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10 जुलाई, 2017

बसेड़ा की डायरी-1

नमस्कार,आपकी शुभकामनाओं और सहयोग से मेरा स्कूल व्याख्याता (हिंदी)पद पर राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय बसेड़ा,तहसील छोटीसादड़ी,ज़िला प्रतापगढ़ पर पोस्टिंग हुआ है जो चित्तौड़गढ़ से प्रतापगढ़ हाई वे पर बाड़ी गांव से ठीक बाद है इस तरह चित्तौड़ से कुल 45 किलोमीटर दूर स्थित है।इस बाबत जब भी स्नेहभोज का आयोजन होगा आपको याद करेंगे।अनुग्रह बनाए रखिएगा।आदर सहित माणिक,चित्तौड़गढ़।

दस मिनट की अनौपचारिक विदाई में कुल जमा पच्चीस बच्चों के बीच तीन वाक्य भी नहीं बोल पाया कि रो पड़ा.अब औपचारिक विदाई का सामना मैं नहीं कर सकूंगा.प्लीज मेरा लिखा हुआ भाषण पढ़ा जाए तो बेहतर है.विदाई में पहनाई माला घर ले आया.वहां के साथियों की तरह फूल बड़े खुशबूदार थे

रोज़ाना पचास किलोमीटर जाना और फिर आना,इसके बाद एक आदमी के भीतर का 'एक्टिविस्ट' दम तोड़ने लगता है.(आतमज्ञान)

एक साथ खुद के सिंगल-सिंगल चारेक दर्ज़न फोटो खिंचवाना और आधा दर्ज़न माला पहनना खुद को असहज करने का सबसे आसान तरीका है.(आतमज्ञान)

अनुष्का आज मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'ईदगाह' का विडियो रूपांतरण देख रही है।कल उसने चिल्ड्रन फ़िल्म सोसायटी ऑफ इंडिया की फ़िल्म 'सुल्तान की कुकडू कू' देखी(अनौपचारिक शिक्षा जारी आहे) बाकी टीवी तो बंद है यह ख़बर अब पुरानी हो गयी है।

कक्षा 11 और 12 के कुल जमा एक दर्जन विद्यार्थी।अनौपचारिक बातचीत।चित्रा मुद्गल जी की कहानी 'जगदम्बा बाबू गांव आ रहे हैं' का पाठ किया।अद्भुत कहन।देसज अंदाज।लोक की खुशबू।राजनीति का दोहरा चरित्र।ममतामयी सुख्खन भौजी।सरकारी तंत्र की पोल पट्टी।पहले ही दिन वो किया जो सिलेबस में नहीं है।पासबुकों और पुस्तकों की रेस में पासबुकें फिर जीत गयीं.पुस्तकें अभी तक आयी नहीं मगर पासबुकें मंझिल तक पहुँच गयी हैं.पुस्तकें आजकल बेवफा होने लगी है.(आप बाज़ार के अधबीच हैं)(बसेड़ा की डायरी-0)

सूचनार्थ:सवेरे आठ से दोपहर दो बजे तक मैं स्कूल में रहता हूँ.यथासंभव मुझे इस दौरान फ़ोन नहीं करेंगे तो मैं और मेरे विद्यार्थी आपके आभारी रहेंगे.बाकी अतिआवश्यक परिस्थितियों में कॉल कर लीजिएगा.वैसे जानकारी के लिए बता दूं स्कूल परिसर में मेरे फोन पर किसी भी तरह के नेटवर्क और इन्टरनेट सुविधा उपलब्ध नहीं रहती है.........आज अपने स्टाफ साथियों के साथ लम्बी बैठक हुई. योजनाएं कोंपलों की तरह फूटने लगी है.जल्दी ही रिजल्ट आएँगे तो आपके साथ फोटो आदि शेयर करूंगा ही.शुक्रिया (बसेड़ा की डायरी-1)

आगे बढ़ने के तीन नारे जो आज मैं विद्यार्थियों को सौंपने जा रहा हूँ।इनमें नारा लगाने वाली लय मत ढूंढिएगा।ये एक वंचित क्षेत्र को मुख्यधारा में लाने की अलख है। 1-मेरा स्कूल मेरा घर है। 2-हमारा स्कूल सबसे आगे। 3-सबसे अच्छा स्कूल हमारा।(बसेड़ा की डायरी-2)

सूचनार्थ:सत्रह में से सात पद खाली है.प्रिंसिपल नहीं है.बाबू नहीं है.चपरासी तो है ही नहीं. तीनों भाषाओं के तीन सेकण्ड ग्रेड अध्यापक के पद खाली है.एक लेवल टू अध्यापक का पद भी खाली है.मतलब आप समझ रहे हैं कि एक आदमी दो काम कैसे कर रहा होगा.जो व्याख्याता भरेपूरे स्टाफ के साथ अध्यापनरत हैं उन्हें यहाँ हम वंचित क्षेत्र के और कम मानव संसाधन वालों के कठिन समय में हम व्याख्याताओं पर टिप्पणी करने की ज़रूरत नहीं हैं.हम खाली का रोना रोने के बजाय मिले हुए संसाधनों के बीच बेहतर करने के पक्ष में हैं.राजस्थान सरकार अपने स्तर पर सतत प्रयास कर ही रही है कि डीपीसी लगातार हो और बाकी खाली पद भी भरे जा सके. पद भी जल्दी ही भरेंगे मगर फिलहाल का सच यही है कि पद खाली हैं.हम एक ऐसे इलाके में अध्यापन का काम देख रहे हैं जहां लोग देश के लोकप्रिय प्रधान मंत्री जी तक का नाम नहीं जानते हैं.आप समझ सकते हैं कितना मुश्किल काम है. इसी से अंदाजा लगा लीजिएगा कि जनरल नॉलेज पर कितना काम करने की ज़रूरत है.(बसेड़ा की डायरी-3)

हमारा स्कूल हमारा घर है।इसकी सारी जिम्मेदारी हमारी है।हम किसी के भरोसे नहीं हैं।कुछ मिला तो वो हमारे लिए बोनस या ईनाम माना जाए।हम अपने माता पिता सहित हमारे सरकारी स्कूल की कायाकल्प करना चाहतीं हैं।हमें बताया भी गया और अब हम समझ गए हैं कि किताबी ज्ञान के अलावा भी टीम भावना और सामाजिकता जैसे कई पाठ हमें हमारा स्कूल परिवेश ही सिखाता है।(बसेड़ा की डायरी-4)

योग भगाए रोग।शारीरिक शिक्षक श्री नंदकिशोर दुबे जी के निर्देशन में प्रार्थना में रोज़ाना की ज़रूरी गतिविधि प्राणायाम और ध्यान।मैंने इसमें तानपुरे की धुन जोड़ दी है।अभी मोबाइल से चलाता हूँ।कुछ दिन में एक साउंड सिस्टम प्लान करेंगे।मैं स्कूल में बीते एक साल से एक प्रोजेक्ट पर काम कर रहा हूँ जिसका नाम है 'म्यूजिक इन द स्कूल'। जल्दी ही पूरी जानकारी साझा करूँगा।(बसेड़ा की डायरी-5)

इन दिनों की दिनचर्या से एकदम संकड़ाई में आ गया हूँ।वक़्त लगभग नहीं मिलता है।बीते सालों की फ़ुरसत बहुत याद आती है।कई नए कार्यालयी काम सिख रहा हूँ।सेकंडरी स्कूल दुर्ग का एक साल का अनुभव बड़ा काम आ रहा है।आजकल सवेरे पाँच बजे का उठा छह से आठ बजे तक रोडवेज का सफर तय करके बसेड़ा स्कूल पहुँचता हूँ।स्कूल जाने के बाद हिंदी और 'हिंदी की बिंदी' में कब दो बज जाते हैं मुझे पता नहीं चलता है।खैर मैं यह साझा करना चाहता हूँ कि सवेरे यात्रा के दौरान एक घण्टा शास्त्रीय संगीत सुनकर सार्थक करता हूँ।बाकी के साठ मिनट किताब पढ़ने में।आजकल 'कँवल भारती जी' को पढ़ रहा हूँ।क्या गज़ब की व्याख्या के साथ इस पुस्तक :दलित विमर्श की भूमिका' को रचा है।स्कूल में आदत के मुताबिक पाठ्यक्रम के साथ साथ गैर अकादमिक शिक्षा यानी 'जीवन का गणित' पढ़ा रहा हूँ।आते वक्त इतना थक जाता हूँ कि पूरे सफर बस में सोने की इच्छा रहती है।(बसेड़ा की डायरी-6)

सरकारी स्कूल अक्सर एक सरीखी खुशबू वाले होते हैं मगर उन्हें सतरंगा अगर कोई बनाता है तो वहां का स्टाफ।बेहतरी की गुंजाईश हमेशा बालमना विद्यार्थियों में ही बची रहती है।साथी और बुजुर्ग-मन वाले जड़ अध्यापकों में सुधार और ओरियंटेशन की संभावना एकदम ज़ीरो मानकर चलें।देहात के बच्चों के बीच काम करना ज्यादा सुविधाजनक और परिणामदायक अनुभव हुआ।अध्यापकी के बीते सत्रह साल के जीवन में मैंने पंद्रह साल सरकारी स्कूलों में अध्यापन (मेरे अनुसार अध्यापन का अर्थ नौकरी नहीं है।)करते हुए दर्जनों प्रयोग किए।आज भी जारी है।मैं कई मोर्चों पर सक्रिय रहा हूँ और उन सभी संगतों का निचोड़ अब स्कूली शिक्षा और इन विद्यार्थियों के बीच सार्थक करना चाहता हूँ।सिलेबस से बाहर जाने की मेरी आदत बदस्तूर जारी है।वैसे भी गाँव के स्कूल के बच्चे इस दुनियादारी के गणित को समझने में बहुत ज़्यादा पीछे हैं तो हमारी जिम्मेदारी अपने आप कुछ अतिरिक्त हो जाती है।मेरे अतीत का बहुतेरा हिस्सा गाँव ने ही घेर रखा है।सैंतीस की उम्र में बीस साल पर गाँव और बाकी पर शहरी आबोहवा का कब्जा है।फिर भी बताता चलूं कि कुलजमा मैं शहर की पकड़ और जकड़ से दूर रहना चाहता हूँ।वक़्त कम है काम ज़्यादा।एकाग्रता बलिदान मांगती है।कुछ गंभीर और गहरा काम करने के लिए अब आकाशवाणी,स्पिक मैके,आरोहण,फ़िल्म सोसायटी,आर्ट सोसायटी में उतना समय और विचार नहीं दे पाता।बसेड़ा स्कूल के बच्चे और गांव के अभिभावक धीरे धीरे मेरे दिल के पास आ रहे हैं।(बसेड़ा की डायरी-7)
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माफीनामा
नमस्ते
माफ़ करना विद्यार्थियो।हम गुरु नहीं सिर्फ मास्टर हैं.गुरु हो जाना बहुत बड़ा मसला है अभी तो हम अध्यापक होने के कगार पर हैं.जब तक हम समय,समाज और देशकाल की ज़रूरत के मुताबिक़ आज की युवतर पीढ़ी को ठीक से समझकर भविष्य की खातिर उसे तैयार नहीं करते तब तक मास्टर ही रहेंगे। गुरु नहीं बन पाएंगे.हमें मालुम है कि आप हमारी सच्चाइयां जानते हो.बस बोलते नहीं हो,यह आप लोगों की भलमनसाहत है.एक आहट हम समझ चुके हैं कि हमें अब सेलेरी केद्रित जीवन के खांचे से बाहर आना होगा।अब भी जान लें तो बेहतर ही होगा कि बोनस केन्द्रित विमर्श से बाहर भी जीवन है.वेतन आयोग के गणित के अलावा भी हमारी भागीदारी है जो समाज को बनाती और बिगाड़ती है.केवल अखबार पढ़कर अध्यापकी का 'धंधा' चला लेने वाले समझ लें क्योंकि अब समय वैसा नहीं रहा.कमज़ोर से कमज़ोर बच्चा भी थाह लेता है कि आज माड़साब बिना तैयारी के कक्षा में घूस गए.प्लाट/बिल्डिंग बेचने और शेयर मार्केट में व्यस्त रहने की तरह अध्ययन-अध्यापन धंधा नहीं है.


सबसे बड़ी बात 'अध्यापक' होना पार्ट टाइम नौकरी तो कम से कम नहीं ही है.अफ़सोस इन सालों में विद्यार्थियों से ज्यादा माड़साब को 'संजीव' और 'एक्सीलेंट' की ज़रूरत पड़ने लगी है.बेचारे टीचर्स का क्या होता? अगर संजीव भाई और एक्सीलेंट बाबा नहीं होते.पाठ्यक्रम में लगी पुस्तकों के अलावा सन्दर्भ किताबें पढ़ना तो दूर उनके टाइटल तक याद नहीं है.सिलेबस के अलावा किताबें कब पढ़ी ठीक याद नहीं है.बुजुर्ग होने के साथ ही अब सबकुछ बूढा गया है.माफ़ करना बच्चों हम आपकी ज़रूरत के मुताबिक़ अपडेट नहीं हैं.हमें मालुम है कि हम वक़्त के साथ वेतन और उम्र में सीनियर होते जाते हैं अनुभव में भी मगर जानकारियों के लिहाज से खाली और उथले.कभी माफ़ कर सकोगे क्या कि हमने आपके लिए सीमाओं से बाहर जाकर कोई गतिविधि प्लान ही नहीं की.हम सिर्फ आए हुए सरकारी आदेशों को निबटाने में ही ख़त्म होते रहे.हमें मालुम है कि रिटायरमेंट के बाद तुम हमें नमस्ते नहीं करोगे क्योंकि हमें अपने काम की उष्मा का स्तर मालुम है.

यह सभी गैर जिम्मेदार अध्यापकों की तरफ से आपको लिखा जा रहा एक माफीनामा है जिसे लिखने में मैं सबसे आगे हूँ.अगर माफ़ कर सको तो देख लेना कि मैं आपको पढ़ाया जाने वाला पाठ सीधे कक्षा में आने के बाद ही देख पाता रहा हूँ.पाठ के रेफरेंस में बनी फिल्म,किसी पुस्तक में आयी समीक्षा,पत्रिका में आया साक्षात्कार,कवि और लेखक से सजीव सम्पर्क की यादें जैसा कुछ भी खंगाल नहीं पाता मैं. मुझे नहीं मालुम मैंने आखिरी बार न्यूज पेपर के अलावा कौनसी साहित्यिक पत्रिका कब खरीदी और पढ़ी थी? ये भी याद नहीं रहा कि कब किसी साहित्यिक सेमीनार में गया और किसी जानकार से संवाद स्थापित किया.बच्चों मुझे माफ़ करना कि मेरे लिए स्कूल आना और जाना सिर्फ वेतन प्राप्ति का साधन मात्र है.माफी इस बात की भी कि मैंने कभी ये नहीं पता लगाया कि कौनसे बच्चे के माँ बाप कौन हैं? और उनके परिवार की मौजूदा स्थितियां कैसी है जो इसकी पढ़ाई को इफेक्ट करती है? मेरे पास डेली-अप-डाउन के चक्कर में इतना वक़्त नहीं है कि मैं गाँव में जाकर अभिभावकों से चर्चा कर सकूं.

भारतीय संस्कृति में गुरु पूर्णिमा का स्थान एक बड़े गंभीर अवसर के रूप में स्थापित है मगर क्या करें इन दशकों में ऐसे गुरु अब लुप्त:प्राय प्रजाति घोषित हो चुके हैं.ये वक़्त बड़ा कातिल है.समय आ गया है जब हम अध्यापकों को जो खासकर सरकारी संस्थानों में 'सेलेरी केन्द्रित' और 'वेतन आयोग केन्द्रित' समय बीता रहे हैं को अपने पड़त हो चुके चोलेे को उतार कुछ नया रचना होगा.हम नागनाथों के लिए ये केंचुली उतारने का समय है.मिलते हैं अगली गुरु पूर्णिमा पर. हो सकता है तब तक हम गुरु बन सकेंं.फिलहाल मैं अध्यापक हूँ.गुरु बन सका तो खुद ही दूसरा खत लिखूंगा.इसे अपने संवाद का पहला ख़त समझना.

भवदीय माणिक
(बसेड़ा की डायरी-9 जुलाई,2017)
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बसेड़ा में 'हिंदी क्लब' 

नए नवेले स्कूल को सूंघने के बाद पता चला पुस्तकालय में नि:शुल्क पाठ्यपुस्तकों के अलावा पुस्तकालय के नाम पर लगभग खालीपन है। मैं एकदम अवाक और सन्न। यहीं से एक पुराना आइडिया फिर से हिलोरने लगा। उत्तर मेट्रिक तक का संस्थान और लकवाग्रस्त पुस्तकालय। काम की गुंजाईश निकल पड़ी। 'सिलेबस के अलावा सन्दर्भ पुस्तकों और गैर अकादमिक रोचक साहित्य की ज़रूरत ही विद्यार्थियों को बेहतर इंसान में तब्दील कर सकती है' यह विचार कुछ साल पहले अपने वरिष्ठ साथियों की बदौलत ठीक से समझ आ गया था। पिछले साल की अध्यापकी के अनुभव में दुर्ग चित्तौड़गढ़ स्कूल में एक योजना अपनाई और इत्तफाकन बड़ी सफल हुई आज की डायरी के बहाने बता दूं कि किले के निवासी कक्षा नौ के साथी धीरज सालवी ने किले के बच्चों हेतु एक नि:शुल्क ग्रीष्मकालीन पुस्तकालय संचालित किया और बाईस प्रतिनिधि कहानी संग्रह में से कइयों को भरपूर पढ़वाया भी। इसी सन्डे के अवकाश में पुस्तकों की वापसी पर जब धीरज के घर गया तो पाया कि धीरज और उसके अभिभावक ने बड़े प्रेम से शाम की चाय पिलाई और देर तक इस नवाचारी काम के बारे में बतियाते रहे। धीरज ने मुंशी प्रेमचंद को जी भरकर पढ़ा,साक्षी ने मन्नू भंडारी को तो रीना ने मृद्ला गर्ग को। कोई ऋषिकेश सुलभ को तो कोई राजेंद्र यादव को पढ़कर बहुत खुश था। कई ने एकाध कहानी के बाद किताबें लौटाईं भी मगर हम इस तरह के उदाहरण के लिए तो हम पहले से तैयार थे ही।लाभ लेने वाले बच्चों की एक लम्बी सूची है जो मेरी सेलेरी प्रधान नौकरी का हिस्सा नहीं थी बल्कि मेरे फितुरमंद होने का फल था

बीच में एक मुलाक़ात के दौरान अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन के साथी और हिंदी प्रशिक्षक रमेश शर्मा जी ने भी इसी तरह का एक वाकया सुनाया। रमेश जी ने तेल के कुछ खाली डिब्बा ले ढक्कन लगाकर कनस्तर बना लिए। फिर कुछ चयनित बीसेक पत्र-पत्रिकाएँ ली और गाँव के एक सक्रीय बच्चे को दे आए, कहा अगले पखवाड़े आउंगा तब तक आपस में बांटकर पढ़ो। इसी तरह अपनी घुमक्कड़ी में एक दूजा कनस्तर किसी तीजे गाँव में दे आए। शहर से हमेशा मासिक पत्रिकाएँ ले आते और इस तरह बाल पत्रिकाओं का भी एक अच्छा कलेक्शन कर लिया। रमेश जी बड़े सहज और गंभीरता के साथ एक्टिविस्ट की भूमिका अदा करने वाले साथी हैं। वे इस आयाम को सफल करने में लगे रहे। परिणाम भी सुखद ही रहे। वे पंद्रह दिन बाद जाते एक गाँव के डिब्बे में दूजी बीस किताबें रख पुराणी किताबें बदलकर किसी तीजे या चौथे गाँव  वाले कनस्तर में छोड़ आते। चलते फिरते पुस्तकालय के ये संस्करण मुझे बड़े रुचे। गाँव के बच्चे पखवाड़ा ख़त्म होते ही रमेश जी और नयी किताबों का इंतज़ार करते। रमेश जी बताते हैं कि यह उनके जीवन का बड़ा ही रोमांचकारी अनुभव था। अब शायद वे बच्चे बड़े हो गए होंगे मगर वे यह कभी नहीं कहेंगे कि हमने अपने बचपन में पत्र-पत्रिकाएँ और गैर सिलेबस प्रधान पुस्तकें नहीं पढ़ी

ऐसे प्रयोग कोई हम ही कर रहे हों ऐसा नहीं है देश में ऐसा कई जगह हो रहा होगा। ऐसा करके हमने कोई कीर्तिमान रच लिया होगा ऐसी किसी भी गलतफहमी से हम कोसों दूर के आदमी है। हमें अपनी ज़मीन और आकाश की ऊंचाई हमेशा मालुम रहती है तो गिरने का डर नहीं सताता खैर काम होना चाहिए क्योंकि बालपन से ही पाठकीयता को लेकर गंभीर प्रयास करने की आज बेहद ज़रूरत भी है हाँ तो बसेड़ा में आज हमने अनौपचारिक रूप से 'हिंदी क्लब' बनाया और उसमें सबसे पहले कक्षा ग्यारह और बारह के बच्चों को कहानियों की पुस्तकें पढने के लिए प्लान की। एक युवा चेनराम को पुस्तकें थमाई और जिम्मा भी सौंपा।कक्षा में एकदम वंचित और उपेक्षित चेनराम के लिए यह अवसर उसमें जान फूँक गया। चेनराम ने जीवन में कभी सोचा नहीं था कि ऐसा अकादमिक काम भी उसे सम्भालाया जा सकता है। वो,मैं और बच्चे नयी पुस्तकों के पन्ने पलटने में मशगूल हो गए। सभी पच्चीस विद्यार्थियों को आज गुरु पूर्णिमा के भाषण की घुटकी के साथ ही एक-एक संग्रह थमा दिए एक सप्ताह एक संग्रह के लिए तय किया गया। अगले सोमवार 'हिंदी क्लब' की अगली संगत होगी। पुस्तक लेनदेन, हिसाब वगैरह सब चेनराम देखेगा। सावन के सोमवार का ऐसा हिन्दीकरण विद्यार्थियों ने पहली मर्तबा देखा था। देहात के ये बच्चे ऐसी अनौखी पुस्तकें आँखें फाड़ फाड़कर देख और समझ रहे थे। मेरे लिए यह किसी ज्ञानपीठ की-सी खुशी से कम नहीं था।जल्दी ही मैं यहाँ के पुस्तकालय के लिए आप सभी पाठकों से किताबें उपहार में मांगूंगा। कहीं जाइएगा नहीं। कामना है कि सभी पिछड़े इलाके के बच्चों तक 'हिंदी क्लब' की ये अवधारणा कमोबेश फेरबदल के साथ पहुंचे,भले ही माध्यम कोई भी हमविचार साथी हों

भवदीय माणिक
(बसेड़ा की डायरी, 10 जुलाई 2017)

1 comments:

  1. वाक़ई बेहतर कार्य से बच्चे बेहतर महसूस कर रहे होंगे ऐसी आशा ही नही बल्कि पूरी पूरी उम्मीद है।बच्चों के साथ हर एक पल इस प्रकार से कीमती हो सकता है इसे आप बेहतरी से समझ पाये है।शुभकामनायें

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