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एक गली
रोज़
नाक सिकोड़ती है
मौहल्ले की हरकतों पर
चढ़ाती है भौंहें अपनी
रोज़
वादे से मुकरते
बिजली के खम्बों पर
बरसती है जमकर
कसती है ताने
आलस की गोद में लेटे
पुरुषजात वक़्त को
कोसती है भरसक
रोज़
घर धणी को
पछाड़ती हैं जिसकी बातें
एक स्त्री की
शक्ल में दिखती है
ये गली
(2)
गद्यांश के सभी हिस्सों में
शामिल
नुक्तों, विराम चिन्हों की तरह
साथ है मेरे
कविता में भाव,लय की तरह
एक चेहरा
चस्पा है
इस दीवार पर जाने कब से
गहरी जड़ों के-से बरगद की तरह
अन्दर तक अहसासता
(3)
बहुत से काव्यांश
घुल गए
आकाशी वितान में
कुछ नए काव्यांश के हित
डगर बनाते हुए
बन गए
नींव का अंश
बुनते हुए
एक वैचारिक आधार
अब जाना कि
बनी हुयी इस
मुकम्मल कविता
की शक्ल में
क्यों दिखते हैं
चेहरे
बहुत सी अधबनी कविताओं के
*माणिक *
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