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01 नवंबर, 2012

कुछ नयी कवितायेँ-10

Photo by http://mukeshsharmamumbai.blogspot.in/
(1)
परेशान रात

सचेत आँखों से
पूरी रात
ढूँढते रहे एक चेहरा

चेहरा मिला भी
मगर खो गया निशान
ठीक पहचान का

यूं गूदे हुए नाम का
हाथ में
अचानक धंस जाना

कान कटी बकरी का
यूं हो जाना ओझल
अपने ही झुण्ड में

मुश्किल से हथियाए
खरगोश का यूं
फिर छूट जाना हाथों से

आँखों के समकोण पर
किसी अपराधी का
फटाक से ढ़ेर हो जाना

सबकुछ इतना तुरत-फुरत
सहसा-अचानक-तत्काल की-सी
सारी संज्ञाओं को झूठा करती रात

कोई छिपने की
भरसक कोशिश में तल्लीन 
कोई ढूंढ लेने के होंसले से
खचाखच

मन रहा हमारा अनमना
यूं खलता रहा ये खेल हमें 

पूरी रात

तिल रहित उस चेहरे पर
तिल बनाने में
गुज़र गयी एक परेशान रात

घर की इकलौती चादर में
छेद ढूंढकर
ठेगरा सिलने की मानिंद

परेशान रहे कुछ लोग
कर्फ्यू की थोड़ी सी ढ़ील
के बीच मुस्कराते चेहरों सहित

यादों की रातभरी बिछावट का
कोई कोना अछूता नहीं रहा
सब तरफ सोये रातभर

(2)
शुक्रिया

एक रात के अहसानमंद हैं हम
जिसमें अटके हुए चाँद से
देर तक रिसता रहा अनुराग

वो महज़ एक तारीखभर
कैसे हो सकती है जिसमें
नयी पहचान पर
गीतों के बीच अपनापन लीपती रही
रिश्तों की झिलमिलाहट

याद रही हमें तमाम बातें
ससुराल की नातेदारी की तरह
रात लिखता हुआ 
एक-एक तथ्य 

 याद रहा 

शुक्रगुज़ार हैं हम
एक दुपहर के
दूर तक रास्ता नापने पर जिसमें
टेकरी जमे पत्थरों में
मुस्कराती है एक मुलाक़ात
खुलती हुई ज़ुबानों की

भान है हमें इस बात का कि
शामें अक्सर इतिहास बनी हैं
हमारे हिस्से में ईनाम धरती हुयी
कनखियों से ईशारों की तरह
टपकती रही बातें जहां
कई दिनों तक
सीमांकन में उलझे रहे
दिल बेवज़ह हमारे

सिर झुकता है आज भी हमारा
उस दिन की आवभगत में
गर्भ ने जिसके जाए हैं
नयी शक्लों के कुछ स्पर्श
पन्नों सा फड़फड़ाता है वो दिन
अक्सर इस अंधड़भरे जीवन में
राह दिखाता है आज भी

कितने ही सवेरों का
ऋण बाकी है हम पर  
हाँ
परेशान अंधेरों में
उजाला  देती भोर
कैसे भूल जाएँ हम भला
उस सफ़ेदपोश किरण को


*माणिक *
 
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