कल मैं नगर के एक जानेमाने/मनमाने संस्कृतिकर्मी के घर,आकाशवाणी में हुई उनकी वार्ता के बदले दिया मानदेय वाला चेक देने गया.दोपहर का वक्त,वो सपत्निक भोजन पर थे.बिना घंटी बजाये मैं घर में घुसा.दरवाजा खुला था.सामने बैठा देख महाशय को नमस्ते परोसा.बस चेक की बात कहते हुए चेक दिया.अजीब बात ये है कि जिन्हें हम संस्कार दाता मान बैठे थे अब तक,आज वे संस्कार रहित निकले.बड़ा दुःख हुआ. घर आए को 'आओ,बैठो,पानी पीओ' कहना हमारी संस्कृति का हिस्सा रहा है.भले ही आये हुए का मन नहीं हो.मगर ये सब संस्कार वहाँ नदारद थे.मैं उनसे उम्र में बहुत छोटा,मगर डाकिया तो नहीं था.न ही आकाशवाणी का कोई चेक वितरक.भगवान् उन्हें सुमति दे कि तथाकथित रूप से कितना ही बड़ा होने के घुमान में वे भले जी लें मगर उनके संस्कारों खोज नहीं जाए.
24 फ़रवरी, 2012
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