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हाँ जीवनभर धूप रही
कहा न कुछ भी हमने
क्या लिखी है तुमने
छाँव
इस आँगन में
कह दो खुलकर सही
आखिर
कहो कब तक
हम कब तक चिल्लाएं
हकों के लिए
सकुचाएं
वेदना खूब सही हमने
अनजाने में अब तक
घाव सहते पाँव
अब तक
तो चलते रहे
चुपचाप
मगर
आखिर
कहो कब तक
*माणिक *
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