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जकड़न,फसावट और संकड़ाई
एक से रंगों के मौसम हैं भाई
दम तोड़ता है
जहां
अब तक लड़ता हुआ
एक सीधा सटक आदमी
चुपचाप और अचानक
घटित घटना की तरह
वहीं
खुद को छोड़ते हुए अंशत:
पीछे छोड़ जाता है
एक सच जहां
अखबारी आंसुओं और
बनावटी शोक संदेशों के बीच
उसके नहीं होने का अहसास
सुबकता है बस
चुपचाप कोने में कहीं
गौर से मत देखो भाई
इधर उधर
बहुत से सीधे आदमी
गायब हो रहे हैं बस्ती से
इन दिनों
जाने किस बला की फसावट से
आँगन उदास है
इन दिनों
(2)
एक आगजनी के-से
मसले की राख
इतनी भी ठंडी नहीं हुयी अभी
कि
नींद फटक सके बिस्तर के बाजू
हमारे
खैर
किस्मत में लिखा हैं
कनस्तर के पीपों का शोर
हद से आगे तक सहा है
हमने भी
दम तोड़ते कान के परदों पर
आखिर तक
जब हम सबसे ज्यादा ठिठुरे
किसी ने नहीं परोसा
गरम कम्बल
न हाथ आकर थमे
विश्वास बंधाने
कंधों पर हमारे टिके
दिलासे,सांत्वना सरीखे
कोई वाक्यांश
नहीं निकले
हमारे बड़बोले मित्रों की जुबां से
उन दिनों
जब हम मजबूरन गूंगे थे
(3)
इतिहास की तरह
शनिवारीय यात्रा के तमाम चित्र
बन गए हैं झाले
रविवार की दीवार पर
मन को अखरने तक ज़िंदा रहेंगे यहीं
झालों में
एक बहकी हुयी शाम भी अटकी है
जिसे रात की मिलीभगत से
कल
अँधेरा बहला फुसला रहा था
बातों में
गोधूली
जिसमें गंतव्य की तरफ
भागती एक ट्रेन थी
रास्ते में पड़ती
बंद फाटकों के दोनों तरफ थे
गाड़ी-घोड़ों पर सवार
घरों को लौटते इंसान
यात्रा में खिड़की के पार
बहुत से खेत थे
लम्बे किये पाईपों से सजे हुए
नलों से पानी टपकाते
खम्बों पर ठेठ तक खींचे तार थे
हालातों के मारे
कभी ढीले पड़ते
तार
कभी मौक़ा देख तन जाते
हर वार की तरह विविधता भरी थी
ट्रेन के भीतर
ट्रेन के बाहर
रविवार में भी
और शनिवार में भी
फरक था तो बस हमारी आँख में था
*माणिक *
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