गाँव से शहर की वापसी पर माँ-पिताजी का मूंह छोटा सा हो जाता है.वे आखिर तक कुछ बातें याद दिलाते रहते हैं.हम गाड़ी स्टार्ट करके आगे बढ़ने की जुगत में रेस पर हाथ धरे रहते हैं.हुंकारे भरते हुए आखिर हम आगे बढ़ ही जाते हैं.और फिर से एक बार पीछे न सिर्फ गाँव छूटता है बल्कि अपने हाल ज़िंदगी जीते माँ-पिताजी छूट जाते हैं.वे वहाँ अपनी सारी फुरसत हम नाचीज़ जानों पर खरचते हैं.और इधर हम बेकाम की चीजों में उलझे हुए ख़ास रिश्तों तक की टोह नहीं ले पाते हैं.अजीब ज़िंदगी है.कभी कभी खुद पर बहुत दया आती है.स्वयं को ही कटहरे में खड़ा पाते हैं.खुद को सजा देने की बात सोचते ही हैं कि अचानक इसी शहर का कोई ज़रूरी काम याद आ पड़ता है हम सोचना छोड़ चल पड़ते हैं.
हमारे ज़रूरी कामों की फेहरिस्त में समय निकाल कर गाँव फोन लगाना कभी कभार ही शामिल हो पाता है.कितने व्यस्त हैं हम जिनके पास खरचने को इतना वक़्त भी नहीं कि हम इत्मीनान से अपनी जन्म भूमि को याद कर सकें.पोतड़े धोने वाली उस माँ से ठीक से बतिया सकें.अगर माँ है तब तक तो उसकी ज़रूरत अनुभव नहीं होती है अफसोस बाद के सालों में कितने ही छाती माथे कूटते रहो,हाथ कुछ नहीं आने वाला.कम से कम अब तो संतान की कीमत तो समझे जब खुद हमारी संतानें स्कूल जाने लगी है.ये आत्मबोध कभी कभार कर लेने से दुःख हल्का हो जाता है.मगर मन भारी हो जाता.
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