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15 मई, 2021

बसेड़ा की डायरी : सभी गांव बेहाल हैं। और ईश्वर भरोसे भी।


12  मई 2021 

           


संझा आरती का वक़्त है। अनुष्का भगवान वाले आले में दीपक लगाकर घंटी बजा रही है। अंदाज़ अजीब है। गले में ब्लूटूथ वाला हैडफोन कनेक्ट है। नानी से बात चल रही है। आरती, दीपक आदि को बयाँ कर रहे है। यह ज़िंदगी का लाइव प्रसारण है। भयानक रोग से मुक़ाबला करने के यह वे तरीके हैं जिनका दस्तावेजीकरण अभी शेष हैं। अनुष्का की मम्मी गवारफली की सब्जी सीजा रही है। केरी की नुंजी भी। इधर माँ ने अभी शुगर की दवाई ली। वक़्त पर दादी को दवाई देने और भोजन परोसने का जिम्मा पोती के नाम। दोपहर के आराम के बाद उठा हूँ। कभी-कभार के आलस को छोड़ दें तो यही कहना है कि शाम में पत्नी डालर को कॉफ़ी बनाकर देना अच्छा लगता है। जी अर्धांगिनी का नाम डालर है। यह वैसे ही है जैसे सुबह की चाय उसके हाथ की पीता हूँ। शाम की छह से आधा घंटा अनुष्का और उसकी माँ भोपाल अपने माँ-पिताजी से बात करती हैं। यह रोज़ का शेड्यूल है। ऑक्सिजन देने-लेने का इससे बेहतर तरीका ईजाद नहीं हुआ। वे एकांतभोगी जीव हैं। बड़े-बूढ़े कह गए कि संबल देने-लेने से जीव राजी रहता है। मोबाइल में अलार्म लगा रखा है। साढ़े सात बजे नहीं कि ‘कुण्डली भाग्य’ सीरियल शुरू। ओक्सिजन लेवल संतुलन का यह उन्हीं ज़रूरी साधनों में से एक और है। 

 कल की डायरी तीन पेज की थी। फिलहाल आपसे साझा नहीं हो सकेगी। बीते साल एक रजिस्टर बनाया था। फिर से डायरी के अंश उसी में लिखने लगा हूँ। छपेगी तो कई परतें खुलेंगी। खैर। मन की शंका उखाड़ फैंकने के लिए सुबह कोरोना सेम्पल दिया। एक सौ चौंसठ नंबर पर नाम था। नर्स दिवस पर मेडिकल स्टाफ के अखिल भारतीय समाज को नमन करता हूँ। विज्ञान और प्रकृति है तो हम जीवते रहेंगे बाक़ी संस्कृति के नाम पर भभूत थथेड़ने वाले भी कम नहीं है। गंडा-ताबीज से बच गए तो सब बचा रहेगा। आस्था बिलकुल जुदा विषय है। टोटकों में विश्वास करने वालों को नकारें। बीते साल की ही तरह यह साल भी ज़िंदगी बचाने का है। न तो रीट नामक लोकप्रिय परीक्षा देना का है न ही पटवार भर्ती का।

 चौबीस घंटे बीत गए। कल शाम अज़ीम प्रेम जी वाले रमेश भाई से बात की। भाभी जी, बेटा अभिनव और बेटी अर्पिता पॉजिटिव हैं। सभी कैंकड़ी हैं। रमेश जी और बड़की बेटी आस्था सेवा में सन्नद्ध। बात नहीं होती तो बेख़बर ही रहता। मोहम्मद उमर भाई को नंबर मिलाया। उनके अब्बा नहीं रहे। घर-परिवार और कानपुर को लेकर तीन मिनट बात हुई। अनाथ हो जाने के बाद वाले बारह दिनों में ज्यादा बात करने की हिम्मत किसी में नहीं होती। पहुना वाले मुकेश से उनकी भाभी के अचानक चल बसने पर हिम्मत जुटाकर संवाद किया। रुपाली भाभी के अंतिम दिनों वाला सप्ताह और उसके संघर्ष को करीब से अनुभव किया। चारों आँखें गीली थी। फोन काटना पड़ा। दिलीप तोतला अध्यापकी डिप्लोमा कोर्स का साथी है। कुशल पूछने पर जाना भाभी डिस्चार्ज हो घर आ गयी मगर कमज़ोरी है। दोनों दिव्यांग हैं मगर हिम्मत नहीं हारे। कह रहा था बेटा दस साल का है छोटा-मोटा काम निबटा लेता है। वह खुद रोटी बना लेता है। भाभी जैसे-जैसे बताती जाती सब्जी भी छोंक तक पहुँच जाती है। गिरस्ती के ऐसे दृश्य आम हो रहे हैं। संवेदनाओं की परीक्षाओं का दौर है। अंत में पैतृक गाँव अरनोदा बात की। गोपाल भैया और भतीजी सोनू से घरभर का हालचाल जाना। ‘सब स्वस्थ हैं’, यह हिंदी का वह सरल वाक्य था जिससे कलेजे को असीम ठंडक मिली।

 सभी गांव बेहाल हैं। और ईश्वर भरोसे भी। एकदम चुस्त ‘थानेदार’ चल बसा। पता चला कि एक दिन पहले खाँसी चली बस। चित्तौड़ अस्पताल में भर्ती करवाया। दो घंटे में ही लाश घर लौट गयी। जी उसका नाम मेरी स्मृति में थानेदार ही है। बचपन से अब तक पूरा गाँव में उसे  थानेदार ही पुकारते ही सुना। कोई औपचारिक नाम भी रहा होगा। गज़ब का अभिनेता था। उसे हम अमरी भुवाजी के बेटे के नाम से भी जानते हैं। होली के दूजे दिन जमरा बीज मनाते हैं। अमरी भुवाजी इस त्यौहार का ख़ास किरदार माना जाता था। भुवाजी कई साल पहले चल बसे। हाँ यह सच है कि अब गाँव में फाल्गुन के बाद रंग खेलने को लेकर एक फीकापन पसर गया है मगर फिर भी बता दूं कि रंगतेरस और नौरतां उठने वाले दिन जितना हास्य थानेदार पैदा करता था शायद कोई नहीं। बहुत ज़ोर दिया तो तथ्य निकल कर आया कि उनका नाम सत्यनारायण लौहार था। भतीजी ने बताया शव एम्बुलेंस से बाहर भी नहीं निकाला। लोग छतों से ही देखते रहे। डर का यह अब तक का सबसे खतरनाक संस्करण था। पत्नी ने एम्बुलेंस के ही सात फेरे लिए। चेहरा देखना तो अब संभव कहाँ होता है। मालुम है थानेदार के लिए कोई स्मृति लेख नहीं लिखेगा।

 

ऐसे लाखों लोग गुमनामी में देह छोड़कर जा रहे हैं। व्यवस्थाएं नाकाम। ज़बान पर गुस्सा और गालियाँ। जीवन शैली को री-थिंक करने का नाटक। कुल जमा सबकुछ मसानिया राग। थोड़ा कुछ नार्मल हुआ तो सब भुला देंगे। हमें मान लेना चाहिए कि अब हम आदतन ऐसे ही सेट हो गए हैं। चीज़ें पांच साल तक भी याद नहीं रख पाते। हाँ पिछले दिनों दो तीन लोग और गुज़र गए। अचरज यह कि गाँव में लोगों को सीधे मरने की खबर मिलती है। बीमारी या कोरोना पॉजिटिव होने की नहीं। गाँव और शहर को यही बात अलग करती है। गाँव में लोग रोग छिपाते हैं और शहर में चलाकर बताते हैं। दोनों के अपने परिणाम और दुष्परिणाम हैं। आख़री ख़बर दूधवाले सूरज भैया ने डेढ़ किलो रोज़ की बंदी के बजाय आज दो किलो देने के लिए इंकारी में फिर सिर हिला दिया। कहने लगे गाँव वालों ने दूध देना एकदम बंद कर दिया। पहले से टोटा पड़ रहा है। कैसे पूर पाऊँ। थोड़ा खुलने पर बताया उन्हें शक है सूरज भाई शहर से रोग गाँव में न बाँट जाए, बस यही डर गांवभर में फैला है। आजकल तबियत के चलते बसेड़ा नहीं जा रहा हूँ। मगर डायरी तो बसेड़ा की ही कहलाएगी। अपना ध्यान मत रखिए अपनों का रखिएगा।


सन 2000 से अध्यापकी। 2002 से स्पिक मैके आन्दोलन में सक्रीय स्वयंसेवा।2006 से 2017 तक ऑल इंडिया रेडियो,चित्तौड़गढ़ में रेडियो अनाउंसर। 2009 में साहित्य और संस्कृति की ई-पत्रिका अपनी माटी की स्थापना। 2014 में 'चित्तौड़गढ़ फ़िल्म सोसायटी' की शुरुआत। 2014 में चित्तौड़गढ़ आर्ट फेस्टिवल की शुरुआत। चित्तौड़गढ़ में 'आरोहण' नामक समूह के मार्फ़त साहित्यिक-सामजिक गतिविधियों का आयोजन। 'आपसदारी' नामक साझा संवाद मंच चित्तौड़गढ़ के संस्थापक सदस्य।'सन्डे लाइब्रेरी' नामक स्टार्ट अप की शुरुआत।'ओमीदयार' नामक अमेरिकी कम्पनी के इंटरनेशनल कोंफ्रेंस 'ON HAAT 2018' में बेंगलुरु में बतौर पेनालिस्ट हिस्सेदारी। सन 2018 से ही SIERT उदयपुर में State Resource Person के तौर पर सेवाएं ।

कई राष्ट्रीय सांस्कृतिक महोत्सवों में प्रतिभागिता। अध्यापन के तौर पर हिंदी और इतिहास में स्नातकोत्तर। 2020 में 'हिंदी दलित आत्मकथाओं में चित्रित सामाजिक मूल्य' विषय पर मोहन लाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर से शोध।

प्रकाशन: मधुमती, मंतव्य, कृति ओर, परिकथा, वंचित जनता, कौशिकी, संवदीया, रेतपथ और उम्मीद पत्रिका सहित विधान केसरी जैसे पत्र में कविताएँ प्रकाशित। कई आलेख छिटपुट जगह प्रकाशित।माणिकनामा के नाम से ब्लॉग लेखन। अब तक कोई किताब नहीं। सम्पर्क-चित्तौड़गढ़-312001, राजस्थान। मो-09460711896, ई-मेल manik@spicmacay.com

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