अगस्त-2013 अंक
एक इतिहास का आदमी जब भी कविता लिखेगा मतलब कविताओं में इतिहास झाँकेगा ज़रूर। कुल जमा सत्तर कविताओं से बना सुरेन्द्र डी सोनी का पहला कविता संग्रह 'मैं एक हरिण और तुम इंसान' किसी भी रसिक या नवे-नवेले पाठक को कविता से जोड़ने का काम ठीक से करेगा ये बात पक्की है। 'कल फिर आ जाना' कविता में सूरज तक को किनारे रख देते मस्त आदमी का मुकम्मल जवाब है वहीं 'तलवार' सरीखी अत्यंत छोटी कविता भी स्त्री विमर्श के किसी बड़े आयोजन को खुद में समेटने की हिम्मत रखती है। कवि अपने शुरुआती दौर में ही एक धार के साथ प्रवेश कर गया है।पेज तेईस पर छपी कविता 'कमिटमेंट' में एक आदमीजात इंसान अपने दोगलेपन से बाज आता नज़र नहीं आता है।अफ़सोस ये कि इस बारी फिर से वो पुरुषवर्चस्ववादी समाज में स्त्री के लिए संकुचित स्थान को दोहराता है। खैर। यही कथनी-करनी भेद 'करवा चौथ' शीर्षक कविता में भी यही दोगलापन फिर से बयान किया गया है। सुरेन्द्र बाबू ने बहुत थोड़े में गहरी बातें कहने की कला इस संग्रह में बखूबी दिखाई है। कविताओं में एक नास्तिक की छाप साफ़ तौर पर नज़र आती है और रचनाकार ने हर मोर्चे पर अपनी प्रगतिशीलता का दमभर परिचय दिया है।इसके लिए उन्हें अलग से बधाई।
'ताज़ा खबर', 'नमस्कार' और 'कागज़ आ' जैसी कवितायेँ हमें अपने चारोंमेर के वातावरण पर कटाक्ष करती दिखाई पड़ती है। सुरेन्द्र सोनी ने इन कविताओं के ज़रिए हमें अपने आसपास से बहुत कुछ अच्छा-अच्छा ख़त्म हो जाने की तरफ इशारे में समझाने की पूरी कोशिश की है। इसमें कोई शक नहीं है कि कवि ने विविध विषयों को छुआ है इस बात का अहसास यों भी हो जाता है कि उनके कई अनुभूत दृश्यों का सीधा बिम्ब इन कविताओं में दिखाई पड़ता है। एक और खासियत ये भी कि कुछ कविताएँ लम्बी होकर भी बोर नहीं करती है।एक बात और कि जब बहुत सारी कविताएँ रची जा रही हो तो कुछ कविताएँ एकदम मास्टरपीस साबित हो जाती है उनमें ही 'ठाठ' , 'आपका घर' , 'नहीं हो सकती वह' और आखिर में संग्रह की टाइटल कविता 'मैं एक हरिण और तुम इंसान' भी शामिल समझिएगा।
कल्पनाशील रचनाकार सुरेन्द्र सोनी ने जहां एकाधिक कविताओं में हमारा ध्यान आधुनिकता की दौड़ में हमारे विवेकहीन निर्णयों की तरफ खींचा है वहीं दाम्पत्य जीवन में आपसी मेलजोल से पनप सकने वाली खुशहाली की गुंजाईश की तरफ संकेत किया है। कवि संकेतों में बहुत कुछ कह सकने की मेधा रखता नज़र आया है। कुछ कविताएँ कमजोर भी है जो पहले संग्रह के नाते भी मान लें तो स्वाभाविक ही है।खैर।
संग्रह में कुछ कविताओं का और ज़िक्र किया जाना ज़रूरी लगता है जैसे कि 'नालियां' शीर्षक की कविता में हमारी राजनीति पर करारा व्यंग्य है-
पानी कैसे जा सकता है
अपने रास्ते…. ?
अच्छे पड़ौसी हो ना तुम लोग-
मंत्रीजी की कोठी का
ख्याल रखना
तुम लोगों की ज़िम्मेदारी है
अपने-अपने पानी को
समझाकर रखो।
पृष्ठ पैंतालिस पर छपी कविता 'सुनो तितली' को हमारी आधी आबादी की हालत पर कवि का एक बड़ा बयान समझा जाना चाहिए। 'अपनी ज़मीन: अपनी छत' जैसी कविता तो हर एक मध्यमवर्गीय प्राणी की कहानी है।जिसमें एक आदमी एक घर का मकान बनाने में पूरा खप जाता है और इस बीच जीवन का आनंद कब हाथ से रिपस कर निकल जाता है पता तक नहीं रहता है।इन्हीं विचारों के बीच कवि घर बनाना ज़रूरी ना समझ कर आखिर में जीवन को तरजीह देता है इस बात के बड़े मायने सोचे जाने चाहिए। 'फूल की पंखुड़ी पर शूल' कविता में कवि अपने ही भीतर के डर को उकेरने में सफल हुआ है।ये वही डर है जो कहीं नहीं होकर केवल मन के भीतर का निरथर्क डर मात्र है।
पठनीय संग्रह के लिए बोधि प्रकाशन और कवि सुरेन्द्र डी सोनी को बहुत सी बधाइयां और शुभकामनाएं। इस टिप्पणी को एक पाठक की कच्ची नज़रभर समझिएगा।बाकी रचनाकार के अगले संग्रह के हित अच्छी कामनाएं कि वे और भी धादार लिखें।जनपक्षधर लिखेंगे तो ये आमजन आपके आभारी रहेंगे। इनकी बातें, हक़ और मुश्किलों को लिखने की ज़िम्मेदारी आपको ही दी जाती हैं
माणिक
अध्यापक
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जवाब देंहटाएंआभार आपका !
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