शोध आलेख : दलित आत्मकथाओं से झाँकती देहाती दुनिया / डॉ. माणिक
समाज के किसी भी वर्ग का आँकलन करने और उससे जुड़ी सही समझ विकसित करने हेतु संबद्ध वर्ग के विभिन्न पक्षों को बहुत गहराई और बारीकी से पढ़ना ज़रूरी होता है। वर्ग विशिष्ट से जुड़े रचनाकारों का सृजनात्मक साहित्य भी इसमें प्रमुख रूप से सहायक साबित होता है। विशिष्ट रूपेण जब वह आत्मकथाओं जैसा इतिहासपरक लेखन हो तो अध्ययन का अकादमिक महत्त्व बढ़ जाता है। ग्रामीण भारत का विस्तृत हिस्सा आज भी वंचित वर्ग की कर्मस्थली है। अमूमन कई तरह के शोषण के शिकार यह लोग जीवनगत संघर्ष हेतु डटे हुए हैं। देहात को लेकर कई तरह की धारणाएं हमारे दिलोदिमाग में बनती-बिगड़ती रहती है। तर्क और अनुभव की ज़मीन पर बनी धारणाएं ज्यादा सटीक और प्रभावी होती है। कई दलित लेखकों द्वारा बीते तीन दशक में अपने स्वानुभूतिपरक लेखन यानी आत्मकथाओं में हिन्दुस्तान के देहाती अंचल की कुछ तस्वीरें पेश की गयी है।
प्रसिद्ध लेखक वीर भारत तलवार ने लिखा है कि “हिन्दी के दलित लेखकों में मोहनदास नैमिशराय शायद सबसे ज्यादा विविध अनुभवों वाला लेखक है। दलित साहित्य के अलावा दलित आंदोलन में भी सक्रिय रूप से जुड़े रहने के कारण उनकी राजनैतिक पृष्ठभूमि रही है। इन दो कारणों से उनकी आत्मकथा कुछ अलग और दिलचस्प हो गई है। अपनी आत्मकथा के दूसरे भाग में सेक्स संबंधी जितने वर्णन उनकी आत्मकथा में हैं, उतने दूसरे दलित लेखकों की आत्मकथाओं में नहीं मिलते। सूरजपाल और ओमप्रकाश की तरह नैमिशराय ने भी भंगियों और चमारों के बीच ऊँच-नीच और भेदभाव की भावना का बार-बार जिक्र किया है, जबकि वे खुद भी जाटव हैं। यह नैमिशराय के व्यापक और उदार राजनीतिक दृष्टिकोण को दर्शाता है। इसी दृष्टिकोण से वे सवर्णों को भी देखते हैं और छुआछूत संबन्धी उनके आचरण की कड़ी निंदा करने के बावजूद एक सवर्ण पात्र दुबे के बारे में लिखते है कि दोष उसका भी न था। दोष था उस परिवेश का जिससे वह आया था। हजारों सालों की मानसिकता धीरे-धीरे ही दूर होगी।”[1] इस तरह हम आत्मकथा में आए सेक्स सबंधी वर्णन से हम उस समाज के असल हालात और मुसीबतों का अंदाज़ लगा सकते हैं। यहाँ लेखन में जितने वर्णन आए हैं वहां शोधार्थी को भी लगा है कि कुछ जगह अनावश्यक रूप से इसे विस्तार दिया गया है। यह उनकी देहाती दुनिया का बड़ा सच है।
एक लंबा संघर्षमयी जीवन जीने वाली उच्च शिक्षा
में व्याख्याता रह चुकी दलित लेखिका सुशीला टाकभौरे ने अपनी मुफलिसी का वर्णन इस
कदर किया है कि “घर के सभी कपड़े धोने के ‘धोबी छाप’ साबुन से नहाते थे। कभी-कभी कपड़े धोने का साबुन
भी नहीं रहता। माँ कास्टिक सोड़े के सफ़ेद पाउडर को ठंडे पानी में डालकर ठंडा करती
फिर उससे हमारे बाल धोती थी। उसी सोड़े के पानी से हमारे हाथ-पैर साफ कर देती थी।
अभी जब मेरी बेटियाँ नहाने के लिए नए-नए, महँगे सुगंधित साबुन की मांग करती हैं और
विज्ञापन देखकर नए-नए शैंपू मँगवाती हैं, तब मुझे मेरी माँ याद आती है और माँ का
नहलाना याद आता है।”[2] यह सबकुछ बदलते हुए
वक़्त की तस्वीर है। समय के साथ समाज के यथार्थ में भी परिवर्तन हुआ है जिसे लेखिका
स्वीकार करके साफ़ तौर पर अपने वर्णन में बदलाव का सभी दृश्य पाठकों के सामने लाती
है। जीवनकाल में दुःख के पल कोई भूल नहीं सकता है यह कौशल्या जी के भी साथ हुआ है।
इसी तरह अपनी आत्मकथा के हाल में प्रकाशित भाग
तीन में हाल दिल्ली निवासी ख्यात पत्रकार और लेखक मोहनदास नैमिशराय ने लिखा कि
“पुलिस चौकी, पीर और मंदिर इन तीनों का ही हमारे दलित जीवन में बड़ा दखल था। कोई
दिन शायद ऐसा जाता होगा जब जाटव गेट पुलिस चौकी के रोज़नामचे में कोई रिपोर्ट दर्ज़
न होती होगी या मज़ार पर कोई माँ अपने बेटे की सलामती के लिए बताशों के साथ कपड़े का
टुकड़ा न चढ़ाती होगी या फिर मंदिर के सामने से आते-जाते बस्ती में रहने वाला किसी
का बाप, किसी
का चाचा, किसी
का भाई अपनों की रक्षा के लिए मूर्तियों के सामने खड़ा होकर प्रार्थना न करता होगा।
बस्ती के लोग-लुगाई इन तीनों की मेहरबानियों को अच्छी तरह से महसूस करते थे।”[3]
यहाँ दलित वर्ग में बहुत गहरे तक पैठ बना चुके धर्म और अंधविश्वास का असर साफ़ रूप
से देखा जा सकता है। यही सच भी है। आज भी कमोबेश हालात ऐसे ही मिलेंगे।
सामाजिक परिवेश में एक बड़ा हिस्सा ग्रामीण
भारत का है। अधिकाँश दलित आत्मकथाएँ ग्रामीण परिवेश से ही जुड़ी रही हैं। हाँ, बाद
के वर्णन में भले ही शहरी संस्कृति का जिक्र आया हो बाकी एक बड़े हिस्से में आपको
देहाती संस्कृति और समाज के लोक पक्ष के दर्शन हो जाएँगे। देहात का सच ज्यादा कड़वा
और झकझोरने वाला है। जूठन जैसी आत्मकथा पर बात करना बेहद मुश्किल काम है
क्योंकि यहाँ जितना विवरण हैं बहुत दुखभरा और कटु है। “घर-घर से जूठन इकठ्ठा करना,
बारातों में मिली पूड़ी के टुकड़ों को सुखाकर बरसात के दिनों में काम में लाना आदि
की स्मृतियाँ लेखक के मन के भीतर काँटे बन उग आती है। भूख से निरंतर लड़ते इस समाज
के प्रति कितने असंवेदनशील रूप से अमानवीय व्यवहार व बर्बरता बरती जाती रही और एक
लंबा दौर (अम्बेडकर-फुले से पहले) इस विषय में मौन रहा, यह जताता है कि साहित्य का
लंबा दौर केवल कला को ढोता रहा। उसने यथार्थ कठोर सच्चाइयों की लगातार अनदेखी की।”[4]
हम समझ सकते हैं कि समाज में जितनी भी कुरीतियाँ हैं वे सभी गैर-बराबरी की खाई को
कम नहीं करती हैं बल्कि और गहरा ही करती है।जितनी बेबाकी से ओमप्रकाश वाल्मीकि ने
लिखा है, दलित लेखन की परम्परा में बाद की पीढ़ी में कोई नहीं दिखा।
एक संपादित पुस्तक में लेखक हरिराम ने लिखा है कि
“मोहनदास
नैमिशराय की आत्मकथा अपने-अपने पिंजरे दलित साहित्य का ऐतिहासिक दस्तावेज़ है।
मोहनदास दलित आंदोलन के सक्रिय और राजनीतिक विचारधारा से ओतप्रोत हैं। इनकी
आत्मकथा में युग और परिवेश की झलक के साथ-साथ आलोचनात्मक दृष्टि भी दिखाई देती है।
इनकी आत्मकथा में मेरठ क्षेत्र की सांस्कृतिक झाँकियाँ भी परिलक्षित होती हैं, इस इलाके में लगने
वाले मेलों में गधो का मेला, रंडियों का मेला, नगरकोट का मेला, बाले मियाँ का मेला, छड़ी का मेला, भूमियाँ रानी का
मेला और गोग्गा पीर का मेला प्रसिद्ध है। अन्य आत्मकथाओं में इस तरह के मेले मिलना
बहुत मुश्किल है। अपनी जमीन और विरासत से जुड़कर रहना हर व्यक्ति के बस की बात नहीं
है। मनुवादियों ने जाति व्यवस्था को इतना मजबूत बना दिया है की लोग जाति की पूजा
करने लगे है। इससे जो जातियाँ प्राचीनकाल से ही हाशिये पर थी वे आज भी हाशिये पर
ही हैं।’’[5] स्पष्ट है कि
गाँवों में मेलों के आयोजन की एक लम्बी परम्परा रही है। मेलों के नाम में स्थानीयता और इलाके की
विविधता ख़ास महत्त्व रखती रही है। यह लोक के प्रति लेखक के अनुराग का एक सटीक
उदाहरण है।
प्रो. तुलसीराम ने बौद्ध धर्म और वर्ण-व्यवस्था
को विश्लेषित करते हुए लिखा कि “बुद्ध के वर्ण-व्यवस्था-विरोधी वैचारिक अभियानों
के चलते अनेक समकालीन ब्राह्मण गाँवों में उनका बहिष्कार किया गया था। कट्टर
ब्राह्मण बौद्धों को मुण्डक(सर मुंडवाया व्यक्ति) कहकर उन्हें भिक्षा देने से मना
कर देते थे। उस समय मुण्डक शब्द का अर्थ शूद्र से लगाया जाता था। वे बुद्ध को भी
मुण्डक कहकर संबोधित करते थे।”[6]
तो यह एक तरह से जड़ता और वैमनष्य को बढ़ाने के अलग-अलग तरीके थे। समाज में भेदभाव
की लकीरें आज की नहीं, अरसे से चली और खींची जाती रही हैं। बौद्ध धर्म के सबसे
ज्यादा प्रभाव में रहे प्रो. तुलसीराम से बेहतर इस धर्म की व्याख्या और दलित समाज
पर इसके प्रभाव को कौन समझ सकता है।
गौरतलब है कि “तुलसीराम की आत्मकथा का पहला खंड
काव्यमय है। उसमें लोककथाएँ हैं और लोककविता भी। उसमें श्रम के गीत हैं और संगीत
का महत्त्व भी। गाँव में दलित जातियों के बीच तरह-तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रम
होते हैं जिसमें संगीत और नृत्य की उपस्थिति अनिवार्य होती है। इन सभी
प्रवृत्तियों का चित्रण तुलसीराम ने मुर्दहिया में किया है। इसके साथ ही
आत्मकथा के पहले खंड में उनके साहित्य के व्यापक ज्ञान के प्रमाण मौजूद हैं।”[7]
इस आत्मकथा में केवल जातिगत भेदभाव को ही केंद्र मानकर लेखन नहीं हुआ है। यहाँ लोक
का अपना संसार हैं जिसके विस्तार में लेखक तुलसीराम बहुत से गीतों का हवाला देते
हैं। पाठक यहाँ उस क्षेत्र-विशेष की खेतीबाड़ी से भी एकाकार होते हैं। देहात को
समझना हो या लेखक के लोकेल को,यह आत्मकथा बड़ी मदद
करती है।
एक और उदाहरण से दलित लेखन में देहात की उपस्थिति
अनुभव करें तो जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली में हिंदी के प्रोफ़ेसर अजमेर
सिंह काजल के मतानुसार “मेरा बचपन मेरे कंधों पर कलात्मकता की
दृष्टि से श्रेष्ठ आत्मकथा है। इसमें ग्रामीण जीवन साकार हो उठा है। इसमें
बनावटीपन नहीं है बल्कि जो जीवन झेला गया है उसका साक्षात चित्रण है। स्थानीय अंचल
की बोली-भाषा और जनभावनाएँ अपने आपमें इसका उदाहरण हैं। आत्मकथा साहित्यिक सौंदर्य
का अनुपम दस्तावेज़ है।’’[8] श्योराज सिंह बेचैन
की तरह ही लगभग सभी दलित लेखकों ने अपने देहाती परिदृश्य को अच्छे से रचा है
जिसमें हम उनके ग्रामीण जीवन-अनुभव को महसूस कर सकते हैं। भाषा और वर्णन में एक
ठेठ वाला अंदाज़ है।
मुद्दे को थोड़ा और गहरे में समझें तो दलित
आत्मकथा तिरस्कार बेहद चर्चित रचना हैं। यहाँ वर्णित का अपना एक अलग लोक है।
“दलित आत्मकथाओं का
एक मजबूत पक्ष उनमें आँचलिक शब्दों का प्रचुर प्रयोग है। यही बात इस आत्मकथा पर भी
लागू होती है। सूरजपाल चौहान का बचपन गाँव में बीता, अत: देशज शब्दों का प्रयोग
यहाँ स्वाभाविक रूप से हुआ है। बसीठों(सवर्णों), गौंचना, बेझर, घेंटा-घेंटिया(सूअर
के छोटे बच्चे), भंडेले(जोकर), भंडयायी(भंडेले द्वारा नाच करते समय तरह-तरह की
हरक़तें करना), भोलुओं(मिटटी से बना एक बर्तन), दूना(भूना), घुटुल्ली(सूअर का छोटा
बच्चा), चौन्तरिया(देहरी के पास बना ऊँचा चबूतरा), अरहर की लौंद(संटी),
पोए(जानवर), खत्ते(घूरे), थेगड़िया, डींगर(जूएं), चीलर, पड्डा-पड़िया-कटरा(भैंस का
बच्चा), फट्टी, घोटा, पगाह, लांक(कटी फसल), दाया(अनाज को भूसे से अलग करवाना),
बद्द(बैल) आदि स्थानीय भाषा को लोक संस्कार से भरते हैं, ये आत्मकथाएँ
साहित्यशास्त्र के उस मिथ को तो तोड़ती ही हैं कि समाज का प्रतिष्ठित व्यक्ति ही
आत्मकथा लिख सकता है, इसके साथ ये आत्मकथाएँ ‘ललित लेखन’ की अवधारणा को भी खंडित
कर सौंदर्यशास्त्र की नयी दृष्टि से व्याख्या करने को अग्रसर करती हैं।”[9]
इस तरह पाया गया कि यहाँ भी ज़मीनी स्तर पर विविधता से सम्पन्न दर्जनों दृश्य हैं
जिनसे हम दलित वर्ग के संसार को समझ सकते हैं। इस तरह ये देशज शब्द हमारे शब्दकोष
और समझ में अतिरिक्त वृद्धि करते हैं। लगा कि एक-एक शब्द के पीछे पूरी परम्परा है।
बक़ौल प्रो. शरद नारायण खरे “आज हमें सामाजिक
सद्भाव, बन्धुत्व
व सामाजिक सहयोग की गहन ज़रूरत है। ऐसे में
हमें आवश्यकता भी ऐसे ही रचनाधर्मी साहित्य की है, जो सामाजिक परिवर्तन का ध्वज लेकर चल सके।
आज हमें न तो भगवा ध्वज की ज़रुरत है, न ही हंसिया-हथौड़ा की। आज हमें सदियों से चले आ
रहे सामाजिक अन्याय को नेस्तनाबूद कर देने वाले सामाजिक समानता के ध्वज की ज़रुरत
है। यह संतोष का विषय है कि न केवल स्वतंत्रता संघर्ष के काल में बल्कि स्वतंत्रता
प्राप्ति के उपरांत के काल में भी हिंदी साहित्य के अंतर्गत कहानी, कविता, नाटक, और निबंधों के
माध्यम से व्यापकता और प्रखरता के साथ सामाजिक चेतना और परिवर्तन की दिशा में
सार्थक प्रयास किये गए और वर्तमान में भी ऐसे समाजोपयोगी प्रयास
किये जा रहे हैं। हालाँकि ऐसे लेखकों के साहित्य को, दलित लेखकों और उनके साहित्य को ‘दलित साहित्य’
की श्रेणी में रखकर
कहीं न कहीं उनकी मानसिकता को पूर्वाग्रह-युक्त सिद्ध करने की कोशिश भी की जाती
है। मैं तो ऐसे साहित्य को ‘सामाजिक साहित्य’ और ऐसे लेखकों को ‘सामाजिक लेखक’ कहना कहीं अधिक उपयुक्त मानता हूँ। यह तो यथार्थ
है कि इस श्रेणी के अधिकांश लेखक ‘सर्वहारा वर्ग’ के ही हैं। पर क्या केवल अपने वर्ग के
हितों को अभिव्यक्ति देने से उस अभिव्यक्ति का मोल कम हो जाता है? कदापि नहीं।”[10] मतलब यह हुआ कि
समाज में गैर बराबरी को कम करने वाली दिशा ही सार्थक बदलाव ला सकती है। उसी से
सबंद्ध चेतना की आवश्यकता है। साहित्य पर समाज में बदलाव लाने की जिम्मेदारी
ज्यादा है। मतलब रचनाकारों को ज्यादा जवाबदेह होना होगा।
समाज में स्त्री का अपना दुःख और पीड़ा है जिसे
पुरुष लेखकों के साथ ही खुद महिला रचनाकारों ने भी स्वर देना आरम्भ कर दिया है। यह
स्त्री विमर्श के सशक्तीकरण के संकेत भी हैं। “कौशल्या बैसंत्री की आत्मकथा दोहरा
अभिशाप में एक तरफ दलित जीवन की पीड़ा को उकेरा गया है, वहीं पर दलित स्त्री के अपमान, संघर्ष, महत्वाकांक्षा तथा
स्वावलंबीपन को दृष्टिगोचर किया गया है। अपने बचपन में अभावों से घिरी रही, शिक्षा भी बड़ा
मुश्किल से प्राप्त की। उसके बाद घर-परिवार, नाते-रिश्ते इत्यादि सभी में अनेक तरह के
ताने सुनने को मिलते रहे। माँ-पिता के संघर्षशील जीवन से प्रेरणा पाकर आगे की पढ़ाई
जारी रखी जो कि दलित लड़की के लिए बहुत मुश्किल है। दलित छात्र आंदोलनों में सक्रिय
होने से समाज से लड़ने की भावना जाग्रत हुई और अपने अधिकार भी प्राप्त किए। इसके
अलावा जीवन के बड़े-बड़े फैसले भी लिए, इनमें से अंतर्जातीय विवाह भी एक है। इनका
वैवाहिक जीवन भी दु:खभरा रहा, पति ने इनका पग-पग पर प्रेम कम, अपमान अधिक किया।
यहाँ तक कि इन्हें बच्चा होने पर अस्पताल में मिलने तक नहीं पहुँचे और अपनी नौकरी
की व्यस्तता का हवाला देते रहे।’’[11] इस तरह के ब्यौरे
चौंकाने वाले हैं जो इस वर्ग के सामाजिक परिदृश्य को करीब से समझने में हमारी
सहायता करते हैं। हालाँकि पुरुष चरित्र के वर्णन ज्यादा नहीं चौंकाते हैं। यह भी
देहात पर हमारी समझ में कुछ न कुछ जोड़ता ही है।
परिदृश्य
में आँचलिकता की अपनी हिस्सेदारी है। ठेठ देहात के वातावरण का अपना सच है जो कई
बार हमारी आँखें खोलता है। “आँचलिक लेखन की धारा अभी सूखी नहीं है। थोड़ी क्षीण
ज़रूर हुई है। लेकिन अपनी सामाजिक पृष्ठभूमि तथा जीवनानुभवों के चलते दलित लेखक
इसके साथ जुड़ेंगे इसमें पर्याप्त संदेह है। परन्तु एक बात की तरफ हमारा ध्यान जाना
चाहिए और इसकी ओर ध्यान दिलाया है कन्नड़ के दलित रचनाकार व
आलोचक मोगल्ली गणेश ने। उनका कहना है कि दलित जीवन में सिर्फ़ दुःख और पीड़ा ही नहीं
है, उमंग और
उल्लास के भी क्षण हैं। इनकी तरफ दलित लेखकों की निगाह नहीं जाती, इसीलिए उनका लेखन एक
लम्बा शिकायती पत्र नज़र आता है, जिस दिन दलित लेखकों ने ‘लोक रंग’ में रूचि लेना
शुरू कर दिया उसी दिन से उनके आक्रोश का स्वरूप बदलेगा। दलितों के पारम्परिक
सांस्कृतिक उत्सव, गीत, नृत्य, स्वांग और तमाशे उपेक्षित नहीं रहेंगे। दलितों के प्रतिरोध की आवाज़ें
इन रूपों में विद्यमान हैं। इन्हें पहचानने की ज़रूरतभर है।”[12] यह
दलित वर्ग के ही भीतर दूसरी तरह की आवाजों को सुनने और समझने पर जोर देता हुआ
सन्दर्भ है। लगभग सभी आत्मकथाओं का मूल स्वर आक्रोश का ही है। अभी इस पर शोध किया
जाना शेष है कि क्या आक्रोश का स्वर स्वाभाविक और अवश्यम्भावी है या कोई दूजा
रास्ता भी ढूंढा जा सकता है, हालाँकि सदियों का संताप है तो वह लेखन में अतिरिक्त
पीड़ा के साथ ज़रूर प्रकट होगा।
प्रकृति और उसके साथ मानवीय समाज के रिश्तों की
एक लम्बी परम्परा और आपसी समझ है। ऐसे ही समीकरणों की पड़ताल करता यह सन्दर्भ यहाँ
समीचीन है कि “प्रचंड अकालग्रस्त गर्मी में दोपहर का समय था। उस पेड़ से करीब ढाई
सौ गज की दूरी पर पत्तू मिसिर का घर था । वे वहीं से मलदहिया (आम) की तरफ देखा
करते थे। चिखुरी को कभी इधर तो कभी उधर पेड़ के इर्द–गिर्द आम बीनते देखकर पत्तू मिसिर आशंकित
होकर गालियाँ देते हुए लाठी लेकर दौड़ पड़े। उन्हें देखकर चिखुरी तुरंत भागकर
मुर्दहिया की तरफ चले गए। मैं पेड़ पर काफ़ी ऊँचाई पर था इसलिए नीचे नहीं उतर सका,
इस बात से बुरी तरह डरा हुआ था कि आज पत्तू मिसिर बुरी तरह पिटाई करेंगे। अतः एक
डाल पर बैठे-बैठे मैंने पत्तेदार कई टहनियों से अपने को ढक लिया। गलती से मेरा एक
पैर डाल से नीचे लटक रहा था।...संयोगवश उन्होंने मेरे लटकते हुए पैर को देख लिया।
इसे देखते ही पत्तू मिसिर जय शुद्धू बाबा की, जय शुद्धू बाबा की कहते हुए पेट के बल
जमीन पर गिर पड़े। बड़ी मुश्किल से अर्द्धविक्षिप्त अवस्था में हकलाते हुए वे जय
शुद्धू बाबा की, जय शुद्धू बाबा की रट लगाते हुए अपने घर की तरफ गिरते–पड़ते भागे।”[13]
इसी सन्दर्भ में अपनी माटी नामक ई पत्रिका
में प्रकाशित एक आलेख में शोधार्थी जितेन्द्र यादव लिखते हैं कि “लेखक के अनुसार
शुद्धू नाम का कोई दलित पास के नीम के पेड़ से दतुवन तोड़ते हुए गिर कर मर गया था जो
खतरनाक भूत माना जाता था। लेखक के पैर को भी पत्तू मिसिर शुद्धू भूत का पैर मान
लेते है। घर पर वे बीमार हो गए उनको ठीक करने के लिए ओझाओं का जमघट लग गया। एक इसी
तरह की रोचक घटना और है। लेखक के परिवार में ही एक भाभी जिनका पेट दर्द होता रहता
है। एक ओझैत महिला के यहाँ का भभूत खाने से वह ठीक हो जाती थी। उसका कहना था भूत
के कारण पेट दर्द कर रहा है। यह भभूत लाने की जिम्मेदारी लेखक की ही रहती है। एक
दो बार के बाद लेखक को खुराफात सूझी। चोरी से बाहर बगल के घर से राख लेकर पत्ते
में लपेटकर वापस आकर दे देता था। उसे खाकर भी वह कहती थी पेट दर्द ठीक हो गया।
लेखक उसके मनोरोग को राख से संतुष्ट करता रहा।”[14] तो इस तरह ग्रामीण
भारत में अंधविश्वासों की जड़ों और उनकी गहरी पैठ को समझा जा सकता है। असल में यह
भी हमारे देहात की अंतहीन कथा का ही अंश है जो कई बार हमारे विचार-सागर में लहर
पैदा करता है।
समाज में आधी आबादी का प्रसिध्द निहितार्थ है
स्त्री। स्त्री शक्ति का परिवार में बहुत बड़ा योगदान होता है मगर उसे अक्सर नगण्य
माना गया है। “आज स्त्री के गुण ही अवगुण बने हैं। स्त्री की क्षमाशीलता का गुण
उसे पुरुष के हर अपराध को क्षमा करने की क्षमता प्रदान करता है। युगों से स्त्री
द्वारा पुरुष के दोषों को क्षमा करने की प्रवृत्ति के कारण स्त्री को कमजोर समझ
लिया गया। प्रभुलाल वर्मा लिखते है कि क्या क्षमा, विश्वास, श्रद्धा और संवेदना की
अनुभूति करना केवल स्त्री का ही धर्म है? क्या अग्नि परीक्षाएं देते रहना ही उसकी
नियति है? क्या अन्याय को सहन करते रहने का नाम ही स्त्री-पुरुष संबंधों की
बुनियाद है? सारे आदर्शों की पालना सिर्फ स्त्री की जिम्मेदारी है ? पुरुष का
आदर्श क्या स्त्री की परीक्षा लेने तक ही सीमित है? विधाता ने जहाँ स्त्री को
प्राकृतिक कष्ट दिए हैं, वहीं पुरुष उसे कृत्रिम कष्ट देने से नहीं चूकता है,
जिसके प्रमाण महिला आत्मकथाओं के साथ-साथ समाचार-पत्रों में भी देखने को मिलते है।”[15]
इस तरह प्रभु लाल वर्मा के शोध कार्य के पुस्तक रूप से हम महिला रचनाकारों की
आपबीती को कुछ हद तक समझा सकते हैं जिसमें दलित और गैर दलित दोनों ही तरह की
रचनाकार शामिल हैं। देहाती स्त्री के अपने दुखड़े हैं।
दलित आत्मकथाओं का एक बड़ा सच उनके देहात को समझे
बगैर जाना नहीं जा सकता है। “डॉ. तुलसीराम की आत्मकथा का प्रथम भाग मुर्दहिया,
उस स्थान का नाम है, जहां मुर्दे दफनाए और जलाए जाते थे। वहाँ जानवरों को भी जलाया
जाता था या उनकी खाल निकाली जाती थी। वैसे ही उनकी आत्मकथा का दूसरा भाग है, मणिकर्णिका
। मणिकर्णिका बनारस का वह घाट
है, जहाँ शवों का अंतिम संस्कार होता है। इस तरह मृत्यु और करुणा, आत्मकथा के
दोनों भागों का आधार है। वास्तव में जीवन की भयावह विषमताएँ और संघर्ष हर क्षण
मृत्यु की ही तो अनुभूति कराते हैं, जिस प्रकार मुर्दहिया में दलितों के
जीवन की सदियों से अव्यक्त त्रासदियाँ, उत्पीड़न व भेदभावपूर्ण स्थितियां उजागर हुई
हैं, उसी प्रकार इसकी रचना प्रक्रिया में भी कई ऐसे नए शब्द सामने आए हैं, जो
सामान्य भाषिक प्रयोग में अनजाने से हैं।”[16] संघर्ष
और वह भी मृत्यु जैसा भयावह दृश्य पैदा करने वाला संघर्ष। आत्मकथाओं के दोनों
भागों में विस्तार से आया वर्णन हमें क्षेत्र के निवासियों के पीड़ादायक जीवन को
समझने में मदद करता है।
देहात में भिन्न-भिन्न जातियों और गोत्रों के लोक
का भी अपना आलोक है। “उत्तर प्रदेश में चमार, रविदास, जायसवाल, कुरील, धुसिया,
जाटव, दोहरे, अहरवार, गुलिया, रैदासी, संखवार आदि एक जाति परिवार की विभिन्न
शाखाएं थी, उनके व्यवसाय कहीं एक जैसे थे, कहीं अलग-अलग। इनमें से कुछ अपने को
क्षत्रीय वंश से जोड़कर अपने नाम के आगे ‘सिंह’ लगाने लगे और कुछ अपने नाम के आगे
पिप्पल, कर्दम, कैन, खेम, निम और पिपरिया लिखने लगे।”[17] आखिर
वो क्या बात है जिसके कारण कुछ लोग जाति और गोत्र आदि छिपाने लगे हैं। गोत्र आदि
लगाने से नुकसान किन्हें हैं? और फायदे में कौन है? समीकरण समझना ज़रूरी हैं।
ग्रामीण भारत को लेकर हमारे मानस में कई तरह की
छवियाँ स्थित है। एक और सन्दर्भ यहाँ उदृत है “गांवों में उच्च जातियों द्वारा
निम्न जातियों को और सजातीय सशक्त-सम्पन्नों द्वारा गरीब और कमजोरों को उनके नाम
के बजाय जाति का नाम लेकर जैसे चूहड़े के या चमार के अथवा उनके पिता का नाम लेकर
फलाने के, ढिकाने के अथवा नाम किसी बिगड़े नाम से पुकारने की परम्परा है। ओमप्रकाश
वाल्मीकि का गाँव भी इसका अपवाद नहीं था। उच्च जातीय लोग तो जाति का नाम लेकर
पुकारते ही थे। बस्ती में ओमप्रकाश पुकारने वाला मेरी माँ को छोड़कर और कोई नहीं था।
कुछ लोग पिताजी की देखा-देखी ‘मुंशीजी’ भी कहने लगे थे।”[18]
वाल्मीकि के इस कथन के आधार पर स्पष्ट प्रतीत होता है कि समाज में किस तरह भेदभाव
कायम था। नाम बिगाड़ना असल में किसी के आत्मविश्वास को कुचलना ही होता है ताकि आगे
के कई रास्ते अपने आप बंद हो जाए।
इसी बीच कुछ अन्य घटनाएं। ओमप्रकाश वाल्मीकि की
ही जुबान में “एक और विशेष बात उस रोज हुई थी। चमनलाल त्यागी मेरे पास होने की बधाई
देने हमारे घर आए थे। ऐसा पहली बार हुआ था जब कोई त्यागी चूहड़ों के घर बधाई देने
आया था। बल्कि इससे भी ज्यादा बड़ी बात यह हुई थी कि चमनलाल त्यागी मुझे अपने घर ले
गए थे। बेहद आत्मीयता के साथ पास बैठकर दोपहर का खाना भी खिलाया था। वह भी अपने
बर्तनों में। छुआछूत के माहौल में यह एक विशेष घटना थी।”[19] यह भी सत्य है कि
इस तरह के सकारात्मक दृश्य अब बहुत तेज़ी से हमारे देहाती परिदृश्य को बदल रहे हैं।
यह सुखद है हालाँकि ऐसी घटनाओं की संख्या अभी कम ही हैं।
देहात में स्थित दलित बस्तियों के सच को एक और
किस्से से समझते हैं, “बस्ती के एक पुराने कुएं से पानी निकालते एक औरत उसमें फिसलकर गिर गई।
जब तक लोग उसे निकालें वह मर चुकी थी। उसकी लाश को मुर्दहिया पर दफना दिया गया।
पहले से ही घोर अंधविश्वासों तथा भूत-भूतनियों के आतंक से पीड़ित हमारी दलित बस्ती
में कुएं में गिरकर मरी हुई, इस नई चुड़ैल का भय बुरी तरह से छाने लगा। लोगों
ने उस कुएं का पानी पीना बंद कर दिया तथा संध्या होते ही उसके पास कोई नहीं जाता।
चुड़ैल के भय से लोग इतना आतंकित हो गए थे कि कई लोग दावा करने लगे कि रात में
उन्हें कुएं से ज़ोर-ज़ोर से पानी के हलकने की आवाज सुनाई देती है।”[20] इस तरह के एक नहीं
दर्जनों किस्से इन आत्मकथाओं में बिखरे पड़े हैं। अंधविश्वासों में डूबे दलितों के
विवरण लगभग सभी प्रसिध्द दलित आत्मकथाओं में आसानी से मिल जाते हैं। शिक्षा के
अभाव में देहात में व्याप्त अन्धेरा कुछ ज्यादा ही घना अनुभव हुआ।
एक चित्र और यहाँ उदृत करना समीचीन होगा। “मेरे पिता जी पूरी
धोती कभी नहीं पहनते। वे एक ही धोती के दो टुकड़े करके बारी-बारी से पहनते। ओढ़ने का
कोई इंतजाम न होने से गाँव के लगभग सारे दलित रातभर ठिठुरते रहते। हमारे घर में
सोने के लिए जाड़े के दिनों में घर की फर्श पर धान का पोरा अर्थात् पुआल बिछा दिया
जाता था। उस घर कोई लेवा या गुदड़ी बिछाकर हम धोती ओढ़कर सो जाते। इसके बाद मेरे
पिता जी पुनः ढेर सारा पुआल हम लोगों के ऊपर फैला देते। फिर स्वयं सोकर अपने ऊपर
भी वैसा ही कर लेते थे। जाड़े में ऐसी दुर्दशा पर सबेरा होते ही दलित बच्चे धूप में
बैठकर गाते: ‘अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेवा-ओढ़त लुगरी बिछावत लेवा’ जाड़ा भगाने के लिए हम सभी बच्चे एक और
गाना गाते: ‘दऊ दऊ घाम करा, सुगवा सलाम करा, तोहरे बलकवन के जड़वत हौ।’ इस तरह हमारी जाड़े
की रातें कट जाती थीं।”[21] उदाहरण अपने आप
स्पष्ट है। अब यहाँ लिखने को कुछ बचा नहीं है। यह अद्भुत कहने का स्थान नहीं बल्कि
पाठक को चिंता में डाल देने वाला स्थल है। हालात अच्छे नहीं कहे जा सकते। ऐसे
दृश्य से जान पड़ता है कि बिना सच्चाई जाने गाँवों के काल्पनिक और हवाई वर्णन करना
गलतफहमी में जीने के सदृश है।
देहात से शहरी आबोहवा की तुलना करते हुए मोहनदास
लिखते हैं कि “गाँव से बेहतर दिल्ली तो थी ही, पर गाँव में जाकर रहने का अलग आकर्षण था।
वहाँ जितना खुलापन था दिल्ली में उतना ही छोटी-छोटी गलियों में बंद डिब्बे जैसे
मकानों में रहने की विवशता। गाँव में अथाह गरीबी होती फिर भी एक-दूसरे के सुख-दु:ख में सम्मिलित
होने की भावना थी, और शहर में थोड़ा पैसा होने के बाद लोग एक-दूसरे से बचना चाहते
थे, पर शहरों की दलित बस्तियों में तब तक ऐसा नहीं था। वहाँ पड़ोसी को हांडी पर चड़ी
दाल के फुदकने का पता चल ही जाता था। वही दाल कटोरी और कटोरों में बंट कर
अड़ोसी-पड़ोसियों के यहाँ पहुँच जाया करती थी।”[22] यह
मिलनसारिता शहरी वातावरण में बेहद कम दृष्टिगत होती है इस तरह देहात में सबकुछ
बुरा नहीं है बहुत कुछ बचे हुए की तरह खुशी देता है जैसे मोहनदास नैमिशराय गर्व से
वर्णन कर रहे हैं। देहात का मोह होता है जो मूल निवासी को जड़ों की तरफ लौटने की
अपील करता रहता है।
अपने चिर-परिचित अंदाज़ में प्रो. तुलसीराम का
लिखा एक और वाकया पेश है जो बात को पुष्ट करेगा। “उस जंगल में मैं
जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा था, मुर्दहिया पीछे छूटती चली जा रही थी और साथ ही
छूट रहे थे इस प्रियस्थल के अनगिनत यादों के ढेर। गौतम बुद्ध के लिए जो स्थान था
आम्रपाली का, संभवतः वही थी मेरे लिए नटिनिया। इन सबके बीच मेरे मस्तिष्क पर हावी
हो गई मेरी ‘अशगुन’ वाली छाया। चेचक से जिस दाईं आँख की रोशनी चली जाने के कारण लोग मुझे
देखकर रास्ता बदल देते थे, उससे भी उतनी ही जलधारा फूट पड़ी थी जितनी कि
रोशनी वाली आँख से। जंगल की निर्जनता का फायदा उठाकर मैं बेधड़क रुदन प्रक्रिया का
शिकार हो गया।”[23] यहाँ लेखक के साथ
पाठक समूह भी अपनी भौतिकता की दौड़ में बहुत पीछे छूटते गाँव को याद करके दुखी
होंगे। परिवेश में कितनी ही कमियाँ क्यों न हो कोई अपनी जड़ों से बिछड़ना नहीं चाहते
हैं। देर-सवेर सभी लौटना चाहते हैं। अक्सर नौकरी या उच्च अध्ययन की तलाश में देहात
के युवाओं को कुछ साल के लिए घर-गुवाड़ त्याग शहरी आबोहवा का रुख करना पड़ता है। यह
तात्कालिक मजबूरी ही होती है।
भारतीय
समाज व्यवस्था को जितना गहरे में समझने का प्रयास करते हैं यह नित-नया ज्ञान और
अनुभव देती जाती है। हिंदी भाषा में छपी दलित आत्मकथाओं के माध्यम से ग्रामीण भारत
की कुछ समझ विकसित ज़रूर हुई है मगर अभी भी देहाती संस्कृति के कई पक्ष अनछुए ही रह
गए। यह भी सत्य है कि शोषक-शोषित के बीच वाले समीकरण से अलग भी इस लोक में कई
ज़रूरी रंग बिखरे हुए हैं जिन पर काम करते हुए संतुलित समझ विकसित करने हेतु विवरण
जुटाने होंगे। गाँवों में सबकुछ नष्ट नहीं हो गया है और शहर भी एकदम अनावश्यक नहीं
हो चले हैं। निष्कर्ष निकालने की जल्दी अच्छी नहीं। हाँ गाँवों में दलितों की स्थिति
उतनी भी अच्छी नहीं जितनी हमें समझ बना ली है।
[1] वीर
भारत तलवार :
‘दलित साहित्य के बढ़ते कदम ’, हिंदी
दलित आत्मकथाओं का समीक्षात्मक अध्ययन (सं हरिराम), अधिकरण प्रकाशन, दिल्ली, 2017, पृ. 51
[2] सुशीला टाकभौरे : शिकंजे का दर्द, वाणी प्रकाशन, दिल्ली, 2011,
पृ. 109
[3] मोहनदास नैमिशराय : रंग कितने संग मेरे, वाणी प्रकाशन, दिल्ली,
2019, पृ. 49
[4] पुनीता जैन : हिंदी दलित आत्मकथाएँ, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2018, पृ. 102
[5] हरिराम :
‘अपने-अपने पिंजरे में दलित समाज’, हिंदी दलित आत्मकथाओं का
समीक्षात्मक अध्ययन (सं हरिराम), अधिकरण प्रकाशन, दिल्ली, 2017, पृ.
18
[6] अतिथि सम्पादक श्यौराज सिंह ‘बेचैन’, सत्ता-विमर्श और दलित विशेषांक, हंस
(सं. राजेंद्र यादव) पृ. 62
[7] मैनेजर पाण्डेय : ‘तुलसीराम की आत्मकथा : अनुभव और
सोच का संगम’, तुलसीराम व्यक्तित्व और कृतित्व,
(सं. श्रीधरम ), पृ. 137
[8] अजमेर सिंह काजल :
‘मेरा बचपन मेरे कंधो पर’, हिंदी दलित आत्मकथाओं का
समीक्षात्मक अध्ययन (सं हरिराम), अधिकरण प्रकाशन, दिल्ली, 2017, पृ. 93
[9] पुनीता जैन : हिंदी दलित आत्मकथाएँ, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2018, पृ. 178
[10] मोहनदास नैमिशराय : हिंदी दलित साहित्य, साहित्य
अकादमी, नई दिल्ली, 2018, पृ. 330
[11] हरिराम :
‘दोहरा अभिशाप में दलित स्त्री संघर्ष’, हिंदी
दलित आत्मकथाओं का समीक्षात्मक अध्ययन (सं हरिराम), अधिकरण प्रकाशन, दिल्ली, 2017, पृ. 71
[12] बजरंग बिहारी तिवारी : दलित साहित्य : एक अंतर्यात्रा, नवारुण प्रकाशन, गाज़ियाबाद, 2015, पृ. 51
[13] तुलसीराम: मुर्दहिया, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पाचवाँ संस्करण,
2016, पृ. 94
[14] जितेन्द्र यादव : ‘मुर्दहिया और अन्धविश्वास’,
अपनी माटी (अंक 22), अगस्त, 2016,
http://www.apnimaati.com/2016/01/blog-post_76.html
[15] प्रभु लाल वर्मा : हिंदी में
महिला आत्मकथाकारों का आत्मकथा लेखन, ज्ञान प्रकाशन, कानपुर, 2017, पृ. 131
[16] पुनीता जैन : हिंदी दलित आत्मकथाएँ, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2018, पृ. 274
[17] मोहनदास नैमिशराय : हिंदी दलित साहित्य, साहित्य
अकादमी, नई दिल्ली, 2018, पृ. 185
[18] जय प्रकाश कर्दम : दलित साहित्य सामाजिक बदलाव की पटकथा, अमन
प्रकाशन, कानपुर, 2016, पृ. 114
[19] ओमप्रकाश वाल्मीकि: जूठन (भाग-एक), राधाकृष्ण
प्रकाशन, नई दिल्ली, बारहवाँ संस्करण, 2017, पृ. 76
[20] तुलसीराम: मुर्दहिया, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पाचवाँ संस्करण,
2016, पृ. 73
[21] तुलसीराम: मुर्दहिया, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पाचवाँ संस्करण,
2016, पृ. 34
[22] मोहनदास नैमिशराय : अपने-अपने पिंजरे (भाग दो), वाणी प्रकाशन,
दिल्ली, 2000, पृ. 60
[23] तुलसीराम: मुर्दहिया, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पाचवाँ संस्करण, 2016, पृ. 163
डॉ. माणिक,संस्कृतिकर्मी
कई राष्ट्रीय सांस्कृतिक महोत्सवों में प्रतिभागिता। अध्यापन के तौर पर हिंदी और इतिहास में स्नातकोत्तर। 'हिंदी दलित आत्मकथाओं में चित्रित सामाजिक मूल्य' विषय पर मोहन लाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर से शोध।
प्रकाशन: मधुमती, मंतव्य, कृति ओर, परिकथा, वंचित जनता, कौशिकी, संवदीया, रेतपथ और उम्मीद पत्रिका सहित विधान केसरी जैसे पत्र में कविताएँ प्रकाशित। कई आलेख छिटपुट जगह प्रकाशित।माणिकनामा के नाम से ब्लॉग लेखन। अब तक कोई किताब नहीं। सम्पर्क-चित्तौड़गढ़-312001, राजस्थान। मो-09460711896, ई-मेल manik@spicmacay.com
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