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26 जनवरी, 2022

मैं उन्हें ‘प्रणाम’ कहना नहीं भूलता और आखिर में वे ‘बाय’ कहना नहीं भूलते।

बसेड़ा की डायरी, 25 जनवरी 2022

छब्बीस जनवरी के एक दिन पहले स्कूल से कपड़े धोने और नहाने लिए मिली आधी छुट्टी की आभा खाली सरकारी स्कूल के टाबर-टींगर ही जान सकते हैं। इन दो दिनों की धुजणी और अचानक आई बारिश के बावजूद मार्चपास्ट-पीटी में सीना फुलाए झंडे को सलाम करना हम सभी की यादों का हिस्सा है। गाँव में कादेड़ा(पाटीदार) के घनश्याम भैया सालों तक दरजी का काम करते रहे। स्कूल ड्रेस पर प्रेस करवाने के लिए उनकी दूकान के बाहर देर तक इधर-उधर की बातें करते हुए अपनी बारी को तरसते थे। पिताजी पूरी ड्रेस शायद ही कभी नयी खरीद पाते थे। कभी शर्ट तो कभी खाली पेंट। स्वेटर के सपने देखना वर्जित था। कुछ कक्षाओं बाद कोयले की प्रेस घर में आ गई थी। इस बीच कई झंडारोहण दोस्तों की मम्मियों से प्रेस करवाकर काम निकाला। अपने से आगे की कक्षाओं की लड़कियों के लाल रिब्बन में पड़े फुग्गे तब खूब रिझाते थे। सहेलियों के प्रति उमड़े भाव कभी प्रकाश में नहीं आ पाए। भावों में व्याप्त ऊँचाई झंडे से भी ऊंची होती थी। सभी में कॉमन कुछ था तो वह थी ‘नुक्ती’। मिली हुई में से थोड़ी ही खाते थे। घर पर माँ इंतज़ार करती थी। जहाँ तक याद है पिताजी तो स्कूल आ ही जाते थे।

स्मृतियाँ लड़ालूम अनुभव हो रही हैं। सरपंच साहेब के नाम पर पटेलों के कालूराम जी के भाषण और उनका सफ़ेद जब्बा-पायजामा याद आता है। झंडे पर कविता पढ़ना, गीत गाना और भाषण देना लगभग पक्का था। ईनाम में मिले पेन और डिक्शनरी पूंजी हुआ करती थी। सालों तक हमने पतड़े की एक पेटी में खाली सर्टिफिकेट और ईनामी शील्ड सहेजे रखी थीं। दमदार आवाज़ वाले पीटीआई जी याद आते हैं। नाम भूल गया। काली दाढ़ी याद रही। निम्बाहेड़ा के थे शायद। जुम्मे की नमाज़ के पक्के मुसलमान। सहजता और आत्मीयता लुटाने वाले अदद व्यक्ति। स्कूल बंद होते ही वॉलीबाल की नेट तान देते थे। गाँव के युवा आ जमते। मैं देर तक रुकता। खेल नहीं पाता पर मैदान के बाहर गई बॉल लाकर देता और मन ही मन सोचता कि पीटीआई जी की नज़र में मैं ठीक बनता जा रहा हूँ। निर्मल मन की निर्मल यादें। टूर्नामेंट का मतलब उनकी शागिर्दी में तैराकी के लिए रावतभाटा जाना माना जाता था। स्कूल मतलब उस दौर के दो चपरासी अभी भी याद हैं। एक रसीद भाई और दूजे रमेश शर्मा जी। एक शराफ़त अली जी माड़साब थे। गणित और स्काउटिंग के प्रभारी। एक पंडित जी थे कन्नौज के संस्कृत पढ़ाते थे। धोती-जब्बा और मस्तक पर टिल्ली लगाते थे। हम वक़्त के साथ खुद माड़साब बन बैठे। अध्यापक बने लोगों की किस्मत में पैतृक गाँव का झंडारोहण हमेशा के लिए छूट जाता है जैसे एक बालिका को ब्याव के बाद पीहर की दिवाली भोगने को नहीं मिलती और बुढ़ापे में माँ को राखी भी ससुराल की मनाने का अभ्यास हो जाता है।

कोरोना की संगत में चौथा दिन। सवेरे उठो जबकि सवेरा बहुत बीत चुका होता है। गरम पानी से दातुन और फिर गरारे। अदरक-सनी चाय और मोबाइल महाराज की शरण। सवेरे से रात तक दर्जनभर मित्रों से बतकही का आनंद ही ऊर्जा उपजता है। मशीनों से मन लगाने की एक सीमा होती है। ज़िंदा आदमी से चर्चा का आलम न्यारा है। किताब के हाथ लगाना आदत में नहीं था तो इस नालायक वक़्त में तो कहाँ संभव। तीन पुस्तकें अधूरी पड़ी हैं। वे भी हालात समझ ही रही होंगी। दिमाग में अभी फिलहाल कचकड़े की थैली में बंधी गोलियों का गणित मौजूद है। दिन में तीन बार तापमान और ओक्सिजन मापन की सूचनाएं हैं। रात सवा नौ डॉ. लकुलीश जी पाराशर से ज़ूम मीटिंग। वार्ड नंबर अठाईस की नर्स बैंजी के वाट्स एप ग्रुप में तबियत का कुशल-समाचार भेजने का जिम्मा निभा रहे हैं। फायर ब्रिगेड वाले घर को सेनेटाईज कर गए। बेटी एक कमरे में अलग-थलग लेपटोप पर ऑनलाइन क्लासेज के भरोसे है। पत्नी यथाशक्ति भोजन-बर्तन-झाड़ू निबटाती है। माँ पहले से चुप है। स्वस्थ पर चुप्पी साधकर रहती है। मुट्ठियाँ बंधी हुई है अभी। कभी छत की धूप का आसरा तो कभी हीटर की लालछट छड़ियाँ सहारा देती हैं। ठंड और रजाई के बीच की कुश्ती में कटती हुई रातें हैं। न फ़िल्में देखी न गाने सुने। जीमण के जमघट में न जाने की कसमें आ-आकर चिढ़ाती हुई महसूस हुई। बुख़ार गायब हुआ पर गले में खाँसी को अपनी वसीयत लिखकर मरा। रात को दूध में हल्दी पी रहे हैं। उससे गिनती चालू है कि कितने दिन और पीनी है। नहाने का हुनर भूलते जा रहे हैं। दिनभर फेसबुक और वाट्स एप स्क्रोल करके सूर्यास्त जुटाता हूँ।

नए साल में मनीष रंजन जी से आज दोपहर में जाकर बात हुई। खूब सारी बातों को फ़टाफ़ट करते हुए वक़्त बचाना कोई उनसे सीखे। बातों के बीच ठहाके उनका अलहदा अंदाज़ है। जिन्हें हँसने से जबड़ों का दर्द होता है या गोड़ा-नाभि टलने का भय हो वे अपनी रिस्क पर ही उनसे बात करें। मनीष जी एकाएक नहीं खुलते हैं। ‘अपनी माटी’ के प्रस्तावित ‘रेणु विशेषांक’ पर संक्षिप्त पर काम की सारी बातें हुई। बिन्दुवार और व्यवस्थित बातें नहीं कहा जा सकता है। प्रोफेसरी के बीच परीक्षाओं में तैनाती में इससे ज्यादा मुनासिब भी नहीं। ऐसा निष्कर्ष निकालकर हमने आज की बात को विराम दिया। इन दिनों जाना कि तबियत पूछने के बहाने हम तबियत के अलावा विषय पर बातों के भयंकर शौक़ीन हैं। रमेश शर्मा जी से बाड़मेर के स्कूल में किए जाने वाले नवाचारों और काम के दस्तावेजीकरण पर बोलते हुए हम बेहतर समाज के सपने में हमारी जिम्मेदारी पर जाकर रुके। अनन्त दाधीच भैया का फोन आया तो मन्नू भंडारी, हंस पत्रिका, लघु-पत्रिका आन्दोलन पर चर्चा चल पड़ी। विषय पकड़ में आते ही बोले बगैर रहा नहीं जाता। दो दिन पहले प्रशांत भाई ने एक वेबिनार रखी और गोपाल भाई को वक्ता बनाया। मैं कोरोना की कराह के बीच भी इन दोनों उर्जावान युवाओं को सुनने का मोह नहीं छोड़ पाया। अंत में तीन मिनट बोला भी कि गोपाल की भाषा और विषय पर गज़ब की पकड़ है। स्कूली शिक्षा का यह आदमी प्रतापगढ़ के बजाय दिल्ली में कहीं नई शिक्षा नीति में हिस्सेदारी करता तो बड़ा परिणाम देता। “इस आदमी का ज़िंदा रहना ज़रूरी है।” जैसी पञ्च लाइन से वेबिनार समाप्त की।

मेरी सभी अभिरुचियाँ मेरे भीतर के माड़साब को मजबूत करती रहती हैं। मेरा मूल मेरी अध्यापकी में निहित है। स्कूल से दूर हूँ मतलब स्कूल जाने हेतु तैयारी के दौर में हूँ। बीते आठ महीनों से ‘अपनी माटी’ पत्रिका के सम्पादन में ज्यादा वक़्त देना मेरी सहमती से संभव हुआ है। तीन सामान्य अंक निकालने के दौरान खूब सुखद अनुभव हुए। दर्जनों शोधार्थियों से देर-देर तक बातें की। उनकी शोध यात्राओं का विवरण जाना। लिखने वाले पुलकित थे कि कोई पत्रिका है जहाँ संवाद करने के बाद छापा जाता है। पत्रिका की विविधता को कायम करने की कोशिशें की। मित्रों को जोड़ा। लोकतांत्रिकता के लिए स्पेस बनाया। राय-मशवरे के लिए रास्ते निकाले। नए साल में तीन विशेषांक पर जुटे हुए हैं। जीवन विद्या के तीन शिविर से विचारों में शुद्धिकरण हो ही रहा है। दो महीने बाद मीडिया विशेषांक आने वाला है। मेरे पीएचडी गाइड डॉ. राजकुमार व्यास और जितेन्द्र के पीएचडी गाइड प्रो. नीलम राठी दोनों के अतिथि-सम्पादन में विशेषांक अब आकार लेने लगा है। सुबह राजकुमार जी का फोन आया। देर तक योजना पर बात हुई। किनका इंटरव्यू लेना है किनसे आत्मकथ्य लिखवाना है। डिजायन का फोर्मेट क्या रहेगा। बहुत बारीकी से डिटेल्स प्लान करते हैं व्यास जी। अंत में कहते हैं “शाम को रिपोर्ट करता हूँ आपको माणिक जी” । यह वाक्य असहज करता है। यह उनका कद बढ़ाता है। असल में वे हमारे भीडू हैं। यार हैं। साथ में अंटियाँ नहीं खेली मगर ऐसा लगता है बचपन में छूपा-बाटी वाली मित्रता है हमारी। खूब प्यार लुटाते हैं। शुरू में मैं उन्हें ‘प्रणाम’ कहना नहीं भूलता और आखिर में वे ‘बाय’ कहना नहीं भूलते। उनके ‘बाय’ कहने का अंदाज़ विश्व में दूजा नहीं होगा ऐसा मेरा अंधविश्वास है।

-माणिक

(चित्र में राजकुमार व्यास जी और मैं) 

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