13 मई 2021
दिनभर में पाँच अपनों के फोन आए उनमें से तीन साझा करने ज़रूरी हैं। यह साझेदारी संवेदनाओं का रक्षण है। दो बचपन के यार हैं और तीसरे प्रोढ़ लेखक होशंगाबादी। अरनोदा में दसवीं तक पढ़ा। एक क्लास आगे पढ़ता था पंडा महाराज का सत्तू। पूरे दिन साथ रहते थे हम। घर हो खेत हो खेल मैदान हो या फिर गाँव बाहर की तलाई। या कि फिर मंगरा पीछे वाला माता जी का मंदिर। कुछ न हुआ तो साप्ताहिक हाट की तरह मंगलवार को हनुमान जी के मंदिर का चौंतरा। पंडा महाराज वहाँ के पुजारी थे। मंदिर परिसर में पांचवीं तक का सरकारी स्कूल था। वहीं हम पढ़े भी और खूब दलिया भी खाया। पिताजी की जगह अक्सर सत्तू पूजा पाठ करने जाता। लगे हाथ मैं भी व्रत रखता और दो अगरबत्ती लगा आता। खूब देर तक मंदिर आए लोगों को देखते और बातों का ढेर लगाते। खानचणे और नारियल की चटकें हमारा अभीष्ट हुआ करता था। दो साल पहले पंडा महाराज की बू गुज़र गयी यानी सत्तू की बाई। होली थड़ा के ठीक सामने उनका घर है। कितने बरस तक हमने होली को जलते हुए देखने के लिए सत्तू की छत का ही उपयोग किया। याद आया बातों और चाय की बड़ी शौक़ीन थी बाई। बीते साल कोरोना वाले लॉक डाउन में पंडा महाराज भी चल बसे। सत्तू सालों से भीलवाड़ा की एक कपड़ा मील में कामगार है। आज बता रहा था अरसा हो गया उसने किराने की दूकान भी बंद कर दी और एक दो मंदिरों की सेवा का काम भी छोड़ दिया। उसके दुःख-दर्द से मैं नालायक न्यूनतम अपडेट था। भीलवाड़ा मेरा ननिहाल है और कई बार गया भी मगर सत्तू के घर नहीं जा पाया। मेरी प्राथमिकता से सत्तू कब गायब हुआ अहसास नहीं रहा। चार भाइयों में सत्तू सबसे छोटा है। सहज और मेहनती। पढ़ने में होशियार था मगर गाँव से बाहर पढ़ने नहीं जा सका। फ्री में डाक से आने वाली इसाई धर्म की प्रचार वाली पुस्तकें हम साथ ही पढ़ते थे। एक बार तो ‘बंगाल के ताश के जादू’ की पुस्तक भी मंगवाई थी। अहा क्या दिन थे वे।
मेरे पिताजी गुज़रे तब जनवरी की
शुरुआत में शोक की बैठक में आया था। सत्तू और मैंने साथ ही उर्दू सीखी थी कभी।
गाँव के मुल्ला जी घर पढ़ाने आते थे। सन तीरानवें का साल होगा। महीने के तीस रुपए
देते थे। आज देर तक सुख-दुःख साझा किए तो सारी तस्वीरों से धूल साफ़ हो गयी। अज्ञेय
ने लिखा था न कि दुःख सब को माँजता है। सत्तू की बाई शुगर से चल बसी और पिताजी
टांग में हुए फोड़े के पक जाने से। मेरे भीतर कृष्ण जैसा रत्तीभर अंश नहीं था मगर
गाँव वाले तब के वक़्त में कृष्ण-सुदामा की जोड़ी पुकारते थे हमें। गाँव में पहाड़ पर
महादेव जी का मंदिर है। हम कई बार साथ चढ़े और उतरे होंगे। कई साल तक साइकिल पर
सुखानंद जी गए और जंगलों में सीताफल, करोंदे और टीमरू तोड़ घर लाकर पकाए होंगे। पास
के गाँव मेवासा का अन्नकूट आज भी याद है। इकठ्ठे ही आते-जाते थे। ऐसे समय में जब
सभी की अनुभूतियों में जीवन हिचकोले खा रहा है तो सत्तू तुम्हने कितना कुछ ताज़ा कर
दिया। सच्ची कहूं यह एक्स्ट्रा ऑक्सिजन है। शुक्रिया मेरे बचपनिया मित्र।
दूजा फोन स्कूल और फिर कॉलेज के
दोस्त श्यामू का था। श्याम लाल तेली। अब तेली की जगह मोदी लिखता है। खेतिहर परिवार
से था। कुल तीन भाई। सबसे बड़ा श्यामू। पहले निम्बाहेड़ा में ग्यारहवीं और बारहवीं
निपटाई। फिर मैं अध्यापकी सीखने चला आया चित्तौड़। मेरे अधिकतर साथी चित्तौड़ कॉलेज
में रेगुलर पढ़ने लगे। श्यामू भी वहीं पढ़ा। फिर उसने इतिहास से मास्टर में प्रीवियस
ही किया कि सहसा गुजरात बुला लिया गया। उसके काका वहीं थे। ज्यादा कुछ याद नहीं
रहा अब। आज बता रहा था सपरिवार मस्त है। दिन में दो बार ठेला खोलता है।
पानी-पतासे, दाभेली और रगड़ा जैसा कुछ बेचता है। दर्जनभर डिशेज के नाम बताए। खूब
नोट छाप रहा है। तीन बेटियाँ हैं। आज भी बड़बोला है। मगर दिल का साफ़ है। सन
पिचानवे-छियानवे को ताज़ा कर रहा था। किराए के कमरे और विद्यार्थी जीवन पर खूब
किस्से याद दिलाए उसने। भरसक गुजराती बोलता है। इस तरह अब दुभाषिया हो गया। यही
उसकी दुकानदारी का राज़ भी है। माँ नहीं रही। पिताजी जब मन करता है मेवाड़ से गुजरात
चले जाते हैं। सबसे छोटा भाई अभी भी अरनोदा में ही खेती करता है। श्यामू की मीठी और कभी-कभार की बनावटी बातें
गुदगुदा रही थी। कोरोना किस बला का नाम है मैं भूल गया था, मम्मी की कसम। कह रहा
था, आपका दिमाग तेज़ है अब आप कलक्टर वाली परीक्षा दे दो बस। मैं तीस सैकंड तक हँसा
और उसे समझाया कि यह रास्ता डेढ़ दशक पीछे छोड़ आया। जो आनंद अध्यापकी में है किसी
में नहीं। हम कलक्टर बनते नहीं बनाते हैं। यह सुनकर श्यामू धापकर हँसा। इतने में
पानी-पुरी का ग्राहक आ गया और बात समाप्त। हम एक दूजे के परिवार का कौना-कौना सचाई
जानते थे। नकली ओढ़कर बातियाना संभव न था। खुशी मिली। गुजरात और मेवाड़ आज एकमेक हो
गया।
तीसरा कॉल असल में मुझे करना था मगर
होशंगाबाद से अशोक जमनानी भैया ने कर दिया। साल 2005 में स्पिक मैके में मिलने के बाद से रिश्ता है हमारा। जब उनसे बात
होती है तो गयी पौन घंटे की। घर से शुरू करके देश-दुनिया और संस्कृति पर आकर विराम
लेते फिर स्पिक मैके से होते हुए समाज और राजनीति की बातें करते हैं। भाषा में सभी
को उधेड़ते हैं अशोक भाई। हम एक दूजे को बराबर सुनते और बातों की दीवार चुनते।
समन्वय और आत्मिक संवाद का यह हमारा त्रैमासिक आयोजन साबित होता। फेसबुक पर उनकी
संक्षिप्त टीका-टिप्पणी और कविताएँ मुझे उनसे जोड़े रखती है। कभी छायाचित्रों से
नर्मदा मैया का हाल जान लेता हूँ। इन दिनों की डायरी पर शाबाशी देने ही कॉल किया
था। बोले गद्य अच्छा है। तारतम्य है। बने रहो। एक दिन बहुप्रतीक्षित कविता विधा
में ज़रूर लौटना। कहने लगे निराशा के इस घटाटोप में आशा कहाँ से बुहारकर लाएं।
व्यवस्थाओं में व्यवस्था सरीखा कुछ बचा नहीं। सब बेहोशी में डूबने को आतुर हैं। कई
नजदीकी जन चल बसे। यह कैसे भुला जा सकता है। गिरने की सीमाएं कौन तय करेगा।
ताले लगी ज़बान वालों को जल्दी नवाज़ा जाएगा। बोलने वालों के नाम सेमीनारों और वेबीनारों के आतिथ्य सूची से कटने लगे हैं। लोग पगड़ियां बचाने की जुगत में धोती को भूल गए हैं। नदियों को माँ कहें तो माँ की व्यथा पर देर तक हम दोनों स्तब्ध रहे। गायक पंडित राजन मिश्रा, बनारस के पंडित छन्नूलाल जी मिश्रा के परिवारजन, पंडित देबू चौधरी और प्रतीक चौधरी जी के बहाने कला जगत में बीते पखवाड़े पर विमर्शपरक बात हुई। इससे ज्यादा गंभीर नहीं हुआ जा सकता था। बातों में हम हँसे कम रोये ज्यादा। हमें फिलहाल कलाकारों को बचाना चाहिए कलाएं अपने आप बच जाएँगी। अशोक भैया तब भावुक हो गए जब वे मुझे लंगा-मांगणियार के बारे में बात करते हुए गिनाने लगे कि इनके रोजी-रोटी का अहम् जुगाड़ लॉक डाउन के कारण शादी-ब्याह बंद उधर सांस्कृतिक आयोजन पर सरकारी पाबंदी है। लेखक का दिल दूरी नहीं देखता है। यह होशंगाबाद की पश्चिमी राजस्थान को लाड़ करने की एक विधा थी। संवेदनाएं बची रहे। उधर भी और इधर भी। अपने भीतर को मरने से बचा सकें तो बचाइएगा।
कई राष्ट्रीय सांस्कृतिक महोत्सवों में प्रतिभागिता। अध्यापन के तौर पर हिंदी और इतिहास में स्नातकोत्तर। 2020 में 'हिंदी दलित आत्मकथाओं में चित्रित सामाजिक मूल्य' विषय पर मोहन लाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर से शोध।
प्रकाशन: मधुमती, मंतव्य, कृति ओर, परिकथा, वंचित जनता, कौशिकी, संवदीया, रेतपथ और उम्मीद पत्रिका सहित विधान केसरी जैसे पत्र में कविताएँ प्रकाशित। कई आलेख छिटपुट जगह प्रकाशित। माणिकनामा के नाम से ब्लॉग लेखन। अब तक कोई किताब नहीं। सम्पर्क-चित्तौड़गढ़-312001, राजस्थान। मो-09460711896, ई-मेल manik@spicmacay.com
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