैं। उनसे लाइब्रेरी का चार्ज लेने का मन है। 'बसेड़ा की सन्डे लाइब्रेरी' फिर से ज़िंदा करने का तय किया है। काम के विस्तार को समेटना है। सिमित दायरे में कॉन्क्रीट काम करने का मानस है अब। स्कूल में नया रंग-रोगन हुआ ही है। सोच रहा हूँ भीतर भी कुछ रंग भर सकूं तो निभ सकेगा।

-माणिक 

0 comments:

एक टिप्पणी भेजें

 
TOP