माणिक के संस्मरण में 'राजेश चौधरी जी'
'राजेश चौधरी' जैसी संज्ञा का अर्थ मेरे लिए अपने आप में एक
विश्वविद्यालय हैं और मैं उनका एकमात्र विद्यार्थी। मेरे इन दिनों के इस 'अज्ञातवास' का मतलब मेरा उनके साथ 'वास' है।चित्तौड़गढ़ जैसे शहर में उनका होना एक
गंभीर अध्यापक द्वारा शहर को पूर्णता प्रदान करना है। इन दिनों शामें उनके साथ
गुज़र रही है। ये शामें सालों तक की शामों को और आगे गहराई की तरफ ले जाती संगत की
सबूत हैं।
क्या गज़ब का आदमी है। कई बार सोचा कि मैं 'राजेश चौधरी' होना चाहता हूँ। यात्रा
जारी आहे। राजेश जी से मुलाक़ात यही कोई तीनेक साल पहले हुई होंगी। बाद के सालों
में मेरे और उनके बीच इतना दोस्ताना हो गया कि ये साल तीन दशक की बराबरी करने लगे।
वे मुझसे उम्र में दुगुने होंगे मगर हमउम्र हो जाने की कला उनमें बहुत खूब है। वे
जिससे बतियाते हैं उसी की उम्र के बन आगे बढ़ते हैं। किताबें एक से एक रखते हैं।
पक्के पढ़ाकू। कहते हैं एक बारगी किसी प्रोफ़ेसर के टोकने पर इतने लजाए कि अगले ही
बरस दिल्ली पुस्तक मेले से सौ के आसपास ज़रूरी और अद्यतन पुस्तकें अपनी लाइब्रेरी
में ले आए और पढ़ने लगे। वो दिन और आज का दिन। वे उस आलोचना को बार बार याद करते
हैं और मन ही मन उस दोस्त प्रोफेसर का शुक्रिया अदा करते हैं। डेढ़ साल पहले मकान
बदलने के सिलसिले में उन्होंने अपनी बहुतेरी ज़रूरी पुस्तकें हमारे ही दोस्त
जितेन्द्र यादव को उपहार भेंट कर दी। जितेन्द्र सही मायने में इसका उत्तराधिकारी
भी था ही। उस वक़्त मेरी पत्नी ने मेरा खूब मजाक उड़ाया कि राजेश जी की नज़र में आप
नहीं आए। मुझे यह स्वीकारने में शर्म नहीं कि मैं राजेश जी का उत्तराधिकारी तब
नहीं था अब भी नहीं हूँ मगर आगे होना चाहता हूँ और एक दिन बनकर
रहूंगा।
चौधरी जी में इतनी खामियां है कि उन्हें
चूमने को दिल करता है। दिल फ़रियाद इंसान। अटूट ।सादगी। हमारे अध्यापकी के जो थोड़े
बहुत गुण हैं उन पर उन्हीं के निशाँ हैं। वे अपनी कमियाँ स्वीकारने में एकदम तत्पर
रहते हैं। रत्ती भर भी दिखावा नहीं है इस आदमी में। खुश होते हैं तो गले लगाकर एक
चुम्मा पक्का। एक अदद संवेदनशील प्रोफ़ेसर। उनमें उनकी प्रोफेसरी का धौंस कभी दिखाई
दिया नहीं। उनकी साढ़े तीन दशक की कॉलेज की नौकरी हो या अपने ज़माने के कॉलेज की
स्मृतियाँ वे जब भी बात शुरू करते हैं तो इतने प्रेरित करने वाले किस्से उगलने
लगते हैं कि बार बार सलाम करने को जी करता है। एक जिम्मेदार अध्यापक के तमाम गुण
खुद में समेटे हुए इंसान हैं राजेश जी। चित्तौड़ शहर की किस्मत अच्छी थी जो वे
कानोड़ और ब्यावर के बाद यहाँ चले आए। देशभर के हिसाब से मानक स्वीकार्यता के आसपास
ही लिखते हैं और विचारते हैं मगर जब उन्हें आकाशवाणी या किसी पत्रिका के लिए लिखने
को आग्रह किया जाए तो खुद पर विश्वास कम व्यक्त करते हैं। लिखे को कई जानकार
साथियों से कन्फर्म करते हैं।
छपने या प्रसारित हो जाने के बाद भी संकोच के
साथ ही सही उनकी नज़र में अध्ययनशील लोगों से फिर चेक करवाते हैं। रहन-सहन और
बर्ताव बहुत लो-प्रोफाइल आदमी हैं मगर जब संवाद पर आते हैं तो हमें उनकी श्रेष्ठता
उनके बेहद करीब ले जाती है। उनसे मिलने के बाद कोई भी देर तक भीतर से हिलता रहता
है या फिर मंथन की मुद्रा में चला जाता है।कोई साहित्यिक आयोजन हो या फिर किसी
वार्ता का बुलावा हमेशा सन्दर्भों और अद्यतन पढ़ने के बाद ही वक्ता बनते हैं। किसी
भी आयोजन को या श्रोता या दर्शकों को हलके में आँकना वे बहुत बुरी बात मानते
हैं।राजेश जी ही वो व्यक्ति हैं जो मुझे पहली बार एक मई को मजदूर मेले में भीम, राजसमन्द ले गए। उनकी नज़र में समाज में
सामाजिक कार्यकर्ताओं की बहुत ऊंची जगह है। वे प्रतिबद्ध सामाजिक एक्टिविस्ट का
अतिरिक्त आदर के साथ सम्मान करते हैं। बानगी के तौर मुझे याद आया उनके टेबल पर
अरुणा रॉय जी का एक पोट्रेट हमेशा मौजूद रहता है। उनके साथ संगत के कई मोर्चे याद
आ रहे हैं। 'अपनी माटी' पत्रिका से लेकर शहर में
सिनेमा से जुड़े आयोजन हो या फिर 'माटी के मीत' श्रृंखला का अवसर। बाद के सालों में स्पिक
मैके, आरोहण और चित्तौड़गढ़ आर्ट सोसायटी हो हर अवसर
पर उन्होंने ने संबल दिया और आज भी वह हौसला अफजाई बरक़रार है।
यही वो गुरूजी हैं जिन्होंने मुझे फिज़ुलखर्ची, सांप्रदायिक सौहार्द, वैचारिक प्रतिबद्धता, बाज़ारीकरण, पुस्तक संस्कृति, प्रतिरोध, अध्यापकी, कॉलेज के प्रोफेसर, कागज़ी लेखक, दिशा भ्रमित युवा जैसी
टर्मिनोलोजी से परिचित करवाया।यही वो गुरु हैं जिन्होंने मुझे सिलेबस के बजाय
सबकुछ पढ़ाया। मगर अब मैं अपनी एम.ए. पूरी कर लेने के तीन साल बाद फिर से राजेश जी
से हिंदी साहित्य जैसा ज़रूरी विषय पढ़ना चाहता हूँ।मैं इनसे गंभीरता, सहजता और सादगी के पाठ सीखना चाहता हूँ। मैं
शागिर्दी में धीरज रखने जैसे आवश्यक गुण थाह लेना चाहता हूँ। स्त्री विमर्श के असल
पाठ, गिरस्ती जीवन के निचोड़ सहित दलित समस्याओं के
इर्दगिर्द तमाम बिन्दुओं पर इनसे ढेर-ढेर सवालों के साथ लम्बी मुलाक़ातें करना
चाहता हूँ।मैं कॉलेज सेवा से इनकी सेवानिवृति के बाद के दो साल के सबसे बड़े हिस्से
पर अपना कब्जा ज़माना चाहता हूँ।
राजेश जी इंटरनेट के इस युग में ज़रूरत के मुताबिक़ सिर्फ फेसबुक पर हैं।वे इस माध्यम के सिमित और अति आवश्यक उपयोग के ही हिमायती हैं।वाट्स एप पर नहीं हैं। भाषा के तौर पर हिंदी के हिमायती हैं और अंगरेजी को ज़रूरत के मुताबिक़ ही वापरने के पक्षधर हैं। एक अध्यापक को लगातार पढ़ने और अद्यतन पुस्तकें खरीदने वाला होना चाहिए इस तरह की मानसिकता के हैं राजेश जी। है। उन्होंने अपनी प्रोफेसरी के जीवन में कई प्रयोग ऐसे किए हैं कि उनसे प्रेरणा मिलती
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