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31 अक्तूबर, 2012

कविता नौ साल छोटी संगत

Photo by http://mukeshsharmamumbai.blogspot.in/
नौ साल छोटी संगत 

उसकी आँखें 
नहीं देख सकता
देर तक,लगातार
जो पूछ लेती प्रश्नों
के निबंधात्मक उत्तर 
अनायास
मैं नहीं दे पाता
ज़वाब उनके ठीक से
सामने न टिक पाता
देर तक,लगातार
न रोक  पाता
तिरछी नज़र
मुझ तक सीधे आने से

कभी लगती है
वो कचनार की-सी
पुलकित
बातें करती हुई सी
हुलसित
मदमाती बयार की-सी
बेहिसाब बहती है
बातों में दूर तक
तक भी नहीं पाता मैं
इत्मीनान से एक लहर
वो उपज देती है 
लहर दूजी 
असर करती है जो
देर तक,लगातार

पूरे नौ साल
धकेलती हुई पीछे
ले जाती है उसकी संगत
मुझे,मुझसे
करती हुई जुदा
वो रिझाती है अपनी ओर
मिलाने की खातिर मुझको
खुद में
छटपटाती है
हमउम्र बनाती हुई
उम्र मेरी घटाने को
जुगाड़ बिठाती है
देर तक,लगातार

तमाम हरक़तें
उसकी अदाओं का हिस्सा है
हमारा निहारना,टोंकना
और रोकना
ऊपर से उसको
खल जाए भले
रुचता और गुदगुदाता है हमें
देर तक,लगातार

कभी चुप्पियों में
रंग भरते उसके होंठों से
अंदाज़ बदलते
देखे है
हमारे बीच की
मुलाक़ातों के
अर्थ बदलते
देखे है
अनुवाद किया है
चुपके से 
हमने उसके
कई अनकहे संवादों का
अहसास किया है
देर तक,लगातार

*माणिक *

 
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