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16 सितंबर, 2010

कविता:-ढूँढता हूँ वो रास्ते

कविता ढूँढता हूँ वो रास्ते
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जाते थे रास्ते एक गाँव से दूजे गाँव को
एक घर से दूजे घर को
मौहल्ले से दूजे मौहल्ले तक
मिलती थी गलियाँ बार बार
एक दूजे से बिना बात 
दिल भी मिले हुए थे लोगों के
लगते भी थे मिले हुए
पलट गया है वक्त इतना कि
अब बस हौड़ाहौड़ मची है 
रास्तों,गलियों और दिलों में 
हद पार तक बदल जाने की 
ना अब मिलते हैं बिना बात
और ये न घुलते हैं एक दूजे में 
बदली है फिजां इधर कुछ सालों से
बची नहीं हरियाली
ठूंठ खड़े रहे यहाँ
देखभाल के समझी बात
आदमीयत से उपजे 
उपहार की तरह रख छोड़ा है हमने 
अगली पीढी के लिए ही रखा तैयार
ये ज़माना बचाकुचा और तेज-तर्रार 
राहें खड़ी अकेली दूर तलक
धरके बैठी मौन,चीर मौन
जा बसे सब शहरों में 
कौन सुने तबसे 
गाथा गांवों की पास बैठ 
हो गई है जानबूझ कर 
बहरे कानों वाली दुनिया 
देख नज़ारा अब 
मैं भी गूंगा बन जाता 
जिद तो फिर भी बाकी है 
उन्ही रास्तों को ढूँढने की 
अगर मिल जाए कहीं
जो जाते थे एक घर से दूजे घर को
एक गाँव से दूजे को गाँव को
और मौहल्ले से दूजे मौहल्ले तक

 
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