शुक्रिया बहुत छोटा शब्द हो जाएगा
शोध कार्य बहुत मुश्किल और मेहनतभरा काम है। साथ ही यह बेहद जिम्मेदारी का कार्य भी है। डॉ. राजेश चौधरी ने अपने निजी पुस्तकालय की सफाई के दौरान उनकी उपलब्ध किताबों में से दर्जनभर दलित आत्मकथाएँ निकाली थीं जो मुझे बतौर उपहार मिलीं, बस वहीं से यह लगन लगी। फिर मैं जहाँ पैदा हुआ, पढ़ाई-लिखाई की और बड़ा हुआ, वह माहौल दलित बस्ती की संगत जैसा ही रहा। जब अध्यापकी की तो साथी अध्यापक और विद्यार्थी भी अमूमन रूप से श्रमजीवी जातियों से थे। जमीनी सच के करीब का जीवन जीने से इन्हीं सवालों के इर्दगिर्द शोध करने में रूचि जगी। देशकाल की परिस्थितियों में आज के समाज में देखा और महसूस किया तो लगा कि यह विषय एकदम जरूरी मुद्दों के हल खोजने जैसा है। यह विषय जितना साहित्य का है उतना ही समाज विज्ञान का भी है। अंततोगत्वा इस विषय पर काम करने का अवसर मिला, यही सुकून था।
दलित जीवन का अध्ययन करने में रूचि थी मगर मैं सवर्ण जाति से सम्बद्ध था तो कुछेक जगहों को छोड़कर मुझे कहीं किसी दिक्कत का सामना नहीं करना पड़ा। दलित वर्ग से जुड़े जितने कार्यकर्ता और एक्टिविस्ट से मिला उन्होंने अतिरिक्त सहयोग की मुद्रा में मुझसे बातचीत की। मेरे शोध कार्य हेतु चयनित आत्मकथाओं के लेखकों में से ओमप्रकाश वाल्मीकि जी, कौसल्या बैसंत्री और तुलसीराम जी तो पहले ही दिवंगत हो गए मगर शेष में से तीन से सीधा संवाद संभव हुआ और मुझे शोध कार्य में एक आत्मविश्वास बंधा। मोहनदास नैमिशराय जी और सूरजपाल जी से संवाद करने की कोशिश की मगर मेरी तरफ से ही कुछ कमी रही और यह पूरा नहीं हो सका। शोध के दौरान कई भ्रम टूटे और कई नई धारणाएँ बनीं। दलित आत्मकथाओं को देखने के दो नजरिए अनुभव हुए एक वह जिसमें सवर्ण पाठक आत्मकथाओं को अपने पूर्वाग्रहों के साथ पढ़ता है और दूसरा वह जिसमें दलित रचनाकार अपने सच को ही शाश्वत सच मानकर अपनी बात पर अडिग रहता है।
शोध के सभी अध्याय पर क्रमवार अपनी बात कहूँ तो शोधार्थी के तौर पर पहला अध्याय सबसे मुश्किल था जिसमें विषय से सम्बद्ध अकादमिक विवरण के विश्लेषण करने कोशिश की है। भारतीय और पाश्चात्य सन्दर्भ में सामाजिक मूल्यों को समझने का प्रयास किया गया है। वैदिक काल से लेकर अभी तक के विभिन्न दौर में सामाजिक मूल्यों का विकास-क्रम क्या रहा, इसका विवरण पहले अध्याय में मिलेगा। दूसरे अध्याय में हिंदी साहित्य में दलित साहित्य की उपस्थिति की पड़ताल की गयी। कविता, कहानी, उपन्यास और आत्मकथा सहित अन्य विधाओं में दलित विमर्श कितना और कैसे संभव हुआ, इसके इतिहास पर संक्षिप्त अध्ययन संभव हुआ है। यहाँ हिंदी दलित साहित्य से सम्बद्ध सवर्ण और दलित आलोचकों के विशेष कथनों का विवेचन करने का अवसर मिला।
तीसरा अध्याय हिंदी की दलित आत्मकथाओं पर केन्द्रित है जिसमें मूल रूप से हिंदी में प्रकाशित रचनाओं को शामिल किया जा रहा है। इस अध्याय की विशेषता यह है कि इसमें सभी दलित आत्मकथा लेखकों के समाज और घर-परिवार का परिवेश चित्रित हुआ है। आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक, धार्मिक और राजनीतिक परिदृश्य के हिसाब से अध्ययन संभव हो सका। अंतिम दो अध्याय अमूमन शोध कार्य की तरह सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। चतुर्थ अध्याय में गौतम बुद्ध के समय से इक्कीसवीं सदी तक के काल में कौनसे-कौनसे सामाजिक मूल्यों का विकास संभव हुआ, का कालक्रमानुसार वर्णन और विश्लेषण किया है। विविध मूल्यों का उनकी प्रकृति के अनुसार वर्गीकरण किया गया। अंतिम और पाँचवें अध्याय में दलित आत्मकथाओं के मूल कथ्य को ही आगे बढ़ाने की कोशिश की गई है। चतुर्थ अध्याय में कई मुद्दें शामिल हो पाए। विशेषकर सामाजिक न्याय के संप्रत्यय पर चर्चा आवश्यक थी, जो समय रहते पूरी हुई। व्यवस्थागत विसंगतियों और सामाजिक-पारिवारिक जीवन में मौजूद अंतर्विरोध पर भी एक आकलन संभव हुआ। शोध में रूचि होने से कार्य करने में आनंद की अनुभूति हुई। अंत में दलित धर्म और आंतरिक ब्राह्मणवाद जैसी टर्म पर भी चर्चा और विश्लेषण संभव हुआ है।
सबसे प्रथम विषय-चयन में तत्कालीन हिंदी विभाग के प्रभारी प्रो. माधव हाड़ा का शुक्रिया, जिन्होंने राह दिखाई। मेरे शोध निर्देशक डॉ. राजकुमार व्यास का स्नेहिल सानिध्य ही था जिसके बूते मैं यहाँ तक पहुँचा। डॉ. व्यास ही हैं जिन्होंने सदैव गुरु के साथ ही मित्रवत संबल दिया। विभाग के वर्तमान प्रभारी डॉ. आशीष सिसोदिया का भी विशेष आभार मानता हूँ कि उनके सतत प्रोत्साहन और सामयिक पुनर्बलन से यह सब संभव हो सका। शोध कार्य बहुत लंबा और गहरा काम होता है। यह कई बार सामूहिक कार्य की तरह अनुभव होता है। अपने आसपास के जानकारों के छोटे-छोटे सहयोग से ही यह गति पकड़ता है। इसी क्रम में हमारे विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में सहायक आचार्य डॉ. नीतू परिहार, सहायक आचार्य डॉ. नवीन नंदवाना और सहायक आचार्य डॉ. नीता त्रिवेदी ने मार्गदर्शन किया। वार्षिक और मासिक बैठकों सहित विभागीय सेमिनारों और कार्यशालाओं में आपका निरंतर सहयोग मिला। आभारी हूँ।
हिंदी विभाग के कई अग्रज और अनुज शोधार्थियों सहित कुछ मित्रों का नामोल्लेख करना उचित होगा जिनके लगातार दबाव और सहयोग के चलते हुए यह शोध कार्य समय पर पूरा हो सका है जैसे आदित्य देव वैष्णव, विजय मीरचंदानी, सांवरमल जाट, मोहम्मद हुसैन डायर, अभिनव सरोवा, प्रवीण कुमार जोशी, विवेक भट्ट कुछ नाम हैं। मेरी इस शोध यात्रा में देशभर के कई मित्रों ने मेरी बहुत सहायता की है उनका भी यहाँ आभार मानता हूँ जैसे डॉ. सत्यनारायण व्यास, डॉ. बजरंग बिहारी तिवारी, प्रो. अजमेर सिंह काजल, डॉ. रेणु व्यास, फिल्म एक्टिविस्ट संजय जोशी, डॉ. मनीष रंजन, डॉ. पयोद जोशी, सामाजिक कार्यकर्ता भँवर मेघवंशी, मेरे चिकित्सक मित्र डॉ. अतुल खाब्या, अपनी माटी सम्पादक जितेन्द्र यादव और साहित्यकार अशोक जमनानी जैसे कुछ नाम याद आ रहे हैं।
पिताजी मोहन लाल जी और माँ कंचन बाई के लिए पीएच.डी. के क्या मायने हैं, नहीं जानता। उन्हें प्रणाम करता हूँ। इस शोध के कारण घर में रहते हुए जिनके हिस्से का वक्त मैंने सबसे ज्यादा उपयोग लिया वे हैं, पत्नी डालर और बेटी अनुष्का। दोनों को धन्यवाद कहना औपचारिकता हो जाएगा। शिक्षा विभागीय उच्च अधिकारियों सहित मेरे विद्यालय स्टाफ का धन्यवाद जिनके अप्रत्यक्ष सहयोग से ही यह सब संभव हो सका। शोध के टंकण में सहयोगी और मित्रवत विद्यार्थी गुणवंत कुमार, अर्जुन कुमार और दीपक कुमार की तिकड़ी का बड़ा सहयोग मिला। जब भी पीएच.डी. थिसिस हाथ में लूँगा ये तीनों बच्चे बड़े याद आएँगे। शोध समाप्ति के ठीक पूर्व की तैयारियों और अंतिम अध्याय लिखने के दौर में लगातार संवाद स्थापित करने और मनोबल ऊँचा बनाए रखने के लिए साथी शोधार्थी मैना शर्मा का भी शुक्रिया।
दिल्ली के विश्व पुस्तक मेले में भाई रमेश शर्मा के साथ की खरीददारी ने शोध को बड़ा सरल बना दिया था। इसी तरह कई अन्य पुस्तकालयों का भी योगदान रहा है जैसे केन्द्रीय पुस्तकालय मोहन लाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय उदयपुर, जिला पुस्तकालय दुर्ग रोड़ चित्तौड़गढ़, पुस्तकालय राजस्थान साहित्य अकादमी हिरन मगरी उदयपुर, पुस्तकालय, सामाजिक विज्ञान एवं मानविकी महाविद्यालय, राजकीय सरस्वती पुस्तकालय, गुलाब बाग, उदयपुर, नवारुण प्रकाशन दिल्ली और अजीम प्रेमजी फाउंडेशन जिला लर्निंग एंड रिसोर्स सेंटर पुस्तकालय, चित्तौड़गढ़। यहाँ उन सभी लेखकों और प्रकाशकों का भी आभार ज्ञापित करता हूँ जिनकी लिखी, संपादित और प्रकाशित पुस्तकों की मदद से मेरे शोध कार्य में मुझे बहुत आसानी रही।
सादर माणिक
सन 2000 से अध्यापकी। 2002 से स्पिक मैके आन्दोलन में सक्रीय स्वयंसेवा।2006 से 2017 तक ऑल इंडिया रेडियो,चित्तौड़गढ़ में रेडियो अनाउंसर। 2009 में साहित्य और संस्कृति की ई-पत्रिका अपनी माटी की स्थापना। 2014 में 'चित्तौड़गढ़ फ़िल्म सोसायटी' की शुरुआत। 2014 में चित्तौड़गढ़ आर्ट फेस्टिवल की शुरुआत। चित्तौड़गढ़ में 'आरोहण' नामक समूह के मार्फ़त साहित्यिक-सामजिक गतिविधियों का आयोजन। 'आपसदारी' नामक साझा संवाद मंच चित्तौड़गढ़ के संस्थापक सदस्य।'सन्डे लाइब्रेरी' नामक स्टार्ट अप की शुरुआत।'ओमीदयार' नामक अमेरिकी कम्पनी के इंटरनेशनल कोंफ्रेंस 'ON HAAT 2018' में बेंगलुरु में बतौर पेनालिस्ट हिस्सेदारी। सन 2018 से ही SIERT उदयपुर में State Resource Person के तौर पर सेवाएं ।
कई राष्ट्रीय सांस्कृतिक महोत्सवों में प्रतिभागिता। अध्यापन के तौर पर हिंदी और इतिहास में स्नातकोत्तर। 'हिंदी दलित आत्मकथाओं में चित्रित सामाजिक मूल्य' विषय पर मोहन लाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर से शोधरत।
प्रकाशन: मधुमती, मंतव्य, कृति ओर, परिकथा, वंचित जनता, कौशिकी, संवदीया, रेतपथ और उम्मीद पत्रिका सहित विधान केसरी जैसे पत्र में कविताएँ प्रकाशित। कई आलेख छिटपुट जगह प्रकाशित।माणिकनामा के नाम से ब्लॉग लेखन। अब तक कोई किताब नहीं। सम्पर्क-चित्तौड़गढ़-312001, राजस्थान। मो-09460711896, ई-मेल manik@spicmacay.com
कई राष्ट्रीय सांस्कृतिक महोत्सवों में प्रतिभागिता। अध्यापन के तौर पर हिंदी और इतिहास में स्नातकोत्तर। 'हिंदी दलित आत्मकथाओं में चित्रित सामाजिक मूल्य' विषय पर मोहन लाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर से शोधरत।
प्रकाशन: मधुमती, मंतव्य, कृति ओर, परिकथा, वंचित जनता, कौशिकी, संवदीया, रेतपथ और उम्मीद पत्रिका सहित विधान केसरी जैसे पत्र में कविताएँ प्रकाशित। कई आलेख छिटपुट जगह प्रकाशित।माणिकनामा के नाम से ब्लॉग लेखन। अब तक कोई किताब नहीं। सम्पर्क-चित्तौड़गढ़-312001, राजस्थान। मो-09460711896, ई-मेल manik@spicmacay.com
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