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27 अक्टूबर, 2012

27-10-2012

एक परम्परा से अनजान एक दूजा और बड़ा तबका दांत भींचता हैं। गलियों के चौंतरों पर गलतफहमियों के बावजूद चर्चाएँ आगे हांकते हुए नादान लोग है। राज्य में फुरसत की बक्शीश देता एक अवकाश, सवेरे की सेर पर टहल रहा है। शहर की किस्मत में शरद पूर्णिमा पर ख़त्म होने वाले एक सालाना महोत्सव का बोरियतभरा आगाज़ लिखा है किसी ने। खेल के मैदान की एक दीवार पर कोई रामलीला मंचन लिखकर भाग गया है। आज  'घर' एक आदमी के पीहर की शक्ल अख्तियार कर चुका है जिसके आँगन में एक ससुर सुबह की आठ बजे तक नींद साधता हुआ मौजूद है। देर से आये अखबार में खबरों की जगह मोडलिंग फोटो चस्पा हैं। विचारों ने सतरास्ता पैदा कर दिया है आज। शरीर में आलस बसा है और मन में फकीरी। जाएँ तो जाएँ कहाँ।

संगत में कुछ जवान चेहरे हैं और मुकम्मल मुस्कानों के साथ जीवन गतिशील। माफ़ करना मुलाकातों में चाय पर चुस्कियों के बीच  जन्म लेती हुयी कुछ शरारतें लिख रहा हूँ। एक ढ़लती हुई दोपहर लिखना कोई  गलत बात तो नहीं जहां तुरत-फुरत में मिली लाटरीनुमा ख़ुशी की तरह कुछ बेवक्त बूढ़े हो गए डोकरों का अनुभव संगत देता हैं वहीं संगत में आ टपका है एक समाज जिसे झेलते हुए निढ़ाल है एक तबका। एक मजबूरन किया हुआ समझौता है जो कुछ ज़रूरी स्तम्भ कुछ देर और ढ़ोने का इशारा करता है। ''आखिर कब तक ढोएँ ?'' जैसे सवाल करते दिमाग को नज़र अंदाज़ करती शक्तियां हंसती हैं। एक जमात है जो कंपनियों के मैनेजर से पैसे कबाड़ती है बदले में उनकी बिवियों को मुख्य अतिथि बनाने के परम्परागत झुमले पर ज़िंदा है। कुछ ज़बानें ऐसी है जिनकी लार में चापलूसी टपकती है। एक ऐसे दौर में कला-साहित्य का विमर्श चलायमान है जहां अधिकाँश आयोजन सूत्रधार/ मंच सञ्चालनकर्ता/ कला समीक्षक जैसी चिड़ियाओं को नहीं गांठते हैं।सारा मामला एक 'अफसोस' पर आ कर रुकता है।

बस्ती के इकलौते पक्के मकान में एक सही-सलामत हमसफ़र है जो हर वक़्त झुका रहता है घर के बोझ से। यहीं एक नौकरीबाज निठल्ला है जिसके चेहरे पर लापरवाही छिड़की हुई है। स्त्री विमर्श का एक गद्यांश इसी घर में रहता है। वैचारिक आयोजन का एक सूत्रधार यहीं खाता-पीता-नहाता और किताबों में डूबता है। यहीं रहती है गमलों में उगी हुई बेलों सी कुछ शिशु कवितायेँ। कुछ फरमान हैं जो कभी भी जारी हो जाते हैं यहाँ। एक अघोषित कर्फ्यू है घर में जिसमें अक्सर ढील का समय जारी रहता है। दो तीन खिड़कियाँ है घर में जिससे बच्चे झाँककर रास्ते की आवाजाही देखते हैं। घर कांप जाता है जब भी पेपोर रद्दी, शनि महाराज, हॉकर, फटे -पुराने वाले अपने कलावादी गले का इश्तेमाल करते हैं।

ऐसा भी लगता है कभी कि गोलियों सी बातों से निपटना जीवन है कभी प्रेम में गल जाना जीवन। एक और सच कि पास के बरगद से सटे मकान में  एक से लेकर सौ झूंठ तक की गिनती में फंसता आदमी रहता है जिसे बिना तैयारी सच पकड़ती उसकी औरत से डर लगता है। गली के मौड़ पर एक विश्वास हमेशा रोकता है गलत रास्ते पर जाने से। एक आदमी रोज नियमों की जुगाली करता है हमारे मोहल्ले में। एक पड़ौसी लिक्खाड़ रोज लिख मारता है। एक पढ़ाकू रोज पन्ने पलटता है।

आज की डायरी में इतना ही। मेरी अनर्गल बकवास बर्दास्त करने के लिए शुक्रिया।

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