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15 सितंबर, 2010

कविता:-''दिन बीते हरियाले''

कविता दिन बीते हरियाले
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जाना चाहता हूँ मैं फिर वहीं
जहां दिन बीते हरियाले
और फुरसती रातों में
ताका किए चाँद घंटों-घंटों
तुम आना मेरे गाँव
मिले जो फुरसत इस दुनियादारी से
इन झंझट और टंटेबाजी से
रहते हैं इधर भी इंसान
सांस लेते है तुम्हारी तरह
खाते हैं खाना
शायद तुम्हे मालुम ना हो
याद दिला दू तुम्हें
भूल ही गया होगा तू तो
यहाँ भी होता है उत्सव,लोग हंसते है
गाते हैं और नाचते भी
बहक गया था मैं भी तुम्हारी तरह
उस झडेदारी की बिरादरी में
संभाला होंश आज तो सोचा बैठकर देर तलक
चल दिया फिर वहीं गाँव की ओर
राह चलते राहगीर हैं यहाँ
और अनजाने से लम्बी बातें
एकदम उलट है ये जीवन तेरी दुनिया से
भटकाते थे बार-बार क्यूं
तेरे शहर के चौड़े रास्ते
आज समझ में आया है
अपनेपन से लदी हुई इन गलियों को पाया
और पगडंडियों पर यहीं फिर कजरी,चैती
होरी को टेर लगाकर दुहराया
खुले आसमान के नीचे आकर
आते आते पीछे मुड़ा नहीं मैं
सोचा भी नहीं तेरा शहर फिर से
उब आ गई थी
मन भर गया था
मगर यहाँ भी सच कुछ उलट गया है
लोग वही हैं पर रूप नया है
ढंग बदला-बदला है आज
चाल-चलन कुछ वैसा ही ठेठ
हाँ पर कुछ तो मन हल्का है
यहाँ की ठंडी छांव तले
जाएं भी तो कहाँ बताओ
ये बाजारी ये लाचारी
सभी और है फैली
दिल को लगता सबकुछ सच्चा
हिसाब की बारीकी मगर
जानता है दिमाग मेरा
दिल बुढ़ा गया है दिमाग जवानी पर है
अब चलती है यहाँ भी दिमाग की
तेरे शहर के लोगों सा
आलम पसरा है यहाँ कुछ वैसा ही
जाएं तो जाएं कहाँ.
फिर भी मन करता है चल पड़े वहाँ
जहां दिन बीते हरियाले

 
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