स्पिक मैके,जिसने मुझे बिगाड़ा
माणिक का संस्मरणात्मक आलेख
विश्वभर में अपने तरीके से चौतरफा फैलता हुआ सांस्कृतिक आन्दोलन स्पिक मैके
मुझ जैसे बहुतेरों के लिए जब-तब बड़े काम की झड़ी-बुटी साबित हुआ है। हमने जितना समय और ऊर्जा इसमें लगाई है उसके कई गुना पाया भी है। अगस्त दो हज़ार
दो का वक़्त रहा होगा जब पहली दफ़ा मैंने स्पिक मैके छाप दो बूंद ज़िंदगी की घटकी। तबसे लेकर अब तक मैं कहीं भी लड़खड़ाया नहीं। अनुभवों की उस तेरह साला पारी के बूते मैंने अपने अध्यापकी जीवन और आकाशवाणी के शौकिया काम में कई झंडे ऊंचाइयों के साथ गाड़े हैं। तब का लिया दाख़िला अब तक मुझमें एक ऐसी बड़ी पहचान दर्ज़ करा चुका है कि अब मैं खुद को
घरानेदार समझने लगा हूँ। मुझ जैसे कई साथी हैं जिनकी स्कूलिंग स्पिक मैके सरीखी
अराजितिक मुहीम में हुई है और हो रही है। ऐसे मित्रों का ससुराल कहो या पीहर अब स्पिक मैके ही है। इस तरह हमारे घराने का नाम हुआ स्पिक मैके। कामकाजी तबियत के हम आन्दोलनकारियों के बीच कई बार लगा कि दिल्लगी और मनमुटाव तो रहेंगे ही मगर काम जारी है और यही कहेंगे कि हमारी पहली
प्रेमिका तो स्पिक मैके ही रहेगी। मुझे अपने बीते में इस सांस्कृतिक बीमारी
ने इस तरह झकड़ लिया था कि अब ये जोड़ टूटता नज़र नहीं आता। खैर, तोड़ना भी भला कौन
चाहेगा। लाइलाज़ मर्ज़ की मानिंद पेश आता स्पिकमैकिया अब मेरी ज़रूरतों का हिस्सा बन पड़ा है। अपने जुड़ाव की शुरुआत में मैं एक तो कुँआरा था और शहर में
प्राईवेट स्कूल की हज़ार के मासिक वाली नौकरी के साथ एकदम फुरसती। रोकने टोकने वालों की अनुपस्थिति का सारा लाभ लिया जा सकता था, तो मैंने लिया भी। हरीश खत्री
करके एक पुराना स्पिक मैके सदस्य था वही मुझे इस डोर से फाँद गया। फिर तो मैं ऐसा जुडा कि खूब
मझे से रमा। कई नए किरदारों से मेल-मुलाक़ात के साथ देश के नामी कलाकारों की
सेवा-संगत के बीच उनकी सजीव प्रस्तुतियों का आकर्षण मुझे धीरे-धीरे बिगाड़ने लगा। मैं बिगड़ा तो मैंने औरों को भी बिगाड़ने की ठानी। आसानी से सपाट चलने वाली तब की मेरी ज़िंदगी में खुरदरे होने और अनुभव की ज़मीन
तैयार करने के वे साल आज भी मेरी पूंजी का बड़ा हिस्सा हैं। तब से लेकर आज़ तक
मैं बार-बार स्पिक मैके का शुक्रिया अदा करता हूँ। अब जबकि पिछले दो बरस से
मैं फिर से मैदान में आ डटा हूँ, यहाँ युवतर फितुरमंद साथियों के बीच स्पिक मैके आइडियोलोजी पर काम
करने में खुद को अब ज्यादा तल्लीन महसूस करने लगा हूँ। आन्दोलननुमा मुहीमों में यह आना जाना
और वोलंटियरशिप का भाव कम-ज़्यादा होना आम बात है, वही मेरे साथ भी हुआ।मगर अब यहीं हूँ।
किसी भी रुचिशील काम के अनुभवभरे एक दशक पर पिछे लौटकर यादों में
फेरे लगाना और हज़ारों पन्नों में से सहेजकर कुछ अनोखा लिख पाना मेरी मति के अनुसार बड़ा मुश्किल काम
समझा जाए। इस मौके पर जब हमारे तमाम दोस्त
आईआईटी रूड़की में होने वाले आश्रमी समागम में पहुंचे हैं, मैं प्रोफ़ेसर सिद्धार्थ
चक्रवर्ती के आदेशनुमा आग्रह को हथियाते हुए यह संस्मरणात्मक आलेख मैं आपके लिए लिख पाया। आज़
भी पहली मर्तबा जुड़ने वाले मित्रों को कह दूं कि यह आन्दोलन एक ऐसी चॉकलेट है जिसे
खाने से आपका एक भी दांत नहीं सड़ेगा। जैसा कि हमारे आन्दोलन के पितामह डॉ. किरण
सेठ अक्सर कहते हैं कि इसकी स्पिक मैके का असर अगरबत्ती की खुशबू की तरह धीरे-धीरे आपको
आग़ोश में लेता है और फिर आनंदित करके ही छोड़ता है। आपको सचेत कर दूं कि स्पिक मैके में शुरुआती अनुभव करेले की भाजी या
दाना मैथी की मानिंद कड़वे लग सकते हैं। ठेठ शास्त्रीय गायन के अंदाज़ वाली कुछ
बैठकें आपको चिकनगुनिया रोग में पिलाए जाने वाले काढ़े की तरह अरुचिकर भले लगे मगर आप
एक वक़्त के बाद खुद को इस आन्दोलन के प्यार में अनुभव करेंगे। मेरा प्यार अपने आगाज़ के तेरहवें बरस में है। हमने इस सफ़र में कई फक्कड़ हमसफ़र पाए। रात-दिन की स्वयंसेवा में कई किस्से
गड़े। कई लोकप्रिय और कम-लोकप्रिय कलाविदों को रेलवे स्टेशनों से लेने जाने और
अलविदा कहने वाली शामें इस आन्दोलन में हमने गूंथी है। अनगिनत सर्द दिनों में कलाकारों
के साथ अलावा तापे हैं और कई गर्म दिन चित्तौड़ के किले में बरगदों की छाँव बैठे और कथाएँ सुनी है। हमने अपने बनने की पूरी प्रक्रिया और दिशा निर्धारित करने की
बुद्धि इसी मूवमेंट में पायी है। जानीमानी हिंदी पत्रिका हंस के एक कॉलम का शीर्षक
चुराकर उधार लिए शब्दों में कहूं तो स्पिक मैके ने मुझे जितना बिगाड़ा किसी ने नहीं
बिगाड़ा है।
आज भी सैकड़ों प्रस्तुतियों में हिस्सेदारी, दसेक अधिवेशनों की प्रतिभागिता
और अनगिनत साप्ताहिक बैठकों की जाजम बिछाने और उन्हें संचालने के बाद भी कह सकता
हूँ कि मुझे एक भी शास्त्रीय नृत्य नाचना नहीं आता। मैं सरगम से आगे कोई राग-थाट की
शक्ल नहीं पहचान पाता। किसी भी तरह की गायकी और वाद्य यन्त्र पर क्रमश गला और
हाथ आज़माना मेरे बस का नहीं है। एक भी क्राफ्ट नहीं सीख पाया। योग के कुछ आसन ज़रुर
याद हो गए। श्रमदान का कोंसेप्ट थोड़ा सा थाह लिया है। बस। यों कह लीजिएगा कि बस सुनने
और देखने की थोड़ी सी तहज़ीब आ गयी। बड़ों और छोटों के साथ पेश आने का अदब आ गया।
कुलमिलाकर अब बाज़ार समझ आने लगा है। कला और कलाकारों की परख का थोड़ा सा विवेक पा
लिया है इन दिनों। इतना काफी है और अभी तो मुझे स्पिक मैके आन्दोलन की स्थापना की स्वर्ण जयंती
और प्लेटिनम वर्ष देखना और मनाना है। मन करता है इस आलेख से गुजरने वाले आप सभी
साथी भी इस आन्दोलन की संगत में आएं और भरपूर बिगड़ते हुए इसकी स्थापना शताब्दी वर्ष देखें। मेरी शुभकामनाएं आपके साथ
हैं। लगातार के आतमज्ञान के कह सकता हूँ कि आप वक़्त रहते बिगड़ गए तो आपका जीवन सुधर
जाएगा।
सच तो यही है कि हमारे विश्व और खासकर हिन्दुस्तान के कला जगत से चुनी हुयी
संस्कृतिपरक गतिविधियों का यह गुलदस्ता हम खुशकिस्मत लोगों के ही हिस्से आया है।
देशभर में काम कर रहे तमाम हमविचारों पर नज़र दौड़ाता हूँ तो पाता हूँ कि जिनको यह
रोग बचपन में ही लग गया वे अब सपरिवार इसमें संलग्न है। खुद जुड़े तो भाई-बहन को
जोड़ा। कहीं माँ-पिताजी रूचि संपन्न निकले तो वे भी आ जुड़े। कहीं पत्नियां आ जुडी तो
कहीं पति आ जुड़े। मैं भी शादी के ठीक बाद जम्मू कन्वेंशन गया। शादी के दूसरे साल
कोहिमा कन्वेंशन। जोड़े की धोक लगाने हम अधिवेशनों में जाते रहे। जोड़े से खूब काम
किया। मोह बढ़ता गया और माहौल गहराता गया। फिर उदयपुर, माउंट आबू, कोटा से होते हुए चला
सिलसिला चेन्नई और मुम्बई तक जा पहुँचा। सबकुछ सपत्निक। एक अनुभव की बात बताता हूँ
कि स्पिक मैके का तापमान और तबियत स्वयंसेवक की गृहस्थी की तबियत के हिसाब से तय
होती है। इस बात के कई मायने हैं समझने वाले एकदम सटीक समझेंगे। अगर किरण दा के कई बार के एक वक्तव्य को आज फिर आधार मान लें तो कहूंगा
कि इस स्पिक मैके में गृहिणियों का बड़ा योगदान है। तमाम बड़ी घोषणाओं में एक ये भी
कि शादी के बाद का मेरा योगदान नंदिनी का भी योगदान माना जाए। खैर, ज्यादा विस्तार से विषयांतर हो जाने की रिस्क है। वक़्त कैसे बीत गया, पता न चला। हम चित्तौड़गढ़ जैसे औसत तबियत के कस्बे में भी
एक विरासत में आयोजनों की चार की संख्या को तेईस कंसर्ट तक ले जा सके। गुणवत्ता पर काम किया सो अलग। यह कमाल
आन्दोलन में पहले से मौजूद सिद्धांतों का तो था ही फिर साफ़ दिल साथियों का भी
योगदान यहाँ याद किया जाना चाहिए। बेफ़िक्री में काम करने वालों की मंडली आती
जाती और बदलती रही मगर एक बड़ा दिलफेंक समूह यहाँ हमेशा अस्तित्व में रहा है। हमारे
बीच से हमारे रमेश वाधवानी जी और अनिल जेकब साहेब गुज़र गए जिनके सहारे हमने कई
मीटिंगों में कचोरी-समोसे बांटे और खाए। शहर-दर-शहर आए और गए। कई दीपावलियों पर
स्नेह मिलन टाइप आयोजन किए। कई पिकनिकों के कई छायाचित्र आज भी हमारे एलबम के
पन्ने घेरे हुए हैं। इन्हीं सभी जगहों से आन्दोलन में पारिवारिक होने की बू आती
रही। हमने भाई अशोक जैन, बड़भाई अशोक जमनानी, गंगा आंटी, सुचेता ताई से लेकर चित्तौड़ में डॉ. ए.एल.जैन और ओमस्वरूप सक्सेना जैसे प्रौढ़ और बुजुर्गों के बीच आचार-विचार की
तालीम ली। सबकुछ एक स्कूलिंग की मानिंद होता रहा। निष्काम कर्म का गमछा गले में
डाले हमने कई पौधे रोपे, पब्लिक साउंड सिस्टम के मार्फ़त बस स्टेंड और रेलवे स्टेशनों
पर क्लासिकल म्यूजिक बजवाए। क्या दौर रहा था वो भी। चिट्ठियों और साइकिलों का
ज़माना। बात इतनी भी पुरानी नहीं मगर दोस्तों, दस साल तो बीत ही गए हैं। पोस्टर चिपकाते आटे
की लेई का सूअरों द्वारा चट कर जाना तो आलेखों की पहली क़िस्त में कहा ही गया है।
किस्सों की गिनती मुश्किल है। जितने कहे जाए कम लगते हैं। मगर अभी सबकुछ गड्डमड्ड
हो रहा है।
अपनी उम्र में आए उतार के साथ ही मुझमें अगर कोई ऊर्जा भर रहा है तो वो या तो जबरन मूंह में चम्मच डालकर खिलाया गया च्वनप्राश है या आन्दोलन में कंधे से कंधा मिलाते युवा साथी। आज भी कॉलेजों में जो
युवा हैं उनमें ऊर्जा बेशुमार है। सच्ची कह रहा हूँ। इसे अनुभूति से निकला नवनीत समझे। यहाँ युवा का मतलब कोरी कल्पना
के बजाय मैं शाहबाज पठान, सांवर जाट, महेंद्र नंदकिशोर, विनय शर्मा, आदित्य वैष्णव वाली पीढ़ी से लेकर नज़मुल हसन, वैशाली गंगवानी, वर्षा दादवानी, रेणु तोषनीवाल, विजिता जैन और जुनेद शैख़
जैसी संज्ञाएँ उकेरना चाहूँगा जो इस आन्दोलन का वर्तमान और भविष्य दोनों हैं। थोड़ा
आसान लफ़्ज़ों में कहना चाहूँ तो स्पिक मैके लाइफटाइम रिचार्ज के साथ उपलब्ध एक ऐसी
सिम है जिसमें आल वर्ल्ड रोमिंग फ्री है। आगे और कि करिअर की दौड़ में आपके पास स्पिक मैके
का टावर आप अपनी सुविधानुसार खोलकर रखने और यथायोग्य फिर टांगने की आज़ादी हैं।
इसमें आप रूचि के मुताबिक़ चैनल बदल सकते हैं मगर कम्पनी बदलने की आपको ज़रूरत नहीं
पड़ेगी ऐसा मेरा मत है। यहाँ सभी प्रदेशों से गंभीर और गहरे इतिहासबोध वाली कलाओं
के जानकार आपकी परिधि में आएँगे ऐसी व्यवस्था की गयी है। कई बार लगा कि स्पिक मैके एक ऐसा
सोफ्टवेयर है जिसमें आपके भीतर एक बेहतर दर्शक और श्रोता पैदा करने की सभी एप्लिकेशंस
निहित है। अगर आपको महसूस होता है कि नेटवर्क कम आ रहा है और सिग्नल कमज़ोर पड़ रहे
हैं तो आप किसी एक नेशनल लेवल के अधिवेशन में हिस्सेदारी कर खुद को टॉप अप करें,जीवन लय में आ पड़ेगा और सबकुछ नार्मल हो
जाएगा। बाक़ी शर्ते लागू।
अपने अतीत में झाँकने और अतीतबोध के साथ पेश आने की यह मुलाक़ात आपको जाने कितनी रुच रही होगी पता नहीं,मगर मैं बड़ा मझे
में हूँ। यात्रा इतनी लम्बी रही कि इसे नापना और इसी में बहते हुए कुछ ठीक से कह
पाना इतना आसान भी नहीं जितना आपके लिए यह लिखित अंश पढ़ना। स्पिक मैके में दिग्गज
कलाकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, फ़िल्मकारों और दस्तकारों का हफ्ते-हफ्तेभर का साथ और
प्रभावकारी संगतें आज भी भीतर बसी है। उसी असर के बूते हम अपने शहर के हज़ारों
बच्चों तक यह तहज़ीब ले जाने के लिए वक़्त जुटा रहे हैं और सफल भी हुए हैं। हमारा ये
समय और ये सालाना रूप में इकट्ठे आंकड़ों से भरे एक्टिविटी चार्ट हमारी तमाम घोषनाओं के गवाह है। घर की
कहूं तो तेरह साल पहले मैं अकेला पागल था अब पत्नी नंदिनी भी साथ है और रही सही
कसर बेटी अनुष्का ने पूरी कर दी। पहले मैं घर आने वाले मेहमान की ख़बर से ही उसके
आने से ठीक पहले उस दौर के टूटल्ये सीडी प्लेयर पर क्लासिकल म्यूजिक सेट कर देता था।
बेचारा मेहमान। हालांकि कुछ मेहमान बाद में मित्र हुए और कुछ फिर घर आए ही नहीं।
मगर मैं अपनी औकात से न एक इंच इधर हुआ न उधर। अब घरवाली कुमार गन्धर्व जी से निचे
बात नहीं करती और बेटी तिल्लाना और तिहाई से निचे। शास्त्रीय और लोक विरासत के
तपस्वी गुरूओं की पहचान का विवेक आ जाने के बाद हम तीनों रोज़मर्रा की ज़िंदगी में
उन्हें चयन के आधार पर एक-एक कर अक्सर सुनते हैं। नृत्य की सभाओं के बीच हमें
ध्रुपद याद आता है। कलापरक चर्चाओं के बीच बाउल संगीत, बिरहा और कबीरपंथी गायन। आयोजनों को मनोरंजन के परफोर्में में देखने की बेसिक समझ से बहुत आगे बढ़ गए हैं ऐसा लगता है। आज़
स्पिक मैके की बदौलत हम एक ऐसे दौर में जी रहे हैं जहां हमने एक मुकाम पाया है।
कला और संस्कृति पर घंटों बात करने और खुद को अभिव्यक्त करने का हुनर हमें यहीं
मिला है। ज्ञान और अनुभव से एकाकार होने का यह सफ़र लंगा गायकी से लेकर पुंग चोलोम
लोक नृत्य और पुरलिया छाऊ नृत्य के मेहनतकश नर्तकों से लम्बी बातचीत के रोमांचक दौर से लेकर ध्रुपद गायकी में
सोमबाला कुमार जैसे स्त्री स्वर से एकदम सहज और अनौअपचारिक संगत तक पहुँचा है।
असल में यह आन्दोलन है ही बड़ा दिलचस्प। यहाँ हमने हर तबियत के साथी जोड़े और
उनके साथ लम्बी निभाई भी है। समूह में काम करते हुए एकजुटता की कई मिसालें हमें
कायम की है। नाम लेने से ही कई किस्से और तस्वीरें मुझे अपने बीते में ले जाना
शुरू कर देती हैं। रमेश प्रजापत जैसा चायवाला और विष्णुप्रसाद कंडारे जैसा घुमक्कड़।
गोवर्धन बंजारा और लालुराम सालवी जैसा ठेठ देहाती। नितिन सुराणा जैसा हरफनमौला और
तरुण पंचोली जैसा भोला आदमी। आन्दोलन का बीता एक दशक एकदम हराभरा साबित हुआ है
जिसमें केसरिया जैन गुरुकुल से लेकर क्रिश्चयन मिशन, केलिबर एकेडमी, विशाल एकेडमी, अलख स्टडीज और सेन्ट्रल
एकेडमी की शनिवारीय शामों के ठिकाने कौन भूल सकता है। कभी कभार पिछे देखना कितनी सुखद अनुभूति
देता है जब हम बनारस, कानपुर, मुम्बई, मणिपाल, जम्मू, कोहिमा, जयपुर में हुए सालाना जलसों के किस्से दुहराते हैं तो मुआमला और भी रोमांचक हो
उठता है। बीते डेढ़ दशक में उपजी कहानियों में आए तमाम कलाकार और साथी आज़ हमारी
ताकत है। कइयों से पहचान हुई और अब तक बनी हुई है यह स्पिक मैके का हम पर क़र्ज़
माना जाए। आखिर में यही कहना है कि क़र्ज़ चढ़ता रहे और हम क़र्ज़ उतारने के बहाने
बिगड़ते रहे। अब पूरे आदर सहित किरण दा से कहूंगा कि हमें इस बहाव में साथ ले चलने
और इस भीड़ भरे ज़माने में हमारी तर्जनी थामने का शुक्रिया।
माणिक
सन 2000 से अध्यापकी। 2002 से स्पिक मैके आन्दोलन में सक्रीय स्वयंसेवा।2006 से ऑल इंडिया रेडियो,चित्तौड़गढ़ से अनौपचारिक
जुड़ाव। 2009 में साहित्य और संस्कृति की ई-पत्रिका अपनी माटी की स्थापना। 2014 में चित्तौड़गढ़ फ़िल्म सोसायटी'
की शुरुआत। 2014 में चित्तौड़गढ़ आर्ट
फेस्टिवल की शुरुआत। कई राष्ट्रीय सांस्कृतिक महोत्सवों में प्रतिभागिता। अध्यापन
के तौर पर हिंदी और इतिहास में स्नातकोत्तर।
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