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10 जुलाई, 2013

10-07-2013

इस नए समाज में कुछ पड़त (पुराने) विचारों के इंसान भी हैं।कटना और खपना जो भी हों इन्हीं की संगत में। कभी-कभी लगता है ये 'वक़्त' लाइलाज़ है।मगर दूर के निशाने को लेकर एक गहरी सोच इन आजुबाजु के गैर ज़रूरी और कम समझदारों से भरे वक़्त को नज़र अंदाज़ करना सीखा रही है।जब हमारे आसपास के साथी आत्म-चिंतन नहीं कर पातें हैं तो उनकी 'पाँति'(हिस्से) का चिंतन भी हमें ही करना पड़ता है।कुछ दिन एकांत का-सा भोगना चाहता हूँ।मतलब फोन-फान बिलकुल नहीं के बराबर।आत्म मंथन,एनर्जी का एकत्रीकरण और कुछ कम लफ्फाजी बस यही कुछ।
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खबर अच्छी है या बुरी इस बात का अंदाजा लगाना आपके जिम्मे।खबर ये कि मेरी दो 'कवितायेँ' राजस्थान साहित्य अकादमी की मुख पत्रिका 'मधुमती' जुलाई-2013 अंक के पृष्ठ 82 पर छपी है।
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मैं स्वयं प्रमाणित करता हूँ कि ये छायाचित्र मेरा ही है जो साल दो हजार दस में होशंगाबाद की यात्रा में मित्र अशोक जमनानी ने खींचा था।अब कुछ हद तक तोंद बढ़ गयी तो लोगों की आँखों में आ रही है।उन्हें क्या मालुम पहले 'मरियल' होने के नाते मैंने कितने ताने सहे। कितनी बार कहना पड़ा कि 'नानेरा (ननिहाल ) की राड़ ही ऐसी है'. अब कुछ तसल्ली है।
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'क्या करें ?-क्या नहीं करें?' के द्वंद्व में फँसे एक 'ठाले आदमी' को ये 'रविवार' अतीत में घुसने के प्रवेश द्वार माफिक नज़र आता है।
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पकौड़ी,टोमेटो सॉस,सिसाड़े पाड़ती ज़बान,सीलनभरे कपड़े,कम्प्यूटर पर रोमांटिक गीत की बीच अचानक गाँव की याद हो आई जहां पिताजी अकेले हैं और माँ एक ब्याह के चलते अपने पीहर में हैं।अतीत में जाने की इजाज़त हो तो बता दूँ कि गाँव में हमारी भी एक टापरी होती थी जहां हर बारिश में पिताजी की जिद पर ही गुड के पकौड़े बना करते थे।रोटी टाइप के मीठे 'रेलिये' बना करते थे।पहले खाने की जिद में अक्सर बहन के साथ पहले पहल बने रेलिये के दो पीस करके मामले निबटाये जाते थे।मिसिंग दोज डेज।
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'मॉडर्न आर्ट' और 'गिरस्ती जीवन' दोनों को समझने में 'पाण'(मुस्किल) आ जाता है।
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सच में 'बारिश' अकेली नहीं आती है।देखो ना चित्तौड़ सहित भीग रहा हूँ।

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