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छितराए बादलों के बीच
हंसता हुआ आकाश
साफ़ दिखता है
दूर से मगर
दर्द की तहों का मेल
जमा है दिल में कितना
कलेजा जानता है
उसका
(2)
गले पड़े गुलबंध की तरह
एक चेहरा
तीसों दांत से हँसते हुए
सरकता है बार-बार
गरदन के आसपास
तेज़ ठण्ड में
गुज़रती हवाओं की तरह
हर बार देता है
प्यार की
एक थपकी
सर्द रात में
ओढ़े हुए कम्बल की मानिंद
साथ निभाता है
(3)
चारों तरफ से भींचे हुए
आदमी की शक्ल
आज
जाने क्यूं
हमारी ही सूरत से मिलती है
हर मुसीबत पूछती है
पता
हमारे ही घर का
आज
जाने क्यों
निशाना साधती है
सारी बंदूके
हमारी ही छाती पर
(4)
जहां
हमारी गरदनों को रेतने
आतुर थे
तमाम हथियार
चाकू, दराती और छूर्रियों से
बयान उनके कड़वे ज़हर थे
कैसे उतरे थे
गले से नीचे
हमारी छाती जानती है
हत्यारी मुठ्ठियों में
वे तेज़ धार तलवारें
चमकती है
आज भी
स्मृतियों में गलफांस की तरह
आख़िरी वक्तव्य कि
ये बस
अब एक अफवाह है
कि
हम ज़िंदा है
*माणिक *
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kafi dino baad aayaa.. lekin dher sari achhi kavitayen padhne ko mili... ye kshanikayen behatreen hain manik bhai.
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