होली के नाम पर आज दिनभर तेज धूप थी शाम के समय ही कुछ ठंडक अनुभव हो पाई.सुबह दो घंटे किले में गुजारे,रेहन पर रग्घू पढ़ते हुए रघुनाथ के परिवार के से नज़ारे मैंने अपने आस-पास के जीवन से भी अनुभव किए.इस उपन्यास के दूसरे या तीसरे भाग में नारी मन/तन का जिस बेबाकी से वर्णन किया गया है उसे कम से कम किसी सभा में तो नहीं पढ़ा जा सकता.मुझे वो वर्णन बहुत हद तक अश्लील ही लगा.काशीनाथ जी ने जाने कैसे लिखा होगा.गज़ब हिम्मत के साथ.
दोपहर में इकलौती बहिन मंजू को चित्तौड़ से अपने गाँव माँ-पिताजी के पास होली करने बाईक पर छोड़ने गया.रस्तेभर घर-परिवार की बातें एकदम यथार्थपरक.कभी कभार नोस्टेलजिक होते हुए.रास्तेभर अफीम की खेती-बाड़ी को सूंघते हुए.बीच में पड़ते हुए गांवों की पक्की सड़कों को निहारते,रास्ते के सूखते तालाबों को देखते हुए ही गाँव तक की यात्रा आज के खाते में.खाली कुण्डियाँ,रंभाती गाएं.भारे लादे आती-जाती तरुणियाँ,डोडे को अगली सुबह चीरने के लिए आज की इस तेज धूप में चीरा लगाते हुए.बड़ी मेहनत,लगातार खड़े-खड़े खेत नापते मजूर.
गाँव के घर पहूँचते ही,माँ-पिताजी के साथ एक घंटा गुजारा.हम फिर से एक साथ थे.चार लोग.माँ-पिताजी,भाई-बहिन.हाँ इस बारी बहिन का इकलौता बेटा पीलू भी साथ था.गाँव के अपने दुखड़े थे.शहर की अपनी मज़बूरियाँ.लम्बे दिनों के बाद गाँव देखा.मगर गाँव की नीरवता उपजाते अफीम की कास्त में व्यस्त जनजीवन को फिर से इस साल भी करीब से देखा.खेती-किसानी में लगे लोग ऐसे लगे मानो जैसे गाँव छोड़ कहीं दूजे शहर जा बसे हों.पूरा-पूरा का गाँव खाली.
होली दूसरे गांवों की तरह उसी होली थड़े पर एक महीने से रूपी हुई थी.बच्चे कुछ दिनों से अपने नन्हें हाथों से बने हुए बडूलियों की मालाएं आज पिरो रहे थे.बालाएं नारियल जोड़ रही थी.लडके लोग नारियल फोड़ने और उससे निकालने वाले पैसों के लिए लालायित थे.इन सभी नजारों के बीच हमारा बचपन झाँक रहा था.पंचो के द्वारा होली जलाने के ठीक बाद गाँव भ्रमण को निकलने वाले रास्ते एकदम साफ़-सुथरे हो चुके थे.इत्तफाक से घर के पास वाली घु-मूत की गली भी साफ़ थी.अंत में निम्बाहेड़ा होते हुए चित्तौड़ पहुँचा.इसी बीच आज दो ऐसे जोड़ों से भी मिला जो अन्तर जातीय विवाह करके भी सफल जीवन जीते हुए मिले.उनमें से एक दोस्त था जिसकों सात महीने का बेटा हुआ था.एक शादी को दो महीने हुए थे जो रिश्तेदार था.विविधता से भरापूरा दिन गुज़र गया.
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