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09 नवंबर, 2012

कविता-थामे रखती है मुझको

Photo by http://mukeshsharmamumbai.blogspot.in/
कविता-थामे रखती है मुझको 


थामे रखती है
संभालती है
मुझको
बंधाती है ढाढस
और उत्साह उँडेलती है
मुझमें
लड़ने,खड़े रहने की हिम्मत
भरती है
प्रकृति की ये तमाम अदाएं

जब चैत्र प्रतिप्रदा
पर नीम पर उग आती
प्रफुल्लित होती है
कोंपलें लाल रंगी
कचकचाती हरी-हरी

जब वैशाखी
आरपार हवाओं के
अंधड़ बीच भी 
ठूंठ ठहरते है
पूरी ताकत सहित
लड़ते हैं

सीखता हूँ आसपास
उपज रहे दृश्यों से
रीझता हूँ कभी-कभी

जब दूर तक फ़ैली
पतझड़ की जागीर में
कहीं-कहीं खिलता है
बोगोनविलिया सूर्ख 
गुलाबी फूलों सहित
उल्लास से हिलता है

दूर तक चले
तपे रास्तों पर
कोइ अनजान जगह
मिल जाए प्याऊ
पानी पिलाते लोग अनजाने
पूरे आदर सहित नमे हुए

चढ़ाव की-सी लगती
ज़िंदगी में
उतार आ जाता
सहसा मनभर जाता
साहस से
निराशा का रंग उतर जाता

उद्देश्य मिल जाता
ज़िंदगी  को 
रास्ता आगे का
दिख जाता
खुद-ब-खुद
मंझिलों का मंजर
दिख जाता
कम होती धुन्धलाहट
के साथ
मौसम फिर खिल जाता

जब हाल हुए सर्वे से निकला
नितांत गरीब आदमी 
अपना उदय चाहता है
अपने हिस्से की ज़मीन
रोटी और छाँव
मांगता है हक से

मैं  चिंतनशील हो
विचारमय हो जाता
उसी क्षण जी उठती
इच्छाएँ फिर जीने की

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