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08 जुलाई, 2013

'मधुमती' में हमारी दो कवितायेँ

खबर अच्छी है या बुरी इस बात का 
अंदाजा लगाना आपके जिम्मे।
खबर ये कि मेरी दो 'कवितायेँ' 
राजस्थान साहित्य 
अकादमी की मुख पत्रिका 
'मधुमती' 
जुलाई-2013 अंक के 
पृष्ठ 82 पर छपी है।
अपने संशोधित रूप में 
रचनाएं यहाँ आपके लिए।

(1)आप कुछ भी नहीं है

इस नए समाज में
आप कुछ भी नहीं हैं
ग़र नहीं है
आपका कुछ भी
राजधानी में

प्लॉट या फ्लेट
पहचान या जुगाड़
रिश्तेदार या नेतानगरी
सरीखा कुछ भी सार्थक

आप नहीं टिक पायेंगे
इस दौड़ते ज़माने में
ग़र आप नहीं है

चालाक या चोर
बईमान या ज़रूरत के मुताबिक़ चापलूस
वाचाल और मुक्कमल ठग
जैसे गुणी
ग़र नहीं हैं तो
आप कुछ भी नहीं हैं

आपके होने से क्या फ़रक
जब आप ही मिसफिट हैं
सांठगाँठ और मेलमिलाप की
तिकड़ी बिठाने में अकुशल हैं
असमर्थ हैं ग़र आप
अंट लगाने,गाँठ सुलझाने
और लोगों के गले दबाने में

मुआफ़ करना हुजुर
आपका वज़ूद क्या है यहाँ
जूतों-कपड़ों
कारों-इमारतों की नित नयी डिजाइनों के बाज़ार में
उनके बगैर

स्मार्ट कार्डों,पार्टियों
और
बौद्धिक जुगालियों से तरबतर विमर्शों  के बगैर
आप कुछ भी नहीं हैं

वैरी सोर्री टू से
वक़्त के साथ फैलते
इस नए समाज में
आपके इंसान होने पर
शक की गुंजाईश हैं

ग़र नहीं है आपके पास
घर का मकान
घर की दूकान
दो माले का ऑफिस
और गऊमुखी प्लॉट

आप कितने कमज़रूरी इंसान हैं
इस नयी दुनिया के लिए
ग़र नहीं है हुनर आपमें

हाँ में हाँ मिलाने
हाकिमों का जी बहलाने
और झूठ की जाजम बिछाने का
सलीका नहीं आप में
आप कुछ नहीं हैं

आप असभ्य ही कहे जायेंगे
ग़र है आपके पास है
खेती-बाड़ी
गाय-भैंस
बैलगाड़ी
और ग़र आप रहते हैं
गाँव या जंगल में

आप कुछ नहीं हैं
आपका लेखन निरर्थक है
ग़र राजधानी में नहीं है
आपका कोई मित्र
प्रकाशक या आलोचक
सम्पादक या प्रबंधक
सरीखा जुगाडू

ज़वाबी कार्यवाही में एक बयान ये
कि
हम खारिज करते हैं
उपर्युक्त तमाम नयी परिभाषाओं को
इनके नियंता समाज सहित
उन्हें खारिज करते हैं

हम वाकिफ हैं
अपने भले होने के
अवगुणों से भली तरह
जानते हैं
हमारा धारा के विरुद्ध बरताव
तुम्हें अखरता है हर बार

मुआफी तो हमें दे दो
हम नहीं बह पायेंगे इतना तेज
नहीं गिर पायेंगे
अपने स्तर से नीचे तुम्हारी तरह
चाहे लाख कहो तुम हमें
'अवधिपार इंसान'

सच कहा तुमने
अब जाकर
हाँ

हम 'अवधिपार इंसान' ही हैं
-----------------------------------
आदिवासी

हमारा 'मौन' ,हमारी 'मेहनत'
सब शोध का विषय है
विषय होना ही चाहिए
हमारी स्थिरता,विवशता
हमारे जीवन की तरह
अब तक
हाशिये पर दर्ज़ हमारे बयान
पढ़े जाने चाहिए
किसी नए चश्मे से

जाने क्यों
टुकुर-टुकुर देखते हैं सब हमें
निगाहें टिकी रहती हैं हम पर
देर तक
जब कि चुपचाप जीवन खरचते है
हम लोग
कभी बाँसवाड़ा,कभी धार
या फिर
बस्तर की बस्तियों में
रहते हैं हम बिना हँसे
दिनों तक टेंशनशुदा
अजीब ढाढ़सबंधे लोग हैं हम
मगर तुम्हें इससे क्या?

कभी सोचना फुरसत में
कि हमारी चीखें
अब तक अनसुनी क्यों रहीं?

जो दिल्ली के रास्ते निकली थीं रैलीनुमा
बहुतों बार
बहला फुसला कर
दिशाभ्रमित कर दी गयीं
आज तक लापता हैं

चीखें जो कभी दंतेवाड़ा से निकली
कभी लीकेज हुई
बेतुल के बियावान से
कभी निकलने की सोच में ही खप गयी
बारां की सहरियाँप्रधान तहसीलों में

वे तमाम चीखें अंशत: अब भी मौजूद है
इस आकाश में
ग़र तुम सुनना चाहो तो

यक्ष प्रश्न है हमारा
कि लौट आयी वे तमाम चीखें
खाली हाथ
होकर निराश जो दिल्ली से
यूंही लौटती रहेगी

ग़र हाँ तो
कहो कब तक?

कितनी बार एक ही बयान देंगे
हम बार-बार रोयेंगे अपना रोना
कि
कई बार छले गए हम
हमारे भोले मनसहित
भाले गोपे गए
हमारी छातियों पर

कई बार सांप,गोयरे,बिच्छू रेंगे
गारे से लिपे हमारे आँगन में
हम कई बार मरे और जिए
खैर इससे तुम्हे क्या ?

डसे गए वे बच्चे हमारे ही थे
जो मरते मरते बचे कई बार
रातों में नींद नोचते
ठेकेदारों की गिरफ्त में
लुटे हम वक़्त-बेवक्त कई बार

मगर चुप रहे अक्सर
सही वक़्त की बाट में
हम न हिले न डुले
न तोड़ा अनुशासन कभी हमने
तुम्हारी तरह रोज़

सोचा कभी तो हिलोगे तुम
अपनी गद्दियों से
कभी तो डुलोगे अपने कुपथ से
झाँकोगे दांये-बांये
आखिर कभी तो

माणिक 
अध्यापक 
 
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