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19 नवंबर, 2012

'माँ' शीर्षक वाली क्षणिकाएं

Photo by http://mukeshsharmamumbai.blogspot.in/
दिवाली के पहले माँ  का फोन 
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किधर करूँ गमन
तुम्ही कह दो

अक्सर होती
घटनाओं की तरह
महिलामित्र से लम्बी बात के
ऐनवक्त
वेटिंग कोल में
माँ का नंबर आता है

जानता हूँ
जिसे लगाने में
माँ  ने गाँव के कितने
आते जाते लोगों के नोरे (मनुहार) किये होंगे

जतन से संभाली
पल्लू बंधी परची
से दड़बेदार आखर
फिर हुए होंगे पुलकित

जिन्हें मिलाने से
माँ का मोबाईल नंबर
मेरे सेल पर आता है
और मैं फटाक से
बकरे की गरदन की तरह
महिलामित्र को 'बाई' कह
फोन काट देना चाहता हूँ
माँ  से बतियाने की जुस्तजू में

दिवाली के बाद माँ के बगैर 
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माँ  के मौन को
नहीं समझ पाया
इस बार फिर
कथित तौर पर मैं पढ़ा लिखा
साबित हुआ

बहुत से बेकाम निबटाने की
दुहाई देते हुए
आखिर लौट आया
गाँव से यहाँ
अपनी दुनिया में

जब आया
गाँव छोड़ कर पीछे
एक दिन के फेरे से
वापसी में
केवल एकाएक ठोर
शहर ही दिखा मुझे
अफसोस

मगर
मन फुसफुसाता रहा
माँ  की अनकही बातें
मेरे ही कानों में
रातभर
शहरी चकाचौंध से उपजे
सन्नाटे
के बीच

मैं करता रहा
असफल कोशिशें
माँ के मौन
का सरलार्थ
समझने की
 
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